समकालीन कविता
November 2022 -Kritya
ओम नागर की राजस्थानी कविता
हिंदी अनुवाद : स्वयं कवि
हिंदी,राजस्थानी और अनुवाद की तेरह पुस्तकें प्रकाशित। पुरस्कार/सम्मान: साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली का “युवा पुरस्कार”-2012 भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली का “नवलेखन पुरस्कार”-2015 और राजस्थान साहित्य अकादेमी, उदयपुर के “सुमनेश जोशी पुरस्कार” एवं राजस्थानी भाषा अकादेमी, बीकानेर के “बावजी चतर सिंह अनुवाद पुरस्कार” , संबोधन पत्रिका के “आचार्य निरंजननाथ कविता पुरस्कार”, “सत्यप्रकाश जोशी कविता सम्मान” से सम्मानित।
औरतें : पांच कविताएं
( एक )
गठबंधन के सात वचन
तुम्हारे भी थे
और मेरे भी
लेकिन तुम
हां भर -भर के भी
मुकर गए
और मैं
सदैव तोली जाती रही
वचन की आन में
घर-बाहर की रीत में
धर्म की ऐसी तुला में
जिस में न जाने
कितने युगों से थी काण
औरतों का सत
सीता का सत है
जानती हूं जिस सत को
रामजी ही नहीं समझे
तुम तो फिर
कोरे मनुष्य हो
मनुष्य होकर भी रहते तो
भाग्य सरहाती।
( दो )
आंगन में धूल रह जाती
तवे पर जल जाती रोटी
या फिर पौ फटने से पहले
नींद न खुले किसी दिन
उस दिन
उलाहनों के गर्म चिमटे टेकती सास
गिना देती कुल -खाप
औरतों के कुल में
औरतें ही नहीं जन्मती
जन्मती है सृष्टि
फिर भी
ईश्वर के शिल्प का यह अंतर
एक औरत ही क्यों भुगतती है सारी उम्र ?
वंश तो बेटों का बढ़ता है
औरत के भाग्य में तो
खड़ी आना
और आड़ी जाना लिखा है
युगों से
युग बीत गए
और न जाने कितने जन्मों से
ठुकी है अभी भी
औरत के हृदय
धर्म की फांस।
( तीन )
महीने में सब दिन पवित्र
और चार दिन अपवित्र क्यों ?
चूल्हे चौके से अलग वास
देहरी पूजी लक्ष्मी
एक लोटा पानी के लिए
ताकती रहती है परेण्डी
सच तो यह है
कि जो औरत की देह से
बस ! यह चार दिन निकाल बाहर करें तो
सूख जाएंगी
अभिमान में डूबे आदमी की अमरबेल।
( चार )
बेटी हुई तो
मर्यादा की चिंता
बहू हुई तो
वंश की चिंता
मां हुई तो
संतान की चिंता
मां की चिंता में
सदैव शामिल रही
मेरे विवाह की चिंता
किताबें -स्लेट नहीं होती तो
नहीं होती
मुझे मेरी पहचान
कोई हृदय की आंख से
कभी देखे तो ज्ञात हों
प्रत्येक
आदमी के चेहरे में
झलकता होता है मेरा /
औरत का अक्स।
( पांच )
मैं चुड़ैल
मैं डायन
तुम भूत
और जींद
तुम तो भूत होकर भी
पुजवाते रहें थानक
जींद बनकर साधते
रहे कारज
और हमारा क्या सदा
पीपल पर रहा वास
कथित देवताओं के साथ
हम औरतों का भाग्य तो
मरने के बाद भी रहा जस का तस
हमेशा कही जाती चुड़ैलें
बिना कसूर गांव बाहर रहे डेरे
जीवित रहते हमारी पीठ पर
गर्म चिमटे के घाव देखे है कभी
देखना !
हमारे कलेजे पर उघड़े
आदमी के दिए नीले डाह
विधाता कभी फिर
बेटी बनाकर जनमायें किसी घर तो
डाह सहित जन्माना
बेटों की इच्छा
रखने वालों को पता तो लगे
कि कितने जन्मों से
लोभ की आग में झुलसती आ रहीं है औरतें
हमेशा सोचती
औरतों के हिस्से फिर किस योनि में
आवैगो सुख
जिसने
न चुड़ैल बनकर शांति मिली
और न सीता बनकर।
————————————————————————–
अजेय की कविताएं (हिन्दी)
अजेय भौगोलिक दृष्टि से अपने देश के सबसे ऊंचे इलाके केलंग के निवासी हैं। केलंग मनाली से 115 किलोमीटर की दूरी पर रोहतांग के उस पार जिला लाहुल एवं स्पीति का मुख्यालय है। सर्दियों के दिनों हिमपात से यहां का तापमान शून्य से 35 डिग्री नीचे चला जाता है। ऐसे कठिन जीवन में कविता के प्रति रागात्मकता असंभव तो नहीं, किंतु कठिन जरूर है। फुर्सत के समय सर्द माहौल में रची गई कविताएं गुनगुनी धूप सी लगतीं हैं।
(ये कविताएं कृत्या के पूर्व अंकों से लीं गई हैं।)
प्रार्थना
ईश्वर
मेरे दोस्त!
