कविता के बारे में

कवि के बारे में लिखना एक बात है, कवि के विचारों को समझना अलग बात है। हमने युवा कवियों के बारे में संवाद आरंभ किया, आगे भी जारी रखेंगे, इसी बीच मुझे महसूस हुआ कि उनके विचारों को समझने के लिए एक विधा है कि उनके सामने सवाल रखें जाएं। सवाल तो अनेक युवा कवियों को भेजे थे, लेकिन सबसे पहले जवाब मिला अजय दुर्ज्ञेय का , इनकी कविताएं कृत्या में प्रस्तुत हैं. इस बार इनके विचारों से सीधे साक्षात्कार करते हैं। -R S

 

१‍‍‍‍‍ एक कवि के रूप में आपको किन किन परिस्थितियों से मुखातिब होना चाहिए?

 

उत्तर- सबसे पहले तो ऐसी कोई विशेष परिस्थिति की चाह है नहीं। एक कवि अगर यह निर्धारित करता है कि उसे कैसी परिस्थितियाँ चाहिए तो वह कवि कम किसी सामंत की तरह अधिक व्यवहार करेगा… मेरा व्यक्तिगत यह मानना है कि परिस्थितियाँ चाहें जैसी भी हो – यदि वहां कविता की संभावना है तो वह होकर रहेगी – चाहें फिर यह कवि के ही विरुद्ध क्यों न हो। इसे कुछ यूँ भी कह सकते हैं-

 

नींद की तरह नहीं,
मृत्यु की तरह नहीं
वरन भेड़िये की तरह-
अनायास आती है कविता

 

इतनी अनायास
कि मैं यह भी नहीं कह पाता-
ओह!तुम आ गए,बैठो!नाश्ता लाता हूँ…
कमरे में एक अजीब चुप्पी गूँज जाती है,
मैं देखता हूँ- मेरे अंग गायब हो रहे हैं।

अजय दुर्ज्ञेय

 

एक समकालीन तुर्की युवा कवि ने कहा था कि मेरे देश में अनेक समस्याएं हैं, हम युद्ध से भी घिरे हैं, लेकिन मैं प्रेम को कब तक नकार सकते हैं? नहीं तो भविष्य में जब आज की कविता पर चिन्तन होगा तो प्रेम नदारद मिलेगा।
आज की कविता में प्रेम का क्या स्थान है, और कितना स्थान मिलना चाहिए?

 

उत्तर- कविता स्वयं में प्रेम की अभिव्यक्ति है। जब हम युद्ध के विरोध में लिख रहे होते हैं, घृणा के विरोध में लिख रहे होते हैं, अमनुष्यता के विरोध में लिख रहे होते हैं तो हमें सोचना चाहिए कि हम यह क्यों कर रहे हैं? क्योंकि हम प्रेम से प्रेम करते हैं। हम चाहते हैं कि सारी अमानुष क्रियाएँ, सभी विसंगतियाँ दूर हो जाएँ ताकि हम प्रेम के लिए जगह बचा सकें। हम युद्ध से, घृणा से इसलिए लड़ते हैं क्योंकि हम चाहते हैं कि प्रेम बचा रहे। यह हमारे जीवन में प्रेम की अभावात्मक उपस्थिति है जो हमें बेहतर के लिए लगातार प्रेरित करती है।

 

सबसे बड़े कार्यकर्ता’

 

प्रेम के लिए
जाति, धर्म, पूँजी, नस्ल आदि
सभी भेदों से जूझते हुए प्रेमी
अन्जाने ही बन जाते हैं,
विश्व के सबसे बड़े समतामूलक, लोकतंत्रवादी और मानवाधिकार कार्यकर्ता…

 

