समकालीन कविता

राजकुमार श्रेष्ठ

 

निर्वस्त्र होना

 

बादलों के सरकने से

निर्वस्त्र नहीं होता आसमान।

लगातार पानी के बहते रहने से भी

निर्वस्त्र नहीं होती नदी।

नहीं होता निर्वस्त्र पेड़

पत्तों के झड़ते रहने से भी।

तमाम लाज उतरने के बाद भी शरीर से

नहीं होती निर्वस्त्र आत्मा।

बहुत मुश्किल है,

प्रकृति से प्रेम तक

हमेशा के लिए निर्वस्त्र होना।

 

परहेज

 

यदि कोई कम बोलता है

तो समझो,

वो अनावश्यक शब्दों से

परहेज करता है ।

वो समय को तवज्जो देता है।

यह वो हुनर है

जो वर्षों के तजुर्बे से आता है।

 

पिता का अस्तित्व

 

तुम्हारी नागरिकता में अंकित

नाम भर मात्र नहीं है

पिता का अस्तित्व !

पिता के अस्तित्व को लिखने के लिए

यह नीला आसमान भी कम है ।

 

दुआएँ

 

घर से निकलो

तो दुआएँ भरकर निकलो ।

रास्ते में तेजी से भागती हुई एम्बुलेंस दिखे

तो दुआ करो

कि

वो मुस्कुराते हुए घर लौट आए ।

विद्यालयों की ओर भागते हुए बच्चे दिखे

तो दुआ करो

कि वे विवेक और धैर्य लेकर घर लौट आए ।

न्यायालयों को जाते हुए जूते-चप्पलों को देखो

तो दुआ करो

कि वे न्याय लेकर घर लौट आए ।

घर से निकलो

तो दुआएँ भरकर निकलो

कहीं कुछ भी गलत न हो

कहीं कुछ भी अधर्म न हो ।

 

त्रासदी

 

उन सभी संभावनाओं पर

जहाँ भी ईश्वर का वास हो सकता था-

विद्यालयों में, अस्पतालों में, न्यायालयों में

वहाँ अब मनुष्य का चेहरा तक नहीं दिखता

यह इस युग की सबसे बड़ी त्रासदी है ।

लेखक, अनुवादक, सम्पादक, कवि, हिन्दी भाषा के प्रचारक । सम्प्रति हिन्दुस्तानी भाषा भारती (भारतीय भाषाओं पर केंद्रित त्रैमासिक पत्रिका)के  संयुक्त सम्पादक, आपकी कविताएं अनेक पत्रिकाओं में छपती रही हैं।

 

 

आलोक कुमार मिश्रा

 

कुचक्र 

 

छतें होती थीं आकाशगंगा के बीच का द्वीप

जहाँ बैठकर गिनते थे उठती-गिरती अनंत लहरें

खिड़कियाँ थीं डाक सरीखी

जो पहुँचा देती थीं संदेश सुदूर गंतव्य तक

चूल्हे में जलती थी हमारी इच्छाओं की समिधा

सिंकती थी उस पर हमारे ही सब्र की रोटी

मुड़ेर पर रखकर अपनी निगाहें

हम काम पर लग जाते थे

एक पहचानी आहट से कूक उठती थीं नज़रें

हम बेचैन हो उठते थे

देहरी की मत पूछो

वो तो बैरन थी

लाँघने पर पैरों से लिपट जाते थे लाँछन के सर्प

और भीतर ठिठकने पर उड़ने लगते थे प्राण

हम प्राण बचाने को

कुचलते हुए हर एक फन निकल भागते थे बाहर

छूटते और गिरते जाते थे सरेराह हमसे हमारी ही बेचैनी के लाल दाने

जिन पर चलते हुए पहुँच जाती थी हम तक

बंदिशें जमाने की

हम फिर लाकर पटक दिए जाते थे देहरी भीतर

और फिर वही खेल

वही छत, मुंडेर, खिड़की, चूल्हा, देहरी और हम।

 

बेरोजगार दिनों में    (*)

 

