कविता के बारे में
आरचेतन क्रांति : चेतना का प्रतिवादी स्वर
कुमार मुकुल (अमरेन्द्र कुमार)
धूमिल के बाद चेतन के यहाँ चेतना का प्रतिवादी स्वर सर्वाधिक मुखर है। चेतन इस मामले में विशिष्ट भी हैं कि उन्हें धूमिल की तरह अपनी बातों को बल प्रदान करने के लिए किसी की पूँछ उठाने की जरूरत नहीं पड़ी है। ऐसे समय में जब हिंदी के तमाम चर्चित कवि कविता को माथापच्चीवाले खेल में तब्दील करते जा रहे हैं, चेतन अपने समय की विसंगतियों को न केवल उसकी जटिलता में चिह्नित करते हैं, बल्कि सफलतापूर्वक उससे मोरचा लेते दिखते हैं। गुजरात नरसंहार के बाद लिखी अपनी एक कविता में चेतन लिखते हैं—
‘धर्माचार्यो
तुम्हारे दिन तो जा ही चुके थे बरसों पहले
लो, अब तुम्हारा धर्म भी गया
हत्या पर हत्या करके भी
अब तुम उसे लौटा नहीं सकते…’
ऐसा नहीं है कि चेतन का यह रवैया मात्र धर्म के प्रति ऐसा दो-टूक हो, छद्म क्रांतिकारिता को भी वे अस्थिरता और स्थगन के रूप में देखते हैं। ‘हम क्रांतिकारी नहीं थे’ कविता की पंक्तियाँ देखें—
‘वे एक-दूसरे को लड़ने की सुविधा देते हुए लड़ रहे थे
उनके बीच एक समझौता था
जो अनंत काल से चला आ रहा था
हमने उसे तोड़ा
इस तरह युद्ध क्षेत्र के बीच हम बचे…’
हिंदी कविता में विष्णु खरे ऐसे कवि हैं, जो विवरणात्मकता को अपनी ताकत बना पाते हैं। ऐसा वे अपने दृश्यांकन (ऑब्जर्वेशन) की क्षमता से कर पाते हैं। चेतन खरे की शैली को विकसित करते हैं और उनकी कविता ज्यादा मारक बनती जाती है। इसका कारण यही हो सकता है कि खरे के यहाँ यह शैली उनके जीवन की प्रौढ़वय में विकसित हुई है। इस उम्र में स्वभावत: उनका जीवन-संघर्ष उस तरह बहुआयामी नहीं है, जैसा युवा होने के चलते चेतन के यहाँ रहा है। यह कितना मजेदार है कि जिस समय हिंदी के वरिष्ठ कवि अरुण कमल परचून की दुकानों की रंगीनी की ओर लुढ़कते चले जा रहे हैं, चेतन ‘हार्डवेयर की दुकान’ को अपनी कविता में लाते हैं—
‘यह हमारी हार्डवेयर की दुकान है
यहाँ हम चकरियाँ, घिर्रियाँ, तसले, फावड़े उथले
गहरे चौड़े, लोहे,
प्लास्टिक, रबर और अल्युमिनियम बेचते हैं
सुंदर, चिकना और जिसे आप कहते हैं
अनंत के मन में बस जानेवाली कौंध
ऐसा कुछ तो हमारे पास नहीं है
कि काउंटर पर हसीन लड़की भी नहीं।’
ऐसे में जब कविगण अपने प्रेम की चुल्लू भर स्मृति या यथार्थ में ही उब-चुभ करते फिर रहे हैं, चेतन रिक्शावाले के प्रेम पर भी विचार करते हैं—
‘यह प्रेम के तरीकों पर शोक का दौर था
देह का देवत्व पर रात-दिन काम चल रहा था
वात्सयायन की एक टीका रोज बाजार में आती थी…
पर रिक्शेवाले इसमें शामिल न थे
वे रिक्शे को खड़ंजे पर वहशियाना दौड़ाते
कि जैसे लैला लकड़ी की हो
या कि उसे लकड़ी कर देना हो…’