ऐसे कार्यकर्ता जो लड़ाई शुरू करते ही जीत जाते हैं।
प्रथम दृश्य परिणाम में भले ही उनकी गर्दन,
किसी पेड़ की टहनी से लटकी रस्सी में झूलती मिले
या किसी सड़क-दुर्घटना में उनके शव के चीथड़े बिखरे मिलें
लेकिन प्रक्रिया में वे अनंत तक ईश्वर की गोद में झूलते रहते हैं
और उनके प्रेम-पत्र पहले तो इस दुनिया के लिए लानत
और अंततः सृष्टि के संविधान का प्रारूप बन जाते हैं।

 

 

३ युद्ध हर काल में उपस्थित है, युद्ध के बारे में दूर से लिखी कविताओं की बहुतायत मिलती है, लेकिन क्या कभी युद्ध की अनूभूत कविताएं लिखी गईं हैं? अथवा किसी निकट की अनुभूतियों की प्रस्तुति के रूप में? क्या इसकी जरूरत नहीं हैं?

 

उत्तर- ज़रूरत तो है। पर युद्ध की प्रकृति ही ऐसी है कि वह वास्तविक स्थान से हजार किलोमीटर दूर बैठे व्यक्ति को भी भयभीत करता है। क्या हम गाज़ा में मर रहे मासूमों को देखकर दहल नहीं जाते? क्या हम मणिपुर में हो रही हिंसा से नहीं काँपते? संभव है कि अनुभूत कविताएँ इन कविताएँ से कहीं अधिक मौलिक और वेदनापूर्ण हों मगर ऐसा हो ही- यह ज़रूरी नहीं। इस विषय में हमें मुक्तिबोध की संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना की अवधारणा को नहीं भूलना चाहिए। इसके बावज़ूद हमें अनुभूत कविताएँ को पहले पढ़ना चाहिए, प्राथमिकता देना चाहिए लेकिन यदि वे कविताएँ युद्ध की विभीषिका को वहन करने में समर्थ नहीं हैं तो हमें अन्य कवियों को सुनने से भी गुरेज़ नहीं करना चाहिए।

 

४ कविता में व्यंजना की कमी क्यों होती जा रही है, समकालीन हिन्दी कविता में?

 

उत्तर- क्योंकि जीवन में व्यंजना की कमी होती जा रही है। हम एक बहुत ही एक-रेखीय जीवन जीने को विवश हैं जो हमारे फ्लैट से शुरू होते हुए, एक महानगर से गुज़रते हुए हमारे ऑफिस की चौहद्दी पर ख़त्म हो जाती हैं। इसके उलट हिंदी में ही ऐसे कई कवि हैं जो समाज से प्रत्यक्ष तौर पर न केवल जुड़े हैं बल्कि समाज के अंतिम व्यक्ति से भी संवादरत हैं। ऐसे कवि जो सीधे समाज से अपने काव्य की विषय-वस्तु को ग्रहण करते हैं- वहां आपको कविता का शिल्प और तेवर अलग मिलेगा। वहाँ आपको व्यंजना की बहुलता मिलेगी।

 

५ अनेक मुद्दों पर लम्बे वक्त से कविता हो रही है, जैसे कि दलित, स्त्री चेतना आदि, लेकिन समाज पर असर क्यों नहीं दिख रहा है, खास तौर से हिन्दी समाज पर?

 

उत्तर- मै इस तर्क से सहमत नहीं। मेरा मानना है कि कविता की चक्की धीमा ज़रूर पीसती है लेकिन महीन पीसती है और सबसे बड़ी बात पीसती ज़रूर है। जहां तक दलित चेतना के साहित्य का प्रश्न है- वह अम्बेडकर, फुले और पेरियार से प्रेरणा लेते हुए आज सामाजिक और राजनैतिक दोनों जगह मजबूती से उपस्थित है। अम्बेडकर पर लिखी जीवनियाँ, साहित्य भी खासा पढ़ा जा रहा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि और तुलसीराम जी को कौन भूल सकता है। हाँ कविता के क्षेत्र मे यह सुस्ती है क्योंकि दलित साहित्य की अभिव्यक्ति के लिए ज़रूरी भाषा की खोज अभी ज़ारी है। मेरा मानना है कि नये कवि इसे जल्दी ही ढूंढ़ लेंगे और दलित कहानी, आत्मकथा और जीवनी की तरह दलित कविता भी अपने चरम को प्राप्त करेगी।

