समकालीन कविता
रणजीत सरपाल
I
अच्छा तरीका है
अपने मन की उलझनों को
टाल मैटोल कर देने का ,
जज्बातों की भटकनो को
अपनी मुठ्ठी मे बंद करके बैठ जाने का ।
” फिर कभी”
कश्मकश है
नज़दीकियों और दूरियों के बीच की ।
“फिर कभी”
एक स्नेह है
जो चुप्पी के आगोश में
होता जाता और गहरा
बिना किसी नाम के
बिना किसी रिश्ते के।
“फिर कभी”
एक उम्मीद है
जो उलझी हुई है
नाउम्मीद से।
II
“फिर कभी”
चुप्पी का विद्रोह है
भाषा की लम्बी पंक्तियों के खिलाफ।
चुप्पी की छोटी खिड़की
जो तुम्हे शब्दों के शोरगुल से
दूर ले जाती है।
कभी कभी शब्दों का खोखलापन
ज्यादा संजीदा होता है शब्दों के अर्थों से,
ऐसे मौकों पे “फिर कभी”
पुल की तरह काम करता है,
शब्दों और शब्दहीनता के तनाव में
और जज्बातों और बातों को
बचाके रख लेता है
भविष्य के आगोश में
रणजीत हिंदी और अंग्रेजी मे कविताएँ लिखते है
विजय राही
बारिश
जैसे हमको गाड़ी दूर से दिख जाती है
वैसे ही माँ को दूर से दिख जाती है बारिश
बारिश
जब बारिश होती है
सब कुछ रुक जाता है
सिर्फ़ बारिश होती है
रुक जाता है बच्चों का रोना
चले जाते हैं वे अपनी ज़िद भूलकर गलियों में
नहाते हैं बारिश में देर तक
रुक जाता है
खेत में काम करता किसान
ठीक करता हुआ मेड़
पसीने और बारिश की बूँदें मिलकर
नाचती हैं खेत में
लौट आती हैं गाय-भैंसें मैदानों से
भेड़- बकरियाँ आ जाती हैं पेड़ों तले
भर जाते हैं तालाब-खेड़
भैंसे तैरती हुई उनमें उतर जाती हैं
रुक जाते हैं राहगीर
जहाँ भी मिल जाती है दुबने की ठौर
बारिश
बारिश शुरू होने से पहले ही बढ़ जाती है
अचानक माँ के पैरों की गति
वह एकबार में देख लेती है दूर-तलक सब कुछ
कहीं कुछ रह ना गया हो घर के बाहर
बारिश का क्या पता ? जाने कब रुके ?
वह चाहती है घर में रख दे एक-दो दिन का बड़ीता
कपड़े-लत्ते सूख रहे हैं पिछले दिनों से
लेती है वह उनकी की भी सुध
इकट्ठा कर ला डालती है अलगणी पर
फिर कुछ याद करके भागती है अचानक बाहर
मूँज की खाट उठाकर लाती है पाटोड़ में
पोते के खिलौने भी नहीं भूलती
उठाकर लाती है, रखती है ताख में
आँगन के चूल्हे को ढँकती है तिरपाल से
फिर रखती है उस पर उल्टी परात
खटिया के पागे से बाँधती है भैंस की पड़िया
ढकोली के नीचे दे देती है नन्हे बकरेट
वह नही भूलती झाडू को भी
लाकर रखती है कोने में सलीके से
सारे बच्चे जो मगन हैं खेल में
जिनको कोई ख़बर नहीं बरसात की
माँ उनको देती है हेला ज़ोर से
“घर आ जाओ ! नहीं तुम्हारी माँ आई !”
जब सब कुछ सौर-सकेलकर
ला पटकती है माँ घर के भीतर
फिर देती है बारिश को मीठा आमंत्रण
“ले ! अब ख़ूब बरस म्हारी भाभी !”