अगर लेखन को किसी हद तक हथियार बनाया जा सकता है तो चेतन की कविताएँ इस मायने में उन हदों को पार करती हैं कि उनका हमला सुचिंतित, कूट-रणनीतिक कार्रवाई की तरह होता है। ‘हिंदू देश में यौन-क्रांति’ कविता को इस संदर्भ में देखा जा सकता है—
‘कि यौवन ने मारी लात देश की
कुबड़ पर और कहा
रुकें, अब आगे का सफर हमें दे दें
पहले स्त्री उठी
जो सुंदर चीजों के अजायबघर में सबसे बड़ी
सुंदरता थी और कहा कि पेड़ू में बँधा हुआ
यह नाड़ा कहता है
कि कीमतों का टैग आप कहीं और
टाँग लें महोदय
इस अकड़ी काली गोल गाँठ को अब मैं खोल रही हूँ…
चकित थे हिंदू
बलात्कार की विधियाँ सोचते, घूरते, घात लगाए, चुपचाप देखते, सन्नद्ध
कि भीम के, द्रोण के देश में जनखापन छाया जाता है…’
इस कविता के द्वारा चेतन हिंदी धर्मध्वजियों को उनकी औकात बताते हैं कि पहले वे तय करें कि इस मुल्क में हिंदू क्रांति हो रही है या मुक्तस्तनी क्रांति? पर धर्मध्वजियों की धज्जियाँ उड़ाकर ही नहीं रह जाते चेतन, उत्तर आधुनिक प्रपंचों की पोल भी वे उसी मुस्तैदी से खोलते हैं—
‘वह जात से ब्राह्माण था
शिक्षा में अंग्रेज
प्रवृति से अराजक तानाशाह
आदत में नशेड़ी भावना से कलाकार
और विचार से कम्युनिस्ट…’ (कविता : आखिरी कामरेड)
चेतन की कुछ कविताओं पर विष्णु खरे का असर दिखता है, कहीं-कहीं रघुवीर सहाय भी याद आते हैं, प्रतिवादी स्वर धूमिल से तीखा होने पर भी चेतन की शैली चेतन जैसी है। सरल लिखना कठिन है, चेतन क्रांति ने इसे हासिल किया है। मैथिली कवि महाप्रकाश से बातचीत के दौरान मैंने जाना था कि कविता की भूमिका एक मां की भूमिका होती है जो सीधा चुनौती नहीं देती बल्कि सीता की तरह अपने बच्चों को आंचल की ओट में बड़ा करती है जो एक दिन राम की रावण विजयनी सेना को परास्त कर देते हैं। चेतन की कविताएं कविता की इस भूमिका को बखूबी निभाती हैं। उनकी कविता सही समय पर सही पाठकों तक अपना मंतव्य पहुंचा देती हैं। यह कविताएं सत्ता के लिए एक चुनौती की तरह खड़ी होती हैं कि जिसे जब तक समझे तब तक वह उसे सर कर चुकी होती है –
…वे आज़ादी से ऊब चुके थे
और अब सिर्फ़ मनोरंजन के लिए
हिंसा का, हत्या का, मृत्यु का और दुःख का
आह्वान कर रहे थे
उन्होंने हिंसा माँगी
द्वारे-द्वारे माँगते फिरे वे हत्या
हत्यारों की तारीफ़ में क़सीदे पढ़ते हुए
अहिंसकों को धीरे-धीरे पीछे करते हुए
…और प्रजा खुश हुई
खुश हुए वो
जो अपनी बीवियों को, बच्चों को, गली के पिल्लों को
पीट-पीटकर ऊब चुके थे
खुश हुए
जो अपनी बेईमानियों चालाकियों हेराफेरियों और तिकड़मों की
अबाध सफलता से ऊब चुके थे
खुश हुए जो हँसते-हँसते पादने लगे थे…
कभी-कभी सत्ता की वाचलता कवि को विचलित करती है, फ्रस्ट्रेट करती है और इस विचलन को वह वीरता के साथ अभिव्यक्त करता है।
(विचित्र थे ये लोग
बहुत फबते होंगे
पाषाण और लौह वाले युगों में
लेकिन डिजिटल में काहे भसड़ पोत रहे बे!)