 

स्त्री चेतना (विशेषतया फेमिनिज़्म) ने बहुत विकास किया है। आज स्त्रियां बिना किसी झिझक के अपनी भावाभिवक्ति कर रही हैं और मज़बूती से अपनी जगह बना रही है। दिक्क़त यह है कि इस जगह में अन्य उपेक्षित स्त्रियां कहाँ हैं? क्या स्त्री चेतना सिर्फ शहरी शिक्षित मध्यवर्ग की स्त्रियों की चाह की अभिव्यक्ति बनकर रह गई है? इसमें मेरे गाँव की स्त्री कहाँ है? कहाँ है वह स्त्री जो कोने में सबसे अंत में सकुची हुई ख़डी हुई है। प्रयास हुए मगर वे नाकाफ़ी हैं और सम्भवतः इसीलिए स्त्री चेतना कुछ वर्ग की स्त्रियों तक सिमट कर रह गई है। हमें इसका वितान बढ़ा करने और आंतरिक लोकतंत्र स्थापित करने की ज़रूरत है।

 

हिंदी समाज न तो उतना अधिक शिक्षित है और न ही जागरूक। इसलिए हिंदी समाज को कविता से जोड़ने के लिए हिंदी समाज और कविता दोनों को बदलने की ज़रूरत है। हमें कविता को उतना मज़बूत बनाना होगा कि उसकी आवाज़ को उपेक्षित करना असंभव हो जाए।

 

६ क्या प्रकृति को हाई लाइट करने का वक्त नहीं आ गया है, इस प्रकृतिहीन समय में?

 

उत्तर- इसके लिए आपको आदिवासी और दलित जीवन की कविताएँ लिखने वाले कवियों को पढ़ना चाहिए। उनकी कविताओं में जल, जंगल, जमीन आदि के रूप में प्रकृति प्रत्येक रूप में अपनी पूरी अर्थवत्ता के साथ उपस्थित मिलेगी।
इसके इतर महानगरीय कवियों को प्रकृति की महत्ता समझे जाने की ज़रूरत है। उन्हें अपने फ्लैट्स, अपने टेरेस गार्डेन और अपनी उपभोक्तावादी मानसिकता से बाहर आने की ज़रूरत है। आज जब प्रत्येक मनुष्य को प्रकृति को बचाने ke लिए मज़बूती से खडे रहने की ज़रूरत है तो क्या कवियों को स्वयं को देखने की ज़रूरत नहीं है। मै आपसे सहमत हूँ कि प्रकृति को हाईलाइट करने की ज़रूरत है और इस बात को समझने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत शहरी कवियों को हैं।

 

७ कविता नारे से भिन्न लगे, उसके लिए कोशिश नहीं होनी चाहिए क्या?

 

उत्तर- अगर ज़रूरी हो तो मुझे कविता के नारे में बदलने में कोई बुराई नज़र नहीं आती। बस वह कविता नारे के उद्देश्य से न लिखी जाए और उसमें अपने युगीन सत्य शामिल रहें। प्रेमचंद ने तो वैसे भी साहित्य को समाज से आगे चलने वाली मशाल माना है तो अगर कविता नारा बनती है, आंदोलन का नेतृत्व करती है तो इसमें कोई बुराई नहीं है। बस यह ध्यान रहे कि नारे को कविता की तरह प्रस्तुत न किया जाने लगे और इसके लिए ज़रूरी है अपने युगीन सत्य का समग्र ज्ञान होना, एक समुचित दृष्टि होना और प्रगतिशील होते हुए जन-पक्षधर होना।

 

८ क्या साहित्यक कवियों को अन्य मीडीयम का प्रयोग नहीं करना चाहिए, जिससे दूरदर्शन आदि से जुड़े लोग अच्छी कविता से जुडे?

