कविता के बारे में

प्रेम की कविता ही सार्थक

 

आयरिश कवि रोज़न्सतैक और ईरानी कवि हकाकी से बातचीत

 

जगदीश शाहू

 

कविता का सार्वकालिक सच यही है कि प्रेम की कविता से बढ़ कर कोई कविता नहीं हो सकती क्योंकि मृत्य मनुष्य के पास प्रेम से उत्कृष्ट कोई भावबोध, कोई चिंतन नहीं है. गुस्से और नफ़रत की कविता दीर्घजीवी नहीं होती है, यह राय है ‘औसदाना’ (दि आयरिश एकेडेमी आफ आर्ट्स एंड लेटर्स) के सदस्य, ‘पोएट्री आयरलैंड’ के पूर्व अध्यक्ष एवं सौ से अधिक साहित्यिक पुस्तकों के लेखक, वरिष्ठ आयरिश कवि गैब्रिएल रोज़नस्टाॅक और 11 साल पहले शेक्सपीयर के ‘मिडसमर नाइट्स ड्रीम’ के मंचन के लिए निर्वासित तेहरानी थिएटर-ट्रुप ‘महक़’ के पूर्व निदेशक, सम्प्रति सिएना काॅलेज, न्यूयार्क में क्रिएटिव आर्ट्स के प्रोफेसर, ईरानी मूल के अंग्रेजी एवं फ़ारसी कवि महमूद क़रीमी हकाक की, जो वे विश्व कविता को लेकर इस संवाददाता से एक अनौपचारिक बातचीत में व्यक्त कर रहे थे. इस दौरान कविता की अंतर्राष्ट्रीय संस्था ‘कृत्या’ की निदेशिका और जानी-मानी बहुभाषी कवयित्री रति सक्सेना भी मौजूद थीं. प्रस्तुत है बातचीत का अंश:

 

सवाल: आप स्वयं कवि हैं और दुनिया भर में कविताओं का जायजा ले रहे हैं. क्या आप मानते हैं कि कविताएं भी अच्छी अथवा बुरी होती हैं ? यकीनन, मेरा आशय भाषा या कविता के स्वरूप से नहीं है?

 

गैब्रिएल: हां, सही है कविताओं से खासा सरोकार है मेरा, खासकर अमेरिकी और यूरोपीय कविताओं से. अंतर्राष्ट्रीय कवितोत्सवों में भी कई बार शामिल होता रहा हूं, इसमें उम्र जा रही है. रोजाना दुनिया में हजारों, बल्कि लाखों कविताएं लिखी- पढी जा रहीं हैं शायद. हजारों इस मामले में संजीदा भी हो सकते हैं. परन्तु मैं मानता हूं कि इनमें अधिकांश, शायद 90 फीसदी केवल कविता का उपहास करती हैं …

 

सवाल: क्या इन्हें ‘बुरी कविता’ कहेंगे ? क्या आधुनिक कवि इसे समझते हैं?

 

गैब्रिएल: नहीं ऐसा भी नहीं है, क्योंकि इनका एक कलेवर तो होता है. व्याकरण और भाषा होती है, हालांकि ये बहुत मायने नहीं रखते.. उपमा और बिम्बों की पुनरावृत्ति भी अजीब नहीं है. मानवीय सोच में यह संयोग संभव है. मेरा कहना है कि कविता में कोई नई बात तो हो ! बिना नई बात के अगली कविता कैसे हो सकती है. नएपन में ही गरिमा है. कविता अपने आप में एक गरिमामय कर्म है. इस एहसास के बिना कविता कैसे हो सकती है ? लोग कविता पढ़ कर मुंह बिचकाएं, फब्ती कसें – बुराई यहां है. रही बात कविताओं की परख की, आज का कवि समझे या न समझे, आम आदमी बेहतर जानता है.

 

सवाल: अच्छी कविता किसे कहेंगे ?

 

गैब्रिएल: अच्छी कविता कैसे समझाउं ! भारत में और हमारे यहां आयरलैड में पुराने समय से अच्छी कविताएं लिखी जाती रही है. कबीर, मीरा, टैगोर, ओरोबिंदो को मैंने खूब पढ़ा है. लाजवाब हैं वे.