झील की छाती में धंसे चंद्रमा के फाँस जैसी नहीं थी

बेरोजगारी

कि रात बीतेगी और फाँस गायब

बेरोजगारी नहीं थी पैर के तलवों में लगी जोंक सी भी

कि चूसगी खून और चूसते-चूसते ख़ुद ही फट जाएगा उसका पेट

बेरोजगारी तो थी अथाह रेगिस्तान में खो चुकी राह सरीखी

जितना चलते उतना भटकते

जितना चीखते उतना ही बेआवाज़ होते जाते

हमारे सारे प्रयास दिशाओं से टकराकर

हमारे ही पैरों पर आ गिरते थे

हम बेरोजगार थे

तो न धरती हमारी थी

न आकाश

बस एक शर्म थी जिसमें छुपाकर अपना चेहरा

हम बेचेहरा हुए जाते थे।

(**)

 

बेरोजगार दिनों में

 

एक ब्लैक होल था हमारे सीनों में

जिसमें कूदकर मर जाना चाहते थे हम

पर सुदूर टिमटिमाता एक तारा देख रोकते थे ख़ुद को

देखते थे सपने कि होगा वो हमारी भी ज़द में

जैसे बहुत से लोगों के लिए था

पर ये क्या कि

तारा जब भी बढ़ता हमारी ओर

हमीं से निकलता वह ब्लैकहोल

और निगल लेता उस तारे को।

 

ईर्ष्या

 

पार्क में बैठा देख रहा हूँ

स्वेटर बुनती एक स्त्री को

वह इतनी तन्मयता से लीन है बुनाई में

जैसे धरती रत हो अपनी घुमाई में

बीच-बीच में वह तनिक रुकती है

जैसे देखती है हिरणी

पीछे आ रहे अपने छौनों को रुक-रुक के

वह बुने जा चुके हिस्से को निहारती है

वह उंगलियों से लेती है नाप

लंबाई और चौड़ाई का

और तैर जाती है एक उतनी ही लंबी चौड़ी मुस्कान

उसकी आँखों में

मैं जानता हूँ

अभी जो उसकी आँखों में उतरा वो

कोई काँधा था

कोई पीठ थी

उसके बुने स्वेटर से लैस कोई बदन था

उसकी नरम गर्मी से तर कोई चेहरा था

मैं सोचने लगता हूँ

उस अनदेखे व्यक्ति के बारे में

और अनजाने ही करने लगता हूँ ईर्ष्या।

 

कमाऊ पूत –

 

