
हमारे अग्रज
देवी दित्ता–आदि कवि–(सत्रहवी सदी)
कवित्त
ठंडा- ठंडा पानी पिया जिन्होंने बर्फ की तरह
तवी का जल अब उन्हें कहाँ याद आएगा?
मीठे जिन्होंने आम खाए रस भरे , पके
उन्हें खरबूजा क्योंकर मन अब भाएगा?
लिख- लिख थके हाथ नैन पके रास्ता देख,
“दत्त” बहना नौ साल बाद छोड़ कर किसने बुलाया?
फिर हुई है बरसात और उनका मन है शान्त,
हमारी ओर फिर कैसे तेरा ख्याल आता।।
अनुवादः -प्रवीण कुमारी
पं. गंगाराम… (सत्रहवी सदी)
कंढ़ी वास
बाजरे की रखवाली,
पशुओं को भगाना,
चिड़ियों को उड़ाना,
जैसे तैसे यह सब करना।
दूर जा पानी लाना
पत्थरों से पैर तोड़ना
ऊँची नीची उँचाइयों का दुख ,
बहना! किसको है कहना?
गाय के बछड़े को,
रोज पानी पिलाना,
रात- रात जागकर
चक्की पीसना
यह सच्ची बात
सभी बहुओं ने कही है
सबसे बुरा है
कंढ़ी के इलाके में रहना।।
अनुवादः फरीदा
बाबा कांशीराम
भारी दुख
१
छोटे छोटे आदमी हैं, दुख बहुत भारा
मिलती नहीं रोटी, हो किस तरह गुजारा।।
खाली पेट परिवार को आती नहीं नीन्द,
कभी सोए सिरहाने तो कभी पिरहाने।।
पास नहीं पैसा मेरे, चलता नहीं चारा,
छोटे छोटे आदमी हैं दुख बहुत भारा।।
कपड़ा नसीब नहीं, नंगे बदन बीती उम्र मेरी,
पाँव में जूता नहीं, झुक गई है कमर मेरी।।
भरपेट न मिला कभी भूख ने है मारा,
छोटे छोटे आदमी हैं दुख बहुत भारा।।
सरकार भी डराये हमें, हाकम भी खाए
नौकर भी दबाये हमें, कड़िया भी लगाये हमें।।
जैलदार, लम्बरदार और चौकीदार,
छोटे- छोटे आदमी हैं दुख बहुत भारा।।
कर नहीं होता पूरा , बस बढ़ता जाता है
कुछ नहीं छोड़ता पास में
सारा पैसा ले जाता है
छोटे- छोटे आदमी हैं दुख बहुत भारा।।
गरीबों का खा- खाकर जो बनते हैं बड़े,
कांशी, कहे जो आज ही हो निपटारा।।
छोटे- छोटे आदमी हैं दुख बहुत भारा।।
अनुवादः कमलजीत सिंह
लाला रामधन
चन्दा की चान्दनी
देख रामधन! प्रेम की रीत
है लटकना कच्चे धागे से।
कठिन है खोलना हाथ से बँधी
खोलनी पड़ती है दाँतो से
मैं तेरी , तू मेरा हो गया
सुख दुख , अच्छे बुरे के साथ
पल भर नहीं बोलना बुरा किसी को
चन्दा की चान्दनी चन्दा के साथ।।
हमारा काम था कातना- धुनना,
साथ ही था नोचने- खसोटने का
टूट गई हूँ गट्ठर भर घास उठाते
पत्ते शहतूत और धम्मन के।
किसके भाग्य बाँधा, हे विधाता!
राह दिखाओ, संभलू किस तरह
इसके साथ जीना, मरना इसी के साथ
पल भर किसी को बुरा नहीं बोलना
चन्दा की चान्दनी चन्दा के साथ।।
देख ले होश कर बेटे तू
बहु बातें बनाती है
किसी और से शादी करवाती हूँ ,तेरी
जलादे इसकी चोटी।।
हाथ न लगाती घर का काम
लिए बैठती है चाँदी हाथ में
हर वक्त लड़ाई, हर वक्त फसाद
साल हो गया सुनाती रहती
धर में रहूँ तो लड़े- झगड़े
खाँसी से गला सूखे
पल नही बोलना बुरा किसी को
चन्दा की चान्दनी चन्दा के साथ।।
क्यों पूछते हो तुम जड़ी बूटी
क्यों भटको तुम मंदिर द्वार?