०७. बारिश के बाद की बारिश
बारिश के बाद बबूल के नीचे से
अपनी बकरियों को हाँक
वह मुझसे मिलने आई
दूर नीम के तले
नीम पर बैठी चिड़ियों ने
उसका स्वागत किया चहचहाते हुए
तोते ने उसके सौन्दर्य की तारीफ़ की मुझसे
कबूतरों ने पंख फड़फड़ाये और उससे निवेदन किया-
“वह उन पर विश्वास कर सकती है
अपने प्रेम-पत्र भिजवाने के लिए”
गिलहरियाँ फुदकीं
और उसकी चोटी पर से उतर गईं
अब मेरी बारी थी-
मैंने नीम की डाली झुकाकर प्रेम प्रकट किया
कुछ कच्ची निबोरियाँ मोतियों-सी
कुछ सफेद-झक्क फूल आ खिले उसके बालों में
पत्तियों को उसके गाल रास आये
कुछ बारिश की बूँदें
जो ठहरी हुई थी फूल-पत्तियों पर
हम दोनों पर एक साथ गिरी
हम दोनों कुछ देर भीगते रहे
बारिश के बाद की उस बारिश में
विजय राही
स्नातक राजकीय महाविद्यालय दौसा, राजस्थान से एवं स्नातकोत्तर शिक्षा (हिन्दी विभाग) राजस्थान विश्वविद्यालय से प्राप्त की
हंस, पाखी, तद्भव, मधुमती, वर्तमान साहित्य, कृति बहुमत, विश्व गाथा, सदानीरा, समकालीन जनमत, किस्सा कोताह, परख, नवकिरण, कथेसर, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, डेली न्यूज, सुबह सवेरे, प्रभात ख़बर, राष्ट्रदूत, रेख़्ता, हिन्दवी, पहली बार, अंजस, पोषम पा, इन्द्रधनुष, हिन्दीनामा, तीखर, लिटरेचर पाइंट, अथाई, दालान आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, ब्लॉग और वेबसाईट्स पर कविताएँ- ग़ज़लें प्रकाशित।
राजस्थान साहित्य अकदमी, उदयपुर एवं आकाशवाणी, जयपुर में कविता पाठ। युवा सृजन संवाद-इलाहाबाद, पाखी, जन सरोकार मंच- टोंक आदि ऑनलाईन चैनलों पर लाईव बातचीत एवं कविता पाठ।
संप्रति- राजकीय महाविद्यालय, कानोता, जयपुर (राज.) में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत।
पुरस्कार –
दैनिक भास्कर प्रतिभा खोज प्रोत्साहन पुरस्कार (2018)
कलमकार मंच का द्वितीय (कविता श्रेणी) राष्ट्रीय पुरस्कार (2019)
मो.नं./व्हाट्सएप नं.- 9929475744
Email- vjbilona532@gmail.com
देवेन्द्र कुमार पाठक
एक
मात्र शब्द नहीं सुखद सम्भावना है इंतज़ार
तयशुदा समयावधि नहीं कोई
तब भी बेचैन, अधमरी, आत्माओं के लिये
विवशता की हद तक ज़रूरी है
व्यस्त रखता है इंतज़ार,
कितनी उम्मीदों और सुकूनदेह भरोसों का
दूर- पास का लगता है रिश्तेदार
कभी बंद नहीं होते उसके लिए
संवेदन- सरोकारों के दरवाज़े,….
इंतज़ार बहुत अंतरंग है बहुरूपिये प्रेम का
जो होता है इंतज़ार के पहले और बाद भी
इस पार ही नहीं जीवन के उस पार भी…
दो
बिनिया कंडों से जलाए चूल्हे पर भात राँधती सरकारी स्कूल में चौथी पढ़ती
दस बरस की बच्ची के साँवले चेहरे पर
वक्त से पहले आए उतर समझ- सयनापे पर
खुशरंग रौशनी सा दमकता है इंतज़ार ……..
दिनांत की ढलान पर थके पांवों उतरती
भुखही लौटती होगी अम्माँ उसकी
उदास स्याह रंग गहराती साँझ सी
कबाड़ से भरे भारी बोरे को लादे
जुझारू जीवट की पीठ पर उम्मीद सी…… .
रात गहराते रिक्शा खड़खड़ाते
पीकर लौटते बापू के इंतजार की इबारत
अम्माँ के माथे पर लिखा जिसने
उसे नहीं लिखने देगी वह माथे पर अपने …….