छोटी खेती वाले संयुक्त परिवार की ज्ञात सभी पीढ़ियों में

पढ़-लिखकर एक अदद सरकारी नौकरी पाने

और कुल-वंश का नाम रोशन करने वाला इकलौता लाल हुआ वह

सगे-चेचेरे कुल मिलाकर पाँच भाइयों और इतनी ही बहनों के बीच का था वह

पर अब बहुत खास था।

कल तक साथ खेलते, लड़ते और औकात से परे समझते

परिवार में अब सितारा था वह

माँ गर्व से भर उठी थी, पिता कुछ और जवान हो गए थे

चाचियाँ दुलराती थीं, चाचा लोग सम्मान से बुलाते थे

बहनें उसके काम करने को दौड़ती थीं

भाई बिस्तर लगा देते थे, चुप रहकर सम्मान दिखाते थे

उसे अच्छा लग रहा था ये सब।

पर जानता था वह

कि अब उसे ही बहनों को ब्याह कर लगाना है उनके ठिकाने

पढ़ाई में पीछे रह गए भाइयों के रोजगार को खुलवानी है

किराना-परचून की दुकानें

मां के घुटनों , पिता के अस्थमा, मझले चाचा की आंखों का करवाना है उसे ही इलाज

खेतों में सूखते बोरिंग को उखड़वा कर नया लगवाना है

घर की भीत को और ऊपर उठाना है

दान दक्षिणा सब में नाम कमाना है।

साथ ही उसे ये भी मालूम है कि

पलकों पर उठाए फिर रहा ये कुनबा

उसकी जिम्मेदारियों की सूची में नहीं देगा कोई रियायत

उल्टे चूकने पर एक ही झटके में लाकर पटक देगा जमीन पर

कोसने-उलाहना देने में हो जाएँगे घर-जवार सब एक

उसका अपने लिए अतिरिक्त लाभ लेने के हर प्रयास पर

रहेगी हर एक की नज़र।

अब वह महज़ बेटा नहीं है घर का

वह तो अब उम्मीदों-अपेक्षाओं का दस्तावेज़ है

वह सभ्यता-संस्कारों की ऐसी पताका है

जिसे लहराना है ताउम्र दूसरों की इच्छा पर

उसे नहीं  कोई छूट

आखिर अब वह है घर का

कमाऊ पूत।

 

कथरियाँ

 

अनायास लेटे हुए नरम-गरम बिस्तर पर

न जाने क्यों याद हो आईं मुझे बचपन के दिनों की कथरियाँ

रंग-बिरंगी प्यारी कथरियाँ

वही कथरियाँ जिन्हें हर रात बड़ी जतन से खाट पर बिछाते थे

और सुबह सलीके से समेट कर सिरहाने लगा देते थे

गज़ब ये था कि ये गर्मियों में ठंडक और सर्दियों में ज़रूरी गर्माहट परोसती थीं

हमारी नींदों को हवा देती थीं और सपनों को पोसती थीं

बनाते हुए उन्हें कई-कई दिनों तक अटकी रहती थी दादी की जान उनमें

सहेजती थी महीनों पहले से पुराने, छोटे या फट-चिट चुके कपड़े-लत्ते

फैलाकर टाट पर बराबर तह में उन्हें टाँकती और जोड़ती जाती थी ऐसे

जैसे जोड़ रही हो अपने ही बिखरे सपने

या जैसे जोड़े हुए थी हमें भी वर्षों से ख़ुद की छाँव में

या फिर ऐसे जैसे कुम्हार जोड़ता है मिट्टी के कच्चे बर्तन पकने को आँव में

कथरी का कद बढ़ता जाता

तरह-तरह के रंग-बिरंगे कपड़ों से जुड़ तन उसका बनता जाता

दादी हमें भी उसमें लगाए रखती

उसका कोई न कोई सिरा पकड़कर दबाए रखने को कहती

अब लगता है कि वह सिखा रही थी हमें मिलकर गढ़ने

और आगे बढ़ने का ज़रूरी पाठ

तब वह ख़ुद सुई-धागे के साथ हमारी ओर बढ़ी आती थी

कथरी के बदन पर उठती-गिरती धागों की अनेक लहरें

लंबाई-चौड़ाई में भागती हुई दिखतीं

पर हकीकत में वो स्थिर ही रहतीं

हमारी ज़िंदगी में दादी के होने की तरह

अंत में एक पुरानी पहनी हुई साड़ी का दादी उस कथरी को जामा पहनाती

पहन उसे कथरी हुलसती या हम

स्मृति अब ये अंतर लगा नहीं पाती

ऐसी कितनी ही कथरियाँ बनाई दादी ने

जिन पर जिए हम जीवन के कितने ही अनमोल पल

देखे कितने ही सपने

काटी कितनी ही रातें

रोए, हँसे, टूटे, जुड़े उन पर कितनी ही बार

आख़िर कहाँ गईं वो कथरियाँ

क्या अब भी बनाई जाती हैं वैसे ही

जिन को करता हूँ अब तक याद

या वो भी चली गईं दादी के साथ!

 

प्रतीक्षा 

 

जाने कितनी ऋतुओं की लाशें दफ़्न थीं

उसकी झुर्रियों में,

आँखें थीं कि महाखड्ड थीं

निमिष भर में समा लेती थीं पूरे संसार का दुःख भीतर।

उसकी खुरदुरी हथेलियों की हर घिसी हुई रेखा

गवाह थीं कितनी ही प्रेमिल नदियों के सूख जाने की,

`

उसकी झुकी कमर पर छपा था

समय की मार का सबसे गाढ़ा काला निशान।

बैठे हुए खोलती और आकाश पर सुखाती रहती

वह बेतरतीब, उलझे और नम स्मृतियों की पोटली,

दिशाओं के काँधे बैठ हवाएँ बाँचती उसकी करुण कथा।

धरती उसकी एड़ियों की बिवाई से रगड़ खाती थी;