तथाकथित ‘लव जिहाद’ के इस दौर में कवि ‘विवाह’ संस्था को आईना दिखाने की हिम्मत करता है –
शाम को सिंगार करने वाली औरतें
घर से ज्यादा दूर नहीं ले जाई जाती थीं
वे नहीं जान पाती थीं
कि वेश्याओं के मोहल्ले में भी यह सब
तक़रीबन इसी तरह होता है।
वर्तमान जीवन में निस्सारता के बीज डालने वाली व्यवस्था के चेहरे को चेतन की कविता बखूबी दिखलाती है, ‘पत्र’ कविता इसका अच्छा उदाहरण है।
चेतन के तीसरे संकलन की कविताओं को नई कविता कहने का मन हो रहा, जिन अर्थों में रघुवीर सहाय की कविताएं नई थीं और हैं, उन अर्थों में। नए कवि बहुत से चमत्कार दिखा रहे हैं, वह चेतन से बहुत कुछ सीख सकते हैं।
यह संग्रह ‘सबा’ को समर्पित है और सबा को जन्मदिन मुबारक कहती कविता जीवन संघर्ष की प्रेरणा देती एक अप्रतिम चित्र खींचती है –
मछलियों के बच्चे
तुम्हारे तलुओं की थकान चुग रहे हैं …
पुरानी मैली जीन्स
तुम्हारे दुखते घुटने पकड़े बैठी है
घास के बच्चे
तुम्हारी नंगी कसी पिंडलियों को चूम रहे हैं
पेड़ों के बच्चे अपनी हरी उँगलियाँ तुम्हारे बालों में फिरा रहे हैं
तुम्हारा भारी पिट्टू बैग
तुम्हारी पीठ दबा रहा है …
इस समय की अमानुषिकता ने सहज प्रेम को दुष्कर बना डाला है। तमाम नियम, कानून, पाबंदियां प्रेम की कोंपल के चारों ओर चिनी जा रही हैं पर कवि हारता नहीं है, वह प्यार भेजने से बाज नहीं आता है।
‘साहित्यिक निगाह’ आदि जैसी कुछ फौरी कविताएं भी चेतन के पास हैं। लोकतंत्र में बहुमत के तर्क की निस्सारता दिखाता यह समय ‘शांति वार्ता’ कविता में अभिव्यक्ति पाता है। वर्तमान सत्ता समय के मुकाबिल हस्तक्षेप की समर्थ मुद्रा है चेतन की कविताओं में। यह देख अच्छा लगता है कि अपने तीसरे कविता संग्रह तक आते आते शिल्प के पिछले घेरे को तोड़ पा रहा है, कवि।
मुक्तिबोध की बीड़ी पीती तस्वीर सबकी याद में रहती है पर बीड़ी की सामाजिकी, आर्थिकी को दर्शाती कविता चेतन ने संभव की है। ‘बीड़ी’ के बाद ‘बस दुख’ और ‘दुख’ सीरीज की कविताएं जैसे बीड़ी से जुड़ी पीड़ा और संत्रास को जाहिर करती हैं –
बीड़ी उन्हें संसार के
सबसे कमज़ोर टाँगों वाले आदमी
तैयार करके देती है
जो दुनिया की इधर और उधर से
बिला नागा मरम्मत करते रहते हैं…
चेतन की ‘पहिया’ शीर्षक एक कविता है जो सभ्यता में गति के आतंक को अभिव्यक्त करती है।
मेरे दो कविता संग्रह के लिए कविताओं का चयन कभी मित्र नवीन और चेतन ने किया था। तब उन्होंने गीत, गजलों और सानेट को उसमें जगह नहीं दी थी। हालांकि मैंने अपनी ओर से गीत, गजल, सानेट को हर बार शामिल किया। इधर पटना में देवी प्रसाद मिश्र से नए सानेट सुन खुशी हुई। चेतन के इस संग्रह में गजलों, नज़्म को शामिल देखकर खुशी हुई –
हर बार मुहब्बत ने सिखाया मुझे कुछ-कुछ,
तब जाके मैं इंसान बना, पारसा हुआ।
चलिए, आखिर आदमी बनकर माने, पर यह डूबना समझ नहीं आया यार –
मैं डूबता हूँ तो कश्ती को तोड़ देता हूँ…।
भाई पहले डूबते हैं, फिर कश्ती तोड़ते हैं या फिर कश्ती को मझधार में कैसे तोड़ते हैं, अरे डुबो देना आसान होता … हा हा हा..।
कुमार मुकुल (अमरेन्द्र कुमार)
Kumar Mukul (Amarendra Kumar)
6/7 Srinagar, North of A G colony, Po – Ashiana Nagar, Patna – 800025, Bihar, India