प्रिय कवि
वसंत सकरगाए
- हमें भी बचा लो
हमारी पहचान का आवरण धीरे-धीरे खिरज रहा है
कुछ कहने की ताक़त शेष होती तो वे ज़रूर कहते
कहते कि हो सके तो हमें भी बचा लो
ज़रूरी क़िताबों की तरह
मटमैले हो चुके हमारे सफ़ों की
रौशनाई फ़ीकी पड़ रही है
जर्जर हो चुके हैं हमारी चेतना के पन्ने
रिश्तों की ज़िल्द जगह-जगह से उखड़ रही है
हम एक सूखी हुई नदी हैं मृत शैवालों के चकतें
और सीलन की बूं भर गयी है हमारे भीतर
इस गरज से कि हमें मुकम्मल पढ़ा जाएगा
हमारे कई पन्ने तुमने मोड़ दिए थे कुछ यादों के साथ
अगर तुम्हारी भूल जाने की आदतों का दबाव न होता
तो हमारे सफ़े यूं टूटकर अलग न होते मुड़े हुए हिस्सों से
हमने ही पुख़्ता की है तुम्हारी ज़मीन
हमारे ही सफ़ों की फूटती रौशनी से
तुम बार-बार लौटे हो गहरे अंधकार से
हमने ही बचाया है हिंसक जबड़ों से तुम्हें हर बार
हो सके तो हमें भी बचा लो ज़रूरी किताब़ों की तरह
यह हम नहीं तुम्हीं कहते हो
कि घर के बुजुर्ग पुस्तकालय होते हैं।
- लापता हो रहे हैं पते वाले पेड़
अब तो खैर,
घरों में होता नहीं पेड़ों का अता-पता
लेकिन कभी पेड़ भी होते थे हमारे घर का पता
पूछने वाले को बताया जाता था-
वो देख रहे हो ना! जामन का दरख़्त
उसी के साये तले रहते हैं
मियां वजाहत
फ़कत इसलिए होती थीं गलतफ़हमियां
डालचंद के घर लगा अमरुद का पेड़
छोड़कर अपनी जड़ें अपना व़जूद
आकर छा जाता था पड़ोसी रामरतन के घर
और आने वाला शख़्स ठीक-ठाक शिनाख़्त किए बगैर
धड़धड़ाता घुस आता था
डालचंद के बजाए रामरतन के घर
होते-होते दाख़िल-हाज़िर
चमेली और हरसिंगार की बारिश से तरबतर
खुश्बू और पुलक रंगों से भीग जाता था उसका मन
अब तो खैर,
अदद के दायरों में हैं हम और पते हमारे घर के
पेड़ भी कहां बख्शे गए हैं घने जंगलों के
उनके तन भी लिख दी जाती है जात की अदद
यानि नाम नहीं, शहर में जरूरी होता है घर का नम्बर
जंगल महकमे के रिकॉर्ड में पेड़ गिनतियों में हैं दर्ज़
कि आसान हो मृत-पेड़ की पहचान
जैसे ज़रूरी होता है निधन की दुःखद सूचना के साथ
कि नहीं रहे अमुक-अमुक नम्बर वाले फलां-फलां साहब
अब तो खैर ऐसा होता नहीं,
कहीं बीचों-बीच लगे नीम जामुन या पीपल के पास
हम जाते थे रास्ता बनाकर बाअदब़
उसी के इर्द-गिर्द धीरे-धीरे फूटते थे चौरस्ते
किसी रस्ते पर होता था हमारा घर
और घर में जैसे कोई बुजुर्ग
ऐसा होता था कोई घना शजर
कभी यूं भी होता था हमारे घर का पता।
- गिनती का शेर गिनती भर दहाड़ा
बहुत हुए घास-पूस के घर
तो ठप्पे से बना लिया टप्पा
गांव पड़ने लगा छोटा तो ईज़ाद कर लिया नगर मैंने
शेर देखता रहा मेरी हर हरक़त चुपचाप
दहाड़ा नहीं मुख़ातिब कभी
पूरी-पूरी छूट ली उसके जानवर होने की मैंने
शेर दहाड़ा
मुझसे डरकर, मुझे डराने के लिए नहीं
पर मुझे लगा मुझे डराने के लिए शेर ने लगाई दहाड़
इसलिए जब बढ़ी मेरी और तादाद, इतना पसरा
कि खींचकर ले गया महानगर को जंगल तक
आधुनिक हथियारों से लैस थे मेरे हाथ
और तो और शेर के ख़िलाफ़
क़ानून गुंजाइश थी मेरे पास
आत्मरक्षार्थ !