नहीं मुझे किसी भूत का साया
नहीं बुराई मुझे में, नहीं कोई ऐब!
न ही वारो तुम मेरे सिर से मुर्गा काला
मुझे लूट बर्बाद कर गया रे
रामधन! वह कान्हा बाँसुरी वाला!
क्या करूँ कोई बास नहीं चलता
लग गया मेरा मन उसी के साथ
पल भर किसी को बुरा नहीं बोलना
चन्दा की चान्दनी चन्दा के साथ।।
अनुवादः फरीदा
कृष्ण स्मैलपुरी
गीत
भले सिपाही डोगरे, रौंसली- रौंसली धारायें
तुम्हारे बिन उदास है।
भले सिपाही डोगरे, धारायें रही पुकार
बनफशा के फूल चुन जा।
भले सिपाही डोगरे, दो दिन की छुट्टी आ
सुहानी रुत बीत रही।
भले सिपाही डोगरे, ऊँची हो कर धाराएँ
हैं बाट जोह रही।
भले सिपाही डोगरे, नये नीम्बू की कलियाँ
खिलने को तरस रहीं।।
अनुवादः अरुणा शर्मा
परमानन्द “अलमस्त”
यौवन ढल जायेगा
यौवन ढल जायेगा री, और प्रिय जाना है मर री !
चढ़े दिन तो रात भी होती, रात गए दिन चढ़ता,
यह हिंडोला दिन रात का इसी तरह छलता।
जो गढ़ा गया उसे टूटना, जो जन्मा मर जाये
यौवन ढल जायेगा री, और प्रिय जाना है मर री !
यह रूप पतंग तुम्हारी नहीं फरहाएगी हवा में सदा,
डोर खत्म या हवा थमी, आखिर नीचे आ जाना है
देशवासियों को मान देश का , परदेशियों ने चले जाना है
यौवन ढल जायेगा री, और प्रिय जाना है मर री !
केश काले भूरे होते, भूरे से होते श्वेत
एक ठिकाने रहता कौन, लाख करो उपाय
भरी सर्दी में पाला पड़ता, धूप चढ़े पिघलता,
यौवन ढल जायेगा री, और प्रिय जाना है मर री !
ओ अलमस्त यह जीवन पानी ऊपर बताशा
महल- माड़ियाँ छोड़ छाड़, आखिर वन में वासा
धन दौलत साथ ना जाए यहीं जाना है छोड़
यौवन ढल जायेगा री, और प्रिय जाना है मर री !
अनुवादः अरुणा शर्मा
रामनाथ शास्त्री
पाप की धरती में आखिर यह भाला किसने घुसाया,
अंधेरी काली सुनसान रात में पूर्णमासी का चाँद चमकाया,
दुख की रात भागी जाती, सुख का सवेरा हँसता आया,
लाचारी की गोद के भीतर, सोये हुए को आकर जगाया।।
यह कौन आया, यह कौन आया!
दुखी मजदूर के माथे पर, यह कैसा किरणों का ताज?
मुर्दों की तरह पीली किसान की आँखों में कैसा प्रकाश?
क्यों चंचल हवा? क्यों नाच रहे दरख्त?
किसने हारी, भूखी- मांदी , जनता को सरदार बानाया?
यह कौन आया, यह कौन आया!
मन डाले आग के आगे, फिर भी चेहरे बिल्कुल चुप्प,
जैसे झेला धरती ने दुख, वैसे झेले कड़वे अनुभव,
दुखों के साथ यारी कर, अपने कफन खुद सिले
इनके मन की हिम्मत ने बेहद मीठा राग सुनाया।।
यह कौन आया, यह कौन आया!
काँटों पर चलने वाले, धूप में जलने वाले
दुनिया की रोटी के दाता, लोगों का घर भरने वाले।।
मुसीबतों में खेलें, जहर का प्याला पीने वाले,
उन्हीं किसानों और मजदूरों ने जुल्मों के महलों को ढहाया।।
यह कौन आया, यह कौन आया!
श्वेत वस्त्र धारण करों जवानो!, श्रेष्ठ गीत गाओ जवानों!