 

उत्तर- इसकी मुझे जानकारी नहीं है बाकी कविता को ज़रूरी लोगों तक पहुँचाने के लिए किसी भी माध्यम से परहेज नहीं करना चाहिए- बशर्ते वह माध्यम जन-विरोधी न हो।

 

९ साहित्य में गुटबाजी है, सभी कहते हैं, लेकिन अन्ततः सभी गुट बनाना चाहते हैं, क्या यह मानव स्वभाव है, समूह या गिरोह में रहना?

 

उत्तर- कवि स्वयं में एक समूह है। वह जिनकी अभिव्यक्ति करता है- उनकी सामूहिक उपस्थिति है। इसके अतिरिक्त भी कवि को अगर किसी साझे उद्देश्य के लिए एक समूह की ज़रूरत पडती है तो उस समूह की स्थापना में कोई बुराई नहीं है। हमारे पुरखों ने इसे बहुत अच्छे से अंजाम दिया है और अपनी मज़बूत उपस्थिति एवं प्रतिरोध दर्ज़ कराया है। लेकिन यह समूह अगर एक-दूसरे की पीठ सहलाने, किसी और की टाँग खींचने और गुटबाजी करने तक ही सीमित हैं तो कवि को अपनी लड़ाई अकेले ज़ारी रखनी चाहिए क्योंकि वह अकेले होते हुए भी अकेला नहीं है।

 

यहॉं जब मै समूह की बात करता हूँ तो मै प्रगतिशील और जनपक्षधर कवियों के समूह की बात करता हूँ। मै उन सभी समूहों और गुटों को धिक्कारता हूँ जो राजनैतिक चापलूसी और सरकारी पुरस्कार, रेवड़ियाँ चाटने के लिए सियारों के झुण्ड की तरह इकट्ठे हुए हैं। आजकल ऐसे कुकुरमुत्ते गिरोहो की बाढ़ हुई है जो लिहो लिहो करते हुए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता एवं धनपशुओं के गुलाम बन बैठे हैं। मै उन्हें कवि मानने से इंकार करता हूँ भले ही उनकी कविताओं का आंकड़ा चाहें कितना ही क्यों न हो। यह मानव स्वभाव से अधिक साझे स्वार्थ का मसला है जहाँ सभी सियार झुण्ड बनाते हुए चारण-गीत गाते हुए पाए जाते हैं।

 

१० आपको अपनी ओर से क्या सलाह देना चाहिए?

 

उत्तर- साहित्य एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। एक नैतिक कर्तव्य है और अगर आप धन, पद, पुरस्कार, प्रतिष्ठा की लालसा से इधर आये हैं तो मत आएं। इसके इतर आप किसी महान उद्देश्य के लिए- चाहें वह कोई भी हो बस जनवादी हो और मानवीय मूल्यों से युक्त हो तो आपको समूह से गुरेज़ नहीं करना चाहिए। लेकिन यदि वहाँ भी किसी प्रकार की क्रत्रिमता, दबाव और अपने जीवन मूल्यों से समझौते ककी गुंज़ाईश है तो टैगोर के शब्दों में – एकला चलो रे। यकीन मानिये आप स्वयं में पूर्ण हैं, समर्थ हैं। आपको किसी की ज़रूरत नहीं है।

 

अजय दुर्ज्ञेय।
सीहपुर/सतौरा/कन्नौज
उत्तर-प्रदेश
पिन-209731
मोबाइल- 9119845665

 

कन्नौज (उत्तर-प्रदेश) के एक छोटे से गाँव सीहपुर में 21 जून 1998 को जन्म। जवाहर नवोदय विद्यालय से इंटर तक की पढ़ाई और तत्पश्चात काशी विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में स्नातक। वर्तमान में इग्नू से परास्नातक उत्तरार्ध के छात्र। बहुजन विचारधारा से जुड़ाव और बुद्ध-फुले-अम्बेडकर की त्रयी से प्रेरणा लेते हुए कविता-लेखन में सक्रिय।

Post a Comment