फिर भी भर दोपहर रुककर उसकी मड़ई में

उससे ही बतियाती थी, सुस्ताती थी।

सुख की एक दूब भी न उगती थी

उसके दुःखों के पथरीले पहाड़ पर।

दिन भर के काम जल्दी-जल्दी निपटाती

और अपनी अभावों की दरी पर बैठ

गाने लगती वह प्रतीक्षा के गीत,

गीत जिसके शब्द-लय-धुन सब बुने होते उसके दुःखों से।

परदेश से लौट रहे लोग सुनते थे उसका दारुण गान

और रो पड़ते थे उसे देखकर, सुनकर।

फिर वे भी सुनाते थे उसे दुनिया जहान की बातें,

पर कोई झूठ में भी नहीं बताता था

बरसों पहले परदेसी हुए बेटे की कोई ख़बर।

बस उसी एक ख़बर के लिए

वह नहीं रही थी मर।

 

 

आलोक कुमार मिश्रा पेशे से अध्यापक हैं, कविता कहानी लेखन में रुचि रखतेहैं। बोधि प्रकाशन से ‘मैं सीखता हूँ बच्चों से जीवन की भाषा’ (2019) कविता संग्रह प्रकाशित।

प्रलेक प्रकाशन से बाल कविता संग्रह ‘क्यों तुम सा हो जाऊँ मैं’ प्रकाशित। इसी संग्रह पर ‘किस्सा कोताह कृति- सम्मान- 2020’ मिला।

अनबाउंड स्क्रिप्ट प्रकाशन से शैक्षिक लेखों का संग्रह ‘बच्चे मशीन नहीं हैं’ (2025) प्रकाशित।

न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से कहानी संग्रह ‘दूध की जाति’ (2025) प्रकाशित।

मोबाइल नंबर- 9818455879

ईमेल- alokkumardu@gmail.com

 

 

आकिब जावेद

 

ग़ज़ल 1

 

सरे बाजार सौदा हो रहा है,

लहू पानी से सस्ता हो रहा है।

हवा चलने लगी है नफ़रतों की,

तभी इतना ख़सारा हो रहा है।

बुलंदी में है परचम मुल्क़ का यूँ,

जहाँ में नाम ऊँचा हो रहा है।

गरीबो को मिली है छत यहाँ पे,

सुनो यारों दिखावा हो रहा है।

नज़र से दूर था कल तक जहाँ में,

मुहब्ब्त में हमारा हो रहा है।

तुम्हारा क्या – हमारा क्या यहां पे,

सभी कुछ तो दिखावा हो रहा है।

ज़ुलैख़ा सी मुहब्ब्त कौन पाया,

जो प्यासा है, वो दरिया हो रहा है।

नहीं सुनता किसी की कोई ‘आकिब’,

बुरा यारों ज़माना हो रहा है।

 

ग़ज़ल 2

 

वज़्न- 2122 1212 22 (112)

अर्कान- फ़ाइलातुन–मुफ़ाइलुन–फ़ेलुन

बोझ ग़म का उठा नहीं सकता

दर्द अपना बता नहीं सकता।

इश्क़ का रोग जो लगाया है,

चाह कर भी छिपा नहीं सकता।

ज़िंदगी है तो ग़म मिलेंगे ही,

हौसलें को डिगा नहीं सकता।

खूब दौलत कमाई है ग़म की,

मुफ़लिसी को भुला नहीं सकता।

जीना – मरना मिरा यहीं यारो,

मुल्क़ को छोड़ जा नहीं सकता।

हिज़्र में उनके रात भर रोये,

हाल -ए -दिल को बता नहीं सकता।

प्यार अनमोल है हिफ़ाज़त कर,

वर्ना ख़ुद को बचा नहीं सकता।

 

ग़ज़ल 3

 