धरती के भीतर सोना, मेहनत से बाहर लाओ जवानों!
नरक बनी इस धरती को, फिर से स्वर्ग बनाओ जवानों!
दुनिया का इतिहास गवाह है, नया जमाना तुम्ही ने बनाया!
यह कौन आया, यह कौन आया!
जागो, देश के किसानो!, जागो देश के मजदूरों
वीरों ,शेरों जागो, सब जाग गए, तुम भी जागो
राष्ट्र प्रेम सिखलाओ, डोगरे लोगों तुम भी जागो
जागने वालो ने देखो, कैसा ऊँचा भाग्य बनाया।।
यह कौन आया, यह कौन आया!
अनुवादः प्रवीण कुमारी
दीनू भाई पन्त
हुआ अब उजाला, देश!
उठो देश, हुआ अब उजाला
देखो सूरज चढ़ आया
लगी धूप की धारा बहने
खिल उठीं कलियाँ
पक्षी लगे चहचहाने!
बुरी लत लगी तुम्हे नीन्द की
सारी इज्जत
बीच रास्ते लुट गई
रो- रो हार बैठी अम्मी
उठ मेरे बच्चे
हो गया वह, जो नहीं
होना कभी
जिसने की हिम्मत
घर सोने का बनाया
लोगों ने गाईं यश गाथाएँ
नाम उन्होंने कमाया
हर कोई लिखता- पढ़ता
हरदिन आगे बढ़ता
बन्द किए तुमने दर
नहीं सीखे शब्द चन्द
जीना कैसे आए?
मरना भी तो नहीं सीखा
अनुवाद शेख मुहम्मद कल्याण
वेदपाल “दीप”
गजल
हुआ वसंत का अहसास जब
पंछी पिंजरे मे हुए बेहाल
पंजे टकराए सींकचों पर
पंख उड़ने को रहे फड़फड़ाए।
जो वैरागी, मलंग, अलमस्त थे,
दूर चले गए इन आडम्बरों से
मंजीरे बजते रहे मन्दिरों मे
रहे खनकते लोहा , पीतल।
गर्मी की बहार, बैशाखी का भांगड़ा
भाख गाई जब रघुनाथ सिंह ने,
ढोल की थाप की उम्मीद में
नाचने को अंग रहे फड़कते।
” दीप” ने लगाई कहाँ प्रीत
कि जानी नहीं प्रेम की रीत
रामधन ने कहा जो सच था
कच्ची डोर से हम रहे लटकते।।
गजल
ख्वाहिशों को उम्मीद का लारा मिल गया।
उम्र को जैसे कटने का सहारा मिल गया।।
चमक थी जुगनू की या अकेला तारा।
उसको लक्ष्य साधने का इशारा मिल गया।।
प्रेम की बात छेड़ते ही वह सुबका ऐसे।
पेट्रोल की बोतल को जैसे अंगारा मिल गया।।
कोई ना कोई सहारा संग चलता रहा हमेशा।
राह में जुगनूं या फिर कोई तारा मिल गया।।
दर्द प्रेम में हमे सारा कि सारा मिल गया।
अपना घर फूँकने को आग का चमकारा मिल गया।।
अनुवादः अरुणा शर्मा
अश्विनी मंगोत्रा
समर्पण
मेरी भाख उनकी है
ऊँचे महलों मे जिनको प्यार ना मिला
जिनके गीतों को सुरों का शृंगार ना मिला
जिन्होंने न किए हार- सिंगार इंतजार में
और बीत गई उम्र सारी, खड़े रहे झरोखे में
मेरे ये गीत उनके हैं
मेरी हर भाख उनकी है।
जिनको हाथ पसारने को जिन्दगी करती मजबूर
जिनको खुशियों से दूर करती जिन्दगी हरदम
फिर जो कलियाँ यारों , पली ही काँटों में
उम्र भर जो रही बहार तलाश में
ये मेरे गीत उनके हैं
मेरी भाख उनकी है
जिनको खून- पसीने का हक नहीं मिला
मन के भीतर उठते रहे उबाल , पर मुँह नहीं खुला
ये मेरे गीत उनके हैं
मेरी भाख उनकी है
अनुवादः अरुणा शर्मा