तीन
इंतज़ार कर रहा है महीनों से
सांस रोके झोपड़े के कोने में
लुढ़का खाली पेट उज्ज्वला सिलेंडर ……
झोपड़े की माटी की धसकती दीवारों,
बोरे- फट्टों, टीन- टप्परों की छत को
पक्के होने का है इंतज़ार,
महीनों हुआ सुने, सपने बुने,
कोई दे रहा था गारंटी माइक पर
गला फाड़कर, वोट पड़ने से पहले
भेड़- बकरियों की रेहड़ सी जुटायी गयी थी
दोपायों की भीड़ को घेर- हांककर……
चार
खेतिहर करता है पाँच माह इंतज़ार
खेत की फसल निर्विघ्न पकने का,
अच्छे माफिक दामों पर बिकने का
लिया उधार पूरा पटाने का अबकी बार………..
नियुक्ति पत्र मिलने का है बेसब्र इंतज़ार,
उस बेटे को जिसकी उम्र खड़ी है
खत्म होने की कगार पर………..
बेटी निजी स्कूल में खटती है
तीन हजार रुपये महीने की पगार पर
बरसों पहले उसने छोड़ा था
करना किसी का इंतजार
अब भी चिपका है माथे की टिकुली सा
घिसे आईने के माथे पर
पाँच
सड़कों पर उतरे किसानों को
सरहदों पर चौकस जवानों को,
घर- गांव छोड़ शहर गए
मजूर बहू- बेटों के लौटने का
बूढ़े महतारी- बापों को है इंतज़ार
नदियों, पेड़ों, वनभूमि की कोंख में
साँस लेते खनिज- भंडारों को
धनपशुओं से बचा पाने का
आदिवासियों को है इंतज़ार…..
बिना साक्ष्य- सबूत गिरफ्तार,
जेल की अभेद्य दीवारों के पार,
महीनों- साल से जमानत का
हजारों हजार करते हैं इंतज़ार…..
छः
अजनबी पदाहट के इंतज़ार में
ऊंघती- जागती उदास आंखें……..
क्रासिंग ब्रिज, बस अड्डे पर,
चौराहे, दोराहे, तिगड्डे पर,
धंधे पर उतरी विवशताओं को
किसी अजनबी का है इंतज़ार……
सात
एक बीमार बूढा कवि
पुलिस के सख्त पहरे में
अस्पताल में कैद पड़ा
बेड़ियों से जर्जर जिस्म जकड़ा
कहने को आखिरी निशब्द कविता ,
कर रहा है बेख़ौफ़ इंतज़ार……
कवि से नहीं उसकी कविताओं से
जिसको लगता है डर,
कर रहा वह तानाशाह कायर
कवि की मृत्यु का इंतज़ार…..
कवि की निहत्थी कविताएं
ज़हन के जंगलों, सोच के बंकरों में
मोर्चे पर डटी दे रहीं सदायें
बेचेहरा आवाज़ों को कैसे करेगा
कैसे करें गिरफ्तार……….?
आठ
असमंजस में पड़ी लड़की को
संभावित प्रेमी से पहली बार
मिलने का है बेसब्री से इंतज़ार……
सम्बन्ध विच्छेद चाहते पति- पत्नी को
बरसों से कोर्ट के फैसले का
उनकी पाँच साल की बेटी को है इंतज़ार
मम्मी- पापा के साथ घर में रहने का……..
नौ
क्यों है इतना बाउम्मीद भरोसेमंद इंतज़ार?
जिनका कोई राब्ता नहीं इंतजार से,
तयशुदा है नहीं जिनके लिये,
दिहाड़ी मजूर से भी कम मजूरी पर
खूंटे के बैल की तरह बरसों से खटते
लाखों आउटसोर्स कर्मचारी देश भर के
करते हैं इन्तज़ार नियमित होने का………
इंतज़ार में जिनकी उम्मीदें हैं शुमार,
सम्भावनायें और सपनीली नींदे
सुखाभास का अछोर आकाश
आस- विश्वास की टूटती नहीं साँस…….
डरपोक हाकिम की सख्त पाबन्दी,
कड़े, खौफ़नाक पहरे से बेअसर
बेख़ौफ़ कर रहीं इंतज़ार करोड़ों चुप्पियाँ
नया मुक्तिगान मिलकर गाने को
इंतज़ार करते हैं कितने कण्ठस्वर
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1315, साईपुरम कॉलोनी, वार्ड-18,
पोस्ट- कटनी, 483501, मध्यप्रदेश
मोबाइल नम्बर- 8120910105