* All the legal application should be filed in Kerala, India, where the Kritya Trust is registered.
भाई वीर सिंह (1872-1957)
डा शशि सहगल
भाई वीर सिंह (1872-1957)का जन्म उस समय हुआ था जब भारत में कई सुधारवादी आन्दोलन चल रहे थे और अपनी संस्कृति को पहचानने की कोशिश चल रही थी। समाज अपने को पुनर्व्ख्यायित करने की प्रक्रिया में था। वीर सिंह जी की कृतियां
त त्तकालीन रूढ़ियों, अंधविश्वासों एवं विवेकहीन धार्मिक रिवाजों का निषेध करती थीं। उन्होंने पंजाबी भाषा को नया मुहावरा दिया। भाई वीर सिंह जी कहानीकार, उपन्यासकार, शोधकार, व्याख्याकार और कोशकार के रूप में प्रसिद्ध हुए किन्तु कवि के रूप में वे परवर्ती कवियों के लिए प्रेरणा के स्रोत रहे। इस अंक में हम आपकी कुछ कविताएं “मेरे सांईयां जीओ” नामक साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत कृति से दे रहे हैं, जिनका अनुवाद डा शशि सहगल ने किया है। ये भाई वीर सिंह जी की अन्तिम कृति है। इसमें ईश्वर भक्ति का अनूठा रंग दिखाई देता है। यहां संवेदना समर्पण की नई परिभाषा दिखाती है।
(साहित्य अकादमी से साभार )
चंचल नयन
तड़प-तड़प कर रात गुजारी
तरस-तरस मैं राह देखती़।
साईयां साईयां कूक रही मैं
गिन-गिन पल-पल इक-इक ।
भोर भये तुम आ गए सच,पर
भाग्य दासी के न्यारे,
चंचल रहे जो नयन रात भर,
वही मुंद गए सुबह सकारे।
क्षण भंगुर प्रेम
सांईया जी!
जिस जिस चीज पर नजर जमाऊं
जिस जिसका प्यार मन लाऊं,
तेरे बिन और कौन है
मोहित जिस पर हो पाऊं?
अफसोस है उन अरमानों से
अपनी लगन लगाऊं!
सब ही तो हैं क्षण भंगुर,
जब हो नष्ट तो दुख पाऊं।
साथ बंधी
“मांगे” मेरी खत्म न होतीं,
“मैं मैं” मेरी कभी न थकती,
“मेरी मेरी” अनुगामिनी हो
बँध गई हूँ मैं तेरे साथ
तेरे नाम के साथ बंधी हूं नाथ!
“सांईयां..साईयां” कूक रही हूं
“तेरी तेरी” दूं मैं दुहाई
“आ मिल” ” आ मिल” कर रिरियाती
देती बारम्बार दुहाई
दोष न देख मेरे सांई!
अपने अमित गुणों की खातिर
चाहे किसी प्यारे के सदके,
करों कृपा, कृपा के सागर।
उस जैसी ही देख बड़ाइयां
तू अपना, तू अपना सांईयां।
पतझड़ से
अरे भाई पतझड़! बता
क्या बही है तू जो था फलदार?
खिली हुई थी जिसकी गुलजार,
खूब हरे थे जिसके सबजा जार
पीली पड़ गई वही घास
हो रहा आज उदास!
कुम्लाये तेरे फूल
सिर झुका कर खड़े उदास
सूख कर गिर रहे हैं
माँ जैसे बिछुड़ी बेटे से
फलदार हुए फलहीन,
दिखते जो करते विलाप!
पत्ते भी हुए बदरंग
गिरते जाते झोंकों के संग!
मेरी मुश्किल
विरह वियु्क्त जब रोती हूं तो कहती हूं, “आ जाओ”।
तुम्हे कष्ट होगा यह सोचकर कहती हूं, “मत जाओ”।
तब सोचती हूं, मैं ही चलूँ, पर बिन ठिकाने पहुंचू कैसे?
मेरी मुश्किलों को मेरे सांईयां अब आप ही सुलझा जाओ।
पात्र
आ गया आज द्वार , हां तेरे ही द्वार
बन के कलन्दर मेरे साहिब!
डाल दे भीख डाल दे
अपने दर पे खड़े को साहिब!
पात्र भी है पास मेरे
पर क्या कड़ेगी भीख इसमें
पर, नहीं नहीं है
हा ! हा! नहीं नहीं है।
अकेलापन
सुनना देकर कान दाता!
ओ हजारो कानों वाले!
बिन तेरे घबरा गया हूँ मैं
दौड़ तेरे दर पर आया, इससे छुड़ा ले दाता
अपने बेगानों के बीच, भीड़ भड़क्के के बीच
जंगल और झुरमट के बीच, नदी और सागर के किनारे
नहीं छोड़ती पीछा यह, काटती है कलेजे को।
बिन तेरे नहीं छुड़ा सकता इससे
दरस दे कर अपना, छुड़ा ले इससे मुझकों।
सदके जाऊं मैं अपने प्यार के
खैरात डाल दर पे खड़े को
तेरा ही हूँ स्तोता!
तेरा ही हूँ स्तोता!
संकेत
प्रिय आलिंगन का सुख
पूछो सागर की हवा से
तेरे गले से लिपट कर
गले लगने का सुख
समझा देगी तुझको।
पूछो उपवन की सुगन्ध से
प्रिय के गले लगने का सुख
चेतना से लिपट कर
गले लगने की सुरभि
खुद बिखेर देगी!
गोरी को पूछ देखो
प्रिय आलिंगन का सुख?
अधरों से मुस्कुराकर
नयन मटका कर
आलिंगन का सुख
वह समझा देगी
सांई मिलन का सुख जो
किसी अनुरागी से पूछो
नैनों से बहते अश्रु
दमकता हुआ भाल
साँई मिलन का सुख जो
संकेत भाषा बता देगी।