ज़िंदगी की जंग है जारी रात- दिन,

दर्द से यारी हमारी रात – दिन।

राह काँटों से भरी कितनी भी हो,

हौसलें से मेरे हारी रात – दिन।

डर समाया है हवा में इस क़दर,

ख़ौफ़ उनका भी है तारी रात – दिन।

नाम उनका ही है जारी क्या करे,

है मुहब्ब्त की बिमारी रात – दिन।

अन्न का दाना नहीं है पेट में,

ज़ीस्त लगती है ये भारी रात – दिन।

बेहया कहते हैं वो कहते रहें,

खूब करती काम नारी रात – दिन।

हो अमीरी या गरीबी पास में,

ज़िंदगी ‘आकिब’ ये प्यारी रात- दिन।

ग़ज़ल 4

हज़ारों दर्दो – ग़म के दरम्यां हम थे,

जहाँ में अब कहाँ हैं कल कहाँ हम थे।

तग़ाफ़ुल कीजिये पर सोच लो इतना,

तुम्हारी ज़िन्दगी की दास्ताँ हम थे।

तुम्हारी बदज़ुबानी चुभ रही लेकिन,

तुम्हारे होठ पर शीरी जुबां हम थे।

ये तख़्तों ताज़ दुनियाँ में भला कब तक,

मुहब्बत ज़ीस्त है सोचो कहाँ हम थे।

मुहब्बत खो गई है भीड़ नफ़रत की,

वो बढ़ते भाई – चारे का गुमाँ हम थे।

कहीं नफ़रत कहीं उल्फ़त कहीं धोखा,

कहीं जलते हुए घर बेजुबां हम थे।

कुचल डाला है जिसको वक्त ने यारों,

ज़मीं हैं आज पर कल आसमां हम थे।

 

ग़ज़ल 5

 

जाने किसको निहारती खिड़की,

घर की इज़्ज़त बचा रही खिड़की।

है ज़मीं पर ही लुत्फ़ जीने का,

आसमां पे नही बनी खिड़की।

उड़ गई रानाइयाँ सारी ही,

देखते ही ये कब्र की खिड़की।

तख़्त – ओ – ताज़ की नही हामी,

वो पुरानी हवेली की खिड़की।

अजनबी आया है नज़र कोई,

ज्यों ही सहरा में है खुली खिड़की।

जो अज़िय्यत है ज़िंदगी यारों,

ज़िंदगी फिर भी है बनी खिड़की।

वो क़फ़स-साज़ है ख़ुदा आकिब ‘

जो बनाए है रूह की खिड़की।

आकिब जावेद

आवाज़ सुखन ए अदब के संस्थापक , ब्लॉगर,कवि,लेखक, ग़ज़लकार,बाल साहित्य लेखन में कार्य कर रहे हैं,उनकी रुचि

कविता ,लेखन और नई-नई जगहों में घूमना। पुस्तक प्रकाशन-ख़्वाबों के दरम्यां ग़ज़ल संग्रह ,कोरे अक्षर काव्य संग्रह, नज़र ई काव्य संग्रह।

भारत में रेख़्ता,कविशाला,कविता कोश,ज़ख़ीरा,poetistic ,प्रतिलिपी,स्टोरी मिरर एवं पाकिस्तान की वेबसाइट उर्दू प्वाइंट में कविता /ग़ज़ल प्रकाशित है।देश – विदेश की पत्र – पत्रिकाओं में निरंतर लेखन एवं प्रकाशन।

प्राप्त सम्मान लेखन-

विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा प्रदान किया गया है।

1-काव्यांचल “छंद रथी”

2-साहित्यदीप” साहित्य प्रज्ञा”

3-काव्यन्चल “काव्यांचल आवाज”

4-तूलिका बहु विधा “अतुकांत काव्य गौरव”

5-“कागज़ दिल साहित्य प्रसून” सम्मान

6-साहित्य सागर काव्य गौरव सम्मान

7-सोपान “उत्कृष्ठ रचनाकार सम्मान

8-रिवायत रत्न सम्मान

9-सोपान- उन्मेष प्रतियोगिता में सम्मान पत्र आदि सम्मान प्राप्त हुए।

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