कविता की आलोचना,
कुछ वर्षों पहले किसी स्थानीय लिट् फेस्टीवल में मुझे मलयालम
आलोचकों के बीच जगह दे दी गई, जिसमें मलयालम के धुरन्धर आलोचक थे।
उन्हें मेरी उपस्थिति फिलर के रूप में लगी होगी, क्यों कि एक गैर
मलयाली अनुवादक से साहित्य के भीतर पैठने की उम्मीद नहीं की जा
सकती, और मैं मलयालम साहित्य की आलोचक नहीं, मात्र अनुवादक हूँ।
लेकिन
वे भूल गए कि कभी कभी बाहर से देखने बेहतर होता है, क्यों कि इससे
पूर्वानुग्रह नहीं होता। मैंने वरिष्ठ कवि बालामणीयम्मा की कविताओं
के साथ ही उनकी पुत्री कमला दास के उपन्यास नीर्मादल पूत्तकालम का
भी अनुवाद किया। कमलादास की कविताए तो पढ़ी जाती ही हैं। लेकिन उनके
इस आत्मकथ्यात्मक उपन्यास ने उनकी अपनी गाथा के साथ मां और नाना के
इतिहास को भी दर्शाया था। बालामणियम्मा की छोटी बेटी से हुई बातचीत
ने अम्मा को समझने में भी मदद की थी। मै बालामणियम्मा को देख कर
अचम्भित थी कि कितनी सहज, लेकिन कितनी गूढ़। लेकिन जब कविताओं का
अनुवाद किया तो महसूस हुआ कि जिन्दगी का कोई भी हिस्सा नहीं था,
जिसे उन्होंने छुआ नहीं था, जबकि उन्होंने पारम्परिक शिक्षा
प्राप्त नहीं की थी, और घर से बाहर भी नहीं निकली थीं, लेकिन उनकी
कविताओं नक्सल समस्या, रेगिंग समस्या, सर्जरी और पोस्टमार्टन आदि
से सम्बन्धित कविताए भी करी ६० या ७० के दशक में लिख ली थी? साथ ही
वे पौराणिक कथाओं को बेहद आधुनिक दृष्टि से प्रस्तुत करती थीं।
जैसे कि कुब्जा कुबड़ी नहीं, बल्कि समाज में हीन समझी जाने वाली
स्त्री थी, जिसे कृष्ण से सिर उठा कर जीना सिखाया, वाल्मीकि को
क्रोंच पक्षी के वध से ज्याद इस बात की ग्लानी थी कि वे अपने
परिवार को जंगल में अहसाय छोड़ आये, परिवार को वे कैसेभी पालते, वह
उनकी जिम्मेवारी थी।
बालामणीयम्मा में वह साहस था कि वे कह सकी कि रामायण ऊपर उठते
पंखों की कहानी नहीं, बल्कि अधोपतन की कहानी है, यह वाक्य उन्होंने
राम और सीता को दृष्टि में रख नहीं बल्कि वाल्मीकि को रख किया था।

मजे की बात अम्मा के इस तेवर पर किसी भी आलोचक की निगाह नहीं पड़ी,
उन्होंने बस मातृत्व की कवि घोषित पर प्रतिष्ठित कर दिया । जबकि
मातृत्व पर उनकी कुछ एक कविताएं ही थी. वही दूसरी ओर कमलादास को
आलोचकों बड़ी अजीब सी केटेगरी में रख दिया, जबकि कहा जाता है कि जब
उनकी कहानी छपती थी, तो एक अखबार की चौगुनी प्रतियाँ बिक जाती थी।
और निर्मादल पूत्तकालम का अनुवाद करते हुए, उनके बचपन के एकान्त के
साथ उनकी दृष्टि की व्यापकता देखने को मिलती है, लेकिन आलोचकों ने
बस माई स्टोरी और कुछ कविताओं के अलावा कुछ पढ़ा ही नहीं। यही
स्थिति अय्यप्प पणीक्कर के साथ हुइ, उनकी केरलीय शैली की हास्य
व्यंग्यात्मक कविताओं के अतिरिक्त किसी पर स्थानीय आलोचकों की
निगाह ही नहीं पड़ी। मैंने इसी बात को सत्र में उठाया कि मलयालम
साहित्य के आलोचकों ने वैश्विक नहीं किया, और लेखकों के कटघरों में
बन्द कर दिया, जिससे कवि को तो एक छवि मिली, लेकिन पाठकों का
नुक्सान हो गया, मेरी बात बहुतों तक पहुंची और अनेक युवा मेरे पास
आकर कहने लगे कि हम बालामणीयम्मा को पढ़ ही नहीं रहे हैं, लेकिन अब
ध्यान से पढ़ेंगे।
मुझे लगा कि जब पाठक आलोचक की निगाह से पढ़ता है तो मूल खोज ही नहीं
पाता। आलोचक के अपने पूर्वाग्रह हो सकते हैं। कभी कभी आलोचक, अपनी
लेखनी के चमत्कार दिखाने के चक्कर में मूल को भुला बैठता है। और
पाठक पढ़ने से पहले ही लेखक या कवि को एक कटघरे में रख लेता है,
जिससे उसका कविता को समझने और साथ ही कविता के साथ नये आयाम खोजनें
में समर्थ नहीं हो पाता।
दरअसल कविता की यात्रा पाठक द्वारा पाठ और कविता को अपने तरीके से
समझने से आरम्भ होती है। हर पाठक अपने - अपने तरीके से कविता को
समझता है, जैसे कि सागर पर लिखी कविता को जिस रूप में एक केरलीय
मछुआरा देखेगा, वैसा पर्यटक नहीं. दोनों की यात्रा एक बिन्दू से
शुरु हो कर भी अलग अलग होगी. और यह जो भिन्नता है , वही तो कविता
है दरअसल।
कविता को मात्र पाठक की जरूरत है, आलोचक की नहीं, मेरा यही विचार
है।
इस अंक के कलाकार मशहूर कवि और कलाकार पभात जी है , और उनके ये
चित्र कविता से कही ज्यादा असरदार हैं।
पत्र-संपादक
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