 

महमूद: फ़ारसी में जलालुद्दीन मोहम्मद रूमी, हाफि़ज ए सिराजी, डब्ल्यू बी यीट्स, एल्फ़्रेड टेनीसन, राफबअ्र फ्राॅस्ट, एजरा पाउंड, वाल्ट ह्विटमैन ढेरों नाम हैं जो अच्छी कविताओं के इतिहास में दर्ज हैं. सभी शास्वत सत्य के कायल हैं. मैं समझता हूं कि अच्छी कविता के लिए आदमी का अच्छा होना पहली शर्त है.

 

सवाल: क्या आज पहले जैसी गुणात्मक कविता नहीं आ रही है ?

 

महमूद: बेशक, आ रही हैं. मनुष्य की मेधा के विकास के साथ कविता निरंतर बेहतरी की ओर है. फर्क यह है कि मानव की वैश्विक स्थितियां जैसे-जैसे जटिल होती जाती है, कविता का स्वरूप वैसा ही ढलता जा रहा है.

 

सवाल: क्या आप यह मानते हैं कि पाठक कविता में वही बात पसंद करता है जो उसके मन-मष्तिस्क में पहले से मौजूद होता है? एक नई कविता पाठक को उलझन में डालती है?

 

महमूद: मैं समझता हूं आज की कविता पाठक की मित्र बनकर उलझनें सुलझाती है. कविता सहृदयता है.

 

सवाल: क्या कविता की शैली और एस्थेटिक्स पर पाठक अनिवार्यतः ध्यान देता है ?

 

गैब्रिएल: यह बाद की बातें हैं. भावनात्मक क्षतिपूर्ति ही कविता का पहला शब्द है. यह मनुष्य को दूसरों पर विचार करने और जीवन को परिपूर्ण बनाने की अंतदृष्टि प्रदान करती है.

 

सवाल: क्या आप मानते हैं कि सार्थक और उद्देश्यपूर्ण कविता अनिवार्यतः समय के साथ प्रासंगिक होने की चेष्टा करती है? किस तरह की कविता को प्रासंगिक माना जाएगा ?

 

गैब्रिएल: सही कविता कभी प्रासंगिक होने की चेष्टा नहीं करती. वह जैसी होती है, वैसी होती है. कविता से प्रासंगिक होने की अपेक्षा मात्र घोर क्रूरता है, क्योंकि प्रासंगिकता सबसे बड़ी प्रतिगामिता है और प्रासंगिकता का मापदंड तय करनेवाले ही इतिहास के साथ विश्वासघात करते हैं. पहले चारण और भाट अपने आश्रयदाता राजाओं की शान में जो करते थे, आज सत्ता और शोषकों के तमाम अन्याय के साथ खड़े सफेदपोश साहित्यकार वही काम करते हैं.

 

महमूद: मैं ईरान का उदाहरण देता हूं. वहां दो ज्वालामुखियां हैं. एक तरफ शाह- दूसरी तरफ अध्यात्मवादी. अगर दोनों चाहें कि कविता प्रासंगिक- यानि उनके अनुकूल- हो तो कविता का क्या होगा? बिल्कुल सही है यह अपेक्षा ही क्रूरता है. दोनों खारिज करेंगे कि कविता प्रासंगिक नहीं है. सही कविता हमेशा जानती है, उसे कहां और किसके पक्ष में होना चाहिए.

 

सवाल: क्या आपको भारत की अग्निदग्ध दलित कविताओं के बारे में मालूम है ? महाराष्ट्र में और अन्यत्र भी पूरा साहित्य विभाजित है. सारे शोषण को जातिगत अर्थों में लिया जा रहा है. ऐसी बात कहां तक जाएगी?

 

गैब्रिएल: पूरा तो नहीं मालूम, पर हमारे यहां भी ब्लैक कविताएं हैं. परन्तु मेरा मानना है कि दोनों पक्ष ऐसी कविता को गंभीरता से लें, तो घृणा और गुस्से के लिए जगह नहीं बचेगी. इससे किसी का भला नहीं होता. कम से कम कविता का तो नहीं ही. ऐसी कविता सौ पंक्तियों के बाद अपनी शक्ति और आकर्षण खो देगी.

 

महमूद: कविता को मेरिट की कविता होना चहिए. क्रोध कभी नहीं जीतता. मानव जाति के लिए माधुर्य की जरूरत है. मानव जाति को रूमी और हाफिज की जरूरज है.

 

(सभी कवितांशों के अनुवाद जगदीश शाहू )

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