मेरे पास आ
यहां बैठ
बीड़ी पिलाऊंगा
चाप पीते हैं
गप शप करते हैं
बहुत दिनों बाद फ्री हूं
तुम्हारी गोद में सोऊंगा
तुम मुझे परियों की कहानी सुनाना
फिर न जाने कब फुर्सत होगी
खामोशी
तुम्हारे भीतर कोई आग नही
फ़क़त एक उमस है
पनपता है जिसमें
पल प्रतिपल
विषैले खुम्भ सा
कमजोर
अश्लील
लिजलिजा पाप
जितना कायर
उतना घातक
पानी
बुरे वक़्त में जम जाती है कविता भीतर
मानो पानी का नल जम गया हो
चुभते हैं बरफ़ के महीन क्रिस्टल
कुछ अलग तरह का होता है, दर्द
कविता के भीतर जम जाने का
पहचान नही आता मर्ज
न मिलती है कोई चाभी
स्विच ऑफ ही रहता है अक्सर
सेलफोन फिटर का भी
———————
Dragan Dragojlović
(सर्बियन भाषा की कविता)
अनुवाद रति सक्सेना
Dragan Dragojlović का जन्म सर्बिया में हुआ, आपने बेलग्रेड विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। आपकी सरबियन भाषा में 20 पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, आपके उपन्यास, लघु कथाएं, कहानियां और कविताएं वैश्विक पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। आप 2009 में European Academy of Poetry के पूर्ण कालीन सदस्य भी रहे हैं।
आप Assachussets University in Boston, USA के फेलो भी रहे हैं।
प्रस्तुत कविताएं युद्ध में प्रेम को रेखांकित करती हैं।
वेदना की पीड़ा
दिल की कितनी भी गहराई में
चाहे यह पीड़ा पैठे, अतल में पैठे
चीत्कार चाहे कितनी भी तीव्र हो
कमजोर हो ही जाएगी,अगले दिन
आंतरिक प्रलाप का
प्रसव और अन्त
अपने आप को संभालो
हम लोग दुख से पत्थर बन जाएं
दुख का पत्थर
पत्थर जिसके पास कोई आशा नहीं
और ना ही स्मृतियां
एक पत्थरी चट्टान खिर खिर कर
खंडहर बन रही है।
कोई नहीं बचा
जुलाई मास की तपन भग्न घर के
दरवाजे से भीतर सरक आती है
दीपको के चिह्न की तरह
जुगनू चमक रहे हैं,
दूर कहीं से कृषकों के गीतों से
उजाड़ मौन दरक रहा है,
रात की तेज हवा में
मकड़ी के जाले की तरह कांपते
उस शान्त तारे से
इस जगह पर उतरता हुआ,
जहां हमारी पूर्व जिन्दगी
औेर वर्तमान मृत्यु के अतिरिक्त
और कोई नहीं बचा
खण्डहर और कालिख
गांव में ना घर बचे है
ना ही घुड़साल, या चारदीवारियां
बस कालिख, खण्डहर
और मृतक, सर्दियों की नम धूप में सड़ते हुए
जब तक हमारी गिनती पूरी हुई
जंगली परछाइयां हमारे सिरों पर
मण्डराने लगीं,
सांझ की कड़ुवाहट में पहले ही सब कुछ
चित्रित हो गया था
हमें समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें
लेकिन तभी किसी ने मोमबत्ती जलाई
हम सब मूढ़ मौन हो गए
असलियत से कहीं दूर
मृतक विस्मय से हमें
घूर रहे थे
मानो कि हमारा अस्तित्व ही नहीं हो।
—————-
सरिता अंजनी सरस
स्मृतियां स्नो फॉल सी
स्मृतियां स्नो फॉल सी है
गिरती हैं और जम जाती हैं
बर्फ सी..
रेत के मानिंद फिसल चुका अतीत
अपने वर्तमान में कितना कड़वा होता है
स्मृतियों में उतना ही सुंदर।
कोरोना का कहर और युद्ध की विभीषिका के बीच
वक्त ने सदमे भरी एक गहरी सांस ली
एकाएक पेड़ों के पत्ते झुलस गए।
पक्षियों को नहीं पता
यूक्रेन रूस युद्ध क्यों, क्या, कैसे?
पर उन्हें जीवन में आए संकट पता है।
पृथ्वी के शून्य हृदय में
गूंजती भयानक चीखें
गरीबों की उम्मीदें छतों पर पड़े कपड़ों की तरह
धूप उतरते ही बटोर ली गई।
तोपों की भयानक गर्जना में
पेड़ो की कोपलें कुम्हला गई
पूरी की पूरी कौम एक अंधेरे जंगल में खो गई है
इन अंधेरे जंगलों में सुखों की पतली पगडंडियां
कहां ढूंढे?
स्मृतियों की आंखों में इतिहास पानी की तरह तैर रहा
मीठी यादों के झरते गुलमोहर के बीच
वर्तमान का यथार्थ छलनी कर देता है
युद्ध मानवता के माथे पर कलंक है…
वक्त कायनात के आसुओं का रंग देख रहा
और
बटोर रहा था सदी की आखों से झरते एक – एक कांटे को
समय गांधारी की तरह आंख पर पट्टी बांध सोच रहा
युद्ध क्या इंसानियत से बड़ा है?
प्रेम
गुज़रती ठंड के धूप में लिपटी
इठलाती हरियाली…!
फगुनहट में उगती फुनगियों पर
प्रेम स्फुटित हो रहा है
बसंत बो रहे हो तुम मुझमें…
सरसो की पिअराई सी
तुम्हारी संवेदना
पसर रहीं हैं मुझमें…
धूप ऐसे बिखरी है
जैसे तुम्हारा प्रेम पसरा हो
ऐसे ही तो है तुम्हारा प्रेम
मैं देखती रह जाती हूं
अनंत तक….
ओस बूंद ऐसी
कि जैसे,
तुम्हारे प्रेम में पक रही मुस्कान
इस गहन खामोशी में
ऐसे उतर आते हो मुझमें
गह लेते हो मुझे
मौन कर जाते हो…
अठखेलियां करतीं ये तितलियां
ऊधम मचाती ये गिल्लू
उछलती फुदकती गौरैया
लगता है मै ही हूं…
ठंडी में बर्फ – सी पिघलती,
तुम्हारे प्रेम में पगती हुई..
जब आसमां की पलकें
बोझिल होती हैं..
जब थका हुआ दिन
विश्राम करता है..
तब भी तुम्हारा प्रेम
उस मद्धम बयार संग
बहता रहता है मुझमे..
फागुन के रंगों से
सराबोर होता अस्तित्व मेरा
फागुन के माथे पर
बैठी है बर्फ की एक बूंद
इतराती… प्रेम पंखुरी…!
मुस्कान का टीका
नफरतों की साज़िश से
जब कुतरा जाने लगा
मेरे प्रेम का पंख
मैंने यादों के वितान से एक जुगनू निकाल
टांक दिया उदासी के माथे पर….
प्रेम में उपजी पीड़ा नितांत अकेली होती है
आंखो के नमकीन पानी से
पीड़ा के खेत लहलहा उठते हैं….
एक दिन मेरे मौन पर
भारी पड़ गया था एक आंसू
मैंने ओ आंसू हथेली पर लिया
और सींच डाली अपनी भाग्य रेखा ….
कलम जो कि मेरे जिंदा होने का सबूत है
मेरी पीड़ाओं में डूब उसकी स्याही गाढ़ी हो जाती है
और आंसुओं से डूबे
हृदय के खेत में
पीड़ा रोप दी जाती है….
लहलहाते खेत से निकलती हैं अनगिनत पीड़ाएं
फिर भी पीड़ाओं पर भारी पड़ती है
मेरी एक मुस्कान
जिसे मैं हर सुबह सूरज के माथे पर लगाती हूं
इस उम्मीद में
कि नफरतों का दर्प टूटता रहे…….
रात के घनघोघर अंधेरे को चीरती हुई रोशनी
जब ब्रह्मांड को प्रकाशित करती है
सूरज के माथे पर
मेरी मुस्कान का टीका
पूरे ब्रह्मांड में छिटक जाता है..
सरिता अंजनी सरस- लघु शोध – हिन्दी और इन्टरनेट, साझा काव्य संग्रह – Raindrops on Hearts, किस्सा कोताह पत्रिका, अरुणोदय पत्रिका, कविता कानन पत्रिका, नेपाल से निकलने वाली हीमालिनी पत्रिका आदि अनेक पत्र पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशित
वरिष्ठ लेखक व संपादक रजत सान्याल द्वारा कविता ‘मन’ का बांग्ला अनुवाद ।
कविता कानन पत्रिका द्वारा ‘ महादेवी वर्मा’ सम्मान ।