मेरी बात
धमाकों और धुएं के बीच
बमों के चीथड़ों में
वह खोज रहा है कुछ अक्षर
जिन्हें जोड़ कर
बना सके कुछ चीज़
जैसे कि सुगंध
जो कम कर सके धुंए की महक,
या फिर बरसात
जिसमें भीग कर पिघल जाए ताप
या फिर अमावस की घनघोर काली रात
जिसमें छिप जाएं सारी अमानुषताएं
माना कि अक्षरों से सुगंध नहीं बनती
किंतु लिखा जा सकता है एक शब्द फूल
फूल को दस बार पढ़ा जाए तो
ज़मीन बन सकती है फूलों के लिए
माना कि अक्षरों से बरसात नहीं होती
दस बार लिखे जाने पर भी
बादल घनघोर नहीं होते
किन्तु बरस सकते हैं लोगों के दिल
किसी अपघटना के विरोध में
पूनम की ज़रूरत नहीं रही
इतनी फैल गई है चकाचौंध, कि
ज़रूरत है अंधेरे की
जिसमें खो जाए वे सारे चेहरे
मानवता के विरोध में खड़े हैं जो,
वह खोज रहा है शब्द
जिन्हें पिरोकर कर अपनी क़लम से
बना सके एक कविता
फिर उसका सिर क़लम क्यों ना हो जाए
यह वक़्त बेहद अलग है, इस वक़्त में क्या सही क्या आभासित, फर्क करना मुश्किल है। जितनी गति से सूचनाएं विस्तरित होती हैं, उतनी ही तीव्रता से अफवाहें भी दौड़ती हैं। हम जितना वैश्विक होते जा रहे हैं, उतने ही हमारे मन संकुचित हो रहे हैं। भयावह वक़्त हो तो भी हम चंद क्षणों के लिए भयभीत होते हैं, फिर भी सीख नहीं लेते। बात प्रेम की करते हैं, पसारते हैं नफ़रत ।
युद्ध के विरोध वाले इस वक्त में कुछ छोटे देश, कुछ अल्पसंख्यक मानस परेशान हाल हैं।
भूलना हमारी फ़ितरत बनता जा रहा है। ऐसे विस्मरण भरे वक्त में हम यह भी भूलते जा रहे हैं, कि मानवीय अर्जित ज्ञान, अनुभव और दर्शन प्रकृति और सृष्टि से सामंजस्य बनाए रखने के लिए है।
साहित्य अथवा लिखे अक्षर उसी कड़ी में एक कदम है। किन्तु यदि हमारा लेखन भी आभासित होता जाये, या फिर सिर्फ अपने लिए लिखें तो इस लेखन का अर्थ क्या होगा? और यदि लेखन ही व्यर्थ है तो कृत्या जैसी पत्रिकाओं की क्या ज़रूरत, जिसने 2005 से कविता की अलख जगाई?
कृत्या देश की सबसे पहली कविता वेब पत्रिका है, जिसे हम कुछ काल से नियमित नहीं कर पा रहे थे, कारण था तकनीकी परिवर्तन। कृत्या “फ्रंट पेज” पर तैयार होती थी, लेकिन काफी वक्त से गूगल ने उसे दिखाना बन्द सा कर दिया था, क्योंकि तकनीकी विकास केवल समकाल को रेखांकित करता है, भूत को काट फेंकता है।
पहले तो सोचा कि इतनी पत्रिकाएं आ गई हैं, क्यों परेशान हों, दरअसल कलेवर बदलने की कोशिश सालों से कर रही थी, कुछ लोगों ने धोखा दिया तो मन बैठ गया।
समझ आया कि हम शब्द नहीं रचते, शब्द हमें रचते हैं। हमें कृत्या के लिए अच्छे सहयोगी मिले, किशोर भाई, जिन्होंने कृत्या को नया आवरण दिया। हां इस कोशिश में पुराने अंक जिनमें हजारों लाखों शब्द खुदे हैं, जुड़ नहीं पाये। उस खज़ाने में से हम वक़्त-वक़्त पर निकाल कर लाएंगे।
हम कृत्या के साथ फिर से उपस्थित हैं, इस समय को रेखांकित करने की कोशिश के साथ।
आपके सहयोग की अपेक्षा में
रति सक्सेना
अपूर्व कुमार (APOORVA KUMAR)
शुभकामनाएँ ! मंगलकामनाएँ !
नये सिरे से एक नयी शुरुआत की बधाई आदरणीया !
आप यूँ हीं काव्य का अलख जगाते रहें!
Editor
शुक्रिया आभार
Editor
Thanks
Editor
Thanks