
कविता के बारे में
मनीष आजाद
सुकरात…..
कटघरे में खड़े सुकरात को
जब जहर पिलाने का आदेश दिया जा रहा था
तो कई ‘समझदार‘ लोगो ने न्यायधीशों को समझाया-
‘यह ठीक नहीं है,
इससे न्याय पर लोगो का विश्वास उठ जाएगा’
न्यायधीशों का तर्क था,
हमे नंगे राजा की इज्जत की हर हाल में रक्षा करनी है,
यही आज का कानून है
हमे आज की चिंता है, कल की नहीं
न्यायधीशों का अड़ियल रुख देखकर
‘समझदार’ लोग सुकरात की ओर मुखातिब हुए
जो न्यायधीशों की आंखों में घूरते हुए
जहर के प्याले का इंतजार कर रहा था
‘तुम्हारे सामने अभी पूरी जिंदगी पड़ी है
तुम्हें अभी बहुत कुछ करना है’
‘माफी मांग लो, क्या फर्क पड़ता है’
सुकरात के कान में वे फुसफुसाये
सुकरात जहर के प्याले को हाथ मे लेते हुए
हौले से मुस्कुराया,
‘मुझे आज की नहीं, कल की चिंता है।
मुझे भविष्य की चिंता है।’
यह कहकर सुकरात ने एक बार मे ही प्याला गटक लिया।
धौल का इंतजार
दस साल बाद वह अचानक मिली
एक शादी में
पहली नज़र में पहचान में नहीं आयी
खूबसूरत मैरून कलर की साड़ी के साथ
ऊपर से नीचे तक
उसने प्रौढ़ता भी ओढ़ रखी थी
हम दोनों ही थोड़ा झिझके
संतुलित तरीके से मुस्कुराए…
और कैसी हो?
ठीक हूं।
तुम कैसे हो?
बहुत ठंडा सा प्रतिप्रश्न…
क्या यह वही लड़की है,
जो मिलते ही
पीठ पर बिना एक धौल जमाए नहीं मानती थी
कारण कुछ भी हो सकता था
उसका फोन न उठाना
समय पर किताब न लौटा पाना
उसके छपे लेख पर तत्काल प्रतिक्रिया न दे पाना
या फिर कुछ भी…
देश-दुनिया की बहस में
आसमान सर पर उठा लेना
खुशी में बच्चे की तरह गले से लिपट जाना
और क्रोध में हाथ-पैर कुछ भी चला देना
एकदम बिंदास और पारदर्शी
उसे देखकर भरोसा होता
कि वह हमेशा ऐसी ही रहेगी
ठीक वैसे जैसे समुद्र को देखकर लगता है
हाहाकार करते समुद्र के
शांत तालाब बन जाने की कल्पना
आखिर कौन कर पाता?
मैने हिचकते हुए पूछा
आजकल क्या लिख रही हो?
‘कुछ भी नहीं’
उसने छूटते ही कहा
मानो उसे मेरे इस प्रश्न का ही इंतजार था
मैं आवाक रह गया
साहस जुटाकर अगला सवाल किया
शादी कब हुई?
‘मुझे याद नहीं’
इस बार उसकी आंखों में वही पुरानी
शरारत कौंधी
लेकिन अगले ही क्षण बुझ गई
अब और कुछ पूछने का साहस मुझमें नहीं था
बस अपनी पीठ पर एक धौल का इंतजार था…..
मेरी माँ के चेहरे पर झुर्रियों ….
मेरी माँ के चेहरे पर झुर्रियों का जो डेरा है,
वह ‘सदियों का फेरा’ नहीं,
उलझी लकीरों का एक गुच्छा है.
जिसमें फंस कर मेरी माँ
न जाने कितनी बार गिरी है…
और हर बार किस्मत को कोस कर फिर फिर उठ खड़ी हुई है.
आज अस्सी साल की उम्र में
वह उन उलझी लकीरों को सुलझाने में लगी है.
सत्रह साल की उम्र से बस एक पुरूष का चक्कर लगाना
उसी की आवाज के साथ उठना
और उसी की आवाज के साथ बैठ जाना
उसके दिल की धडकनों ने भी
मानो उस आवाज के साथ अपनी संगति बिठा ली हो.
कोई पूछता- ‘तुम्हे क्या पसंद है?’
तो वह अपनी नहीं, उनकी पसंद बताती
पसंद के साथ उनकी नापसंदगी को भी विस्तार से बताती.
वह मन ही मन हफ़्तों अभ्यास करती,
फिर भी यह कहते हुए कांप जाती
कि उसे नइहर जाना है.
जब वह नहीं रहता
तो मानो वह जी जाती,
लेकिन इसे स्वीकार करने में उसे संकोच होता.
आज अपनी बेटी का इंतज़ार करते वह सोच रही है
कि पिछले साठ साल से वह लगातार एक ही काम तो करती रही,
बस इनका ‘मूड’ ही तो सूँघती रही,
और उसके हिसाब से तय करती रही अपनी दिनचर्या
फिर भी कभी कभी ‘गलती’ तो हो ही जाती
अपने भाइयों के आने से वह चहक उठती,
लेकिन इन्हें देखते ही सहसा अपने पंख सिकोड़ लेती.
उसके भाई, इनकी नज़र में थोड़ा कम इंसान थे
और यह तो हमेशा से ही उनकी नज़र में
दुनिया की सबसे बेवकूफ औरत थी.
दूसरों के सामने वे अक्सर इसे तकिया कलाम की तरह दुहराते
आज अपनी झुर्रियों पर हाथ फेरते वह उलझ रही है,
इतना ‘आत्मविश्वास’ एक पुरूष में आखिर आता कहाँ से है?
बेटी के इंतजार में उसकी निगाह टिकटिक करती घड़ी पर है.
वह अभी भी उन रेखाओं में लगातार उलझ रही है-
‘क्या ज़िंदगी में इससे अलग भी कुछ हो सकता था?’
चेहरे पर उलझी रेखाओं का सिरा मानो उसकी पकड़ में आ गया.
तभी बेटी ने दरवाजे पर दस्तक दे दी…
अन्ना करेनिना और टॉलस्टॉय
फिर समाज में कोई
अन्ना करेनिना बनने की कोशिश न करे
इसी दृढ़ निश्चय के साथ
टॉलस्टॉय लिखने बैठे.
तीस पेज तक आते आते
अन्ना शब्दों से निकलकर
टॉलस्टॉय की मेज पर एक खूबसूरत छोटी गुड़िया में अवतरित हो गयी.
‘टॉलस्टॉय, तुम