
कविता के बारे में
अचल पुलस्तेय
अचल जी लगातार सामाजिक राजनीतिक समस्याओं के विरोध में आवाज उठाते रहते हैं। यही नहीं वे साइंस के देशी पक्ष को भी नहीं नकारते हैं। उनके उपन्यास भी आदीवासी, और शहरी संस्कृतियों के सम्बन्धों की भी पड़ताल करते हैं। अचल जी एक व्यक्ति सेना है, जो लगातार प्रकृति के पक्ष में, आदीवासियों के पक्ष में, मेहनतकशों के पक्ष में लिख रहे हैं, और नकली सभ्यता, नकली सौन्दर्य, नकली जिन्दगी का विरोध कर रहे हैं। अचल जी की ये कविताएं पारम्परिक सौन्दर्यवाद के विरोध में , लेकिन मेहनत कशों के पक्ष में खड़ी दिखाई देतीं हैं।
ये कुछ अलग तरह की कविताएं हैं, इसलिए कविता के बारे में” विभाग में ली जा रही हैं।
लटें उड़ने से बसंत नहीं आता
नहीं बाबू,
इधर नहीं आया बसंत,
एक बोलेरो जरूर गुजरी है
पक्की सड़क से,
हो सकता है
निकल गया हो उसी से ॽ
सड़क किनारे
गोबर थापती स्त्री बोली ।
माथा पीट कर,
कंधे में लटका झोला
सरकाते हुए,
स्त्री की मूँढ़ता पर मुस्कराते हुए
समझाने के मुद्रा में
कवि ने फिर कहा-
अरे पगली !
सरसों पियराया है,
आम बौराया है,
पछुआ तेरी लटें उड़ा रही है-
धानी चुनर में
धरती मुस्करा रही है
और तू कहती है
इधर बसंत नहीं आया है ?
गोबर सने हाथों से
सिर का पल्लू ठीक करती हुई
जोर से एक थाप
गोबर पर देकर
झुकी नजर से
बोली पड़ी वह स्त्री ।
“बाबू! पछुआ के ठंड से
देह थरथरा रही है
आपको बस मेरी
लटें उड़ती नज़र आ रही हैं ?
जो मिला था फ्री का सिलेंडर
अब वो भी नहीं भरवा पा रहे हैं
आदमी का काम बंद है,
कड़कती ठंड में
बच्चे नहीं गये स्कूल
बे मौसम पछुआ से
दाने नहीं लगेंगे
झर जायेंगे फसलों के फूल ।
बाबू !
लटें उड़ने से बसंत नहीं आता
डेहरी-कोठार भरने से आता है
हमारा बसंत ।
टीवी-किताबों-फिल्मों में
जितना सुन्दर लगता है गाँव
कभी आओ, ठहर के देखो
कितना कर्ज-कीचड़-कचकच में
फँसा रहता है हमारा पाँव ।
अंजुरी भर बसंत
अब इंतज़ार कठिन होता जा रहा है-
कहाँ खोजूँ पलाश, पीपल, कचनार
जहाँ उतरता था आकाश भर बसंत ?
गमले में कैद
पीपल, बरगद गुलमोहर
के बोनसाई से
नहीं उतर पायेगा
बिहसता हुआ
अंजुरी भर भी बसंत ?
दम घुटने लगा है
नहीं है साँस भर हवा
किसी शहर में,
बाग बन रहे खेत
खेत बन रहे है घर
अब नहीं बची है
पेड़ो की छाँव
किसी गाँव में
संसद में हंगामा है
एक पेड़ लगाना है
कानून पास हो चुकी
जंगल काटकर
कोयला निकालना है।
अब फर्क नहीं पड़ता है
मौसम बदलने से
सावन-फागुन हो
या पतझड़ बसंत ।
सोचता हूँ
मेरे न सही
तुम्हारे खयालों में सही,
खिल जाये एक पलाश
भर जाये दिग् दिगंत
मुझे मिले न मिले
भावी पीढ़ीयों को मिल जाये
अंजुरी भर बसंत ।
हमारा बसंत
बसंत
वैसे ही नहीं आता है
पहले ठंड से
हाड़ कंपकंपाना पड़ता है।
फूल खिलने भर से
आता होगा आपका बसंत
कविता-गीत लिखने के लिए।
हमारा तो
तब आता है,
जब पक जाते है दाने
सरसों-गेहूँ की बालियों में,
खलिहान से निकलकर
आ जाते है घर में ,
बिक जाते हैं अच्छे भाव में।
हिसाब-किताब बैठता हैं,
कर्ज-उधारी चुकता है
सिलता है
बच्चों के कपड़े
पत्नी की साड़ी-साल,
बदल जाती है
हमारी चद्दर
तब आता है बसंत…
हमारा बसंत ।
चैत का बसंती ब्यौरा
फगुनिया के जाते ही
चैतू मुस्काया,
सरसों की बात क्या
गेंहू गदराया।
पछुआ के झोंकों संग
दौड़ी बसंती,
खेत-खलिहानों में आँचल लहराया।
महुआ के पात झरे,
कोंचा मन भाया,
मादक सुगंध से
सिवान बौराया ।
राशन की लाइन में
लगा रहा दिन भर,
चैतू ने आज बस, अंगूठा लगाया।
एक बरस बीत गया
दिये इम्तिहान को
कोर्ट में फँसा हुआ है
नौकरी का अभी तक
रिजल्ट नहीं आया ।
कितनी शर्मनाक है
बिडम्बना जनतंत्र की
जनता ही याचक है
अपने जनतंत्र में
न्याय है तंत्र गिरफ्त में
चैतू-फगुनिया-बसंत
करें तो, आखिर क्या करें ।