मैंने उसकी गुफ़ा को बना लिया पर्यटन
उसकी मांद में हाथ डालकर
निकालने लगा सरकारी मद
उसके हिस्से की नदी जिसके किनारों पर
शेर की कई कहानियां-किस्से गढ़े थे मैंने
सैर-सपाटा करने लगा बेख़ौफ़ मस्त सनन-सनन
क्या कहिए कि सहवास से वंचित शेरनियां उदास
होने लगे शेर नपुंसक कम होने लगी उनकी तादाद
बचे-खुचे शेर बची-खुची खिसियानी दहाड़ों के साथ
खिसकने लगे पीछे-के-पीछे
उस हद-ओ-सरहद तक कि उनके पुट्ठे टकराने लगे
महानगर की उस दीवार से जो घुस आया था
जंगल के दूसरे सिरे से जंगल के भीतर तक
घबराया हुआ शेर जब शहर की तरफ़ भागा
तब बाक़ायदा मेरे पास था एक मुहावरा-
‘जब शेर की मौत आती है तो भागता है शहर की ओर’
जंगल की याद में बेचैन दहाड़ते-दहाड़ते
शहर में घुस आए शेर के पास
कोई मुहावरा नहीं था शहर का
अलबत्ता
गिनती भर का शेर जब शहर में घुसकर गिनती भर दहाड़ा
पहाड़-सा शहर भूल गया अपना हर पहाड़ा।
- शेर (एक)
शेर बहुत प्यासा था
शेर कुएं के पास गया था
शेर ने कुएं में झांका था
शेर ने शेर को देखा था
शेर को देख शेर गुर्राया था
शेर पर शेर दहाड़ा था
शेर पर टूट पड़ने को
शेर कुएं में कूद गया था
शेर का दुश्मन शेर का प्रतिबिम्ब था!
शेर – (दो)
शेर बूढ़ा और कमज़ोर हो गया था
शिकार करने की ताक़त नहीं बची थी
शेर के पास सोने का कंगन था
शेर तरह-तरह के दिखावे करता था
शेर अपने किए पर पछताता था
शेर अपने अपराध स्वीकारता था
शेर बार-बार माफ़ी मांगता था
शेर अपना परलोक सुधारना चाहता था
शेर कंगन दान देने का वादा करता था
शिकार शेर के झांसे में आसानी से नहीं आता था
शिकार तरह-तरह के प्रश्न करता था
शेर शिकार को बहलाना-फुसलाना जानता था
शेर प्रलोभन की जड़ता को जानता था
शेर नदी में स्नान और उससे जुड़े अंधविश्वास
का लाभ उठाना जानता था
शेर शिकार को दलदल में उतारने की हिक़मत जानता था
दलदल के पास मानव-अस्थियों का ढेर लगा था
शेर कंगन को पंजों में दबाकर बैठा था
वहां से एक रास्ता हितोपदेश को जाता था
हितोपदेश चालाक शेर के जीवन
लालची ब्राह्मण की मृत्यु की कहानी सुनाता था
शेर के पास सोने का कंगन था
शेर ताक़तवर था।
वसंत सकरगाए
फरवरी 1960 (वसंत पंचमी) को हरसूद (अब जलमग्न) जिला खंडवा मध्यप्रदेश में जन्में कवि वसंत सकरगाए के कविता संग्रह ‘निगहबानी में फूल’, ‘पखेरु जानते हैं’, ‘काग़ज पर आग’ एवं समकाल की आवाज़ श्रृंखला के अंतर्गत चयनित कविताओं का संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। कविता-संग्रह ‘पखेरु जानते हैं’ की कविता-‘एक संदर्भ: भोपाल गैसकांड’ जैन संभाव्य विश्वविद्यालय बेंगलुरू द्वारा स्नातक पाठ्यक्रम वर्ष 2020-24 में शामिल तथा बाल कविता-‘धूप की संदूक’ केरल राज्य के माध्यमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में सम्मिलित है। गत वर्ष आपकी एक कथेतर गद्य की पुस्तक ‘सुद में हरसूद’ भी प्रकाशित हुई है। कवि वसंत सकरगाए म.प्र. साहित्य अकादमी के दुष्यंत कुमार सम्मान, म.प्र. साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी सम्मान, शिवना प्रकाशन अंतरराष्ट्रीय कविता सम्मान तथा अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्यिक पत्रकारिता के लिए ‘संवादश्री’ से सम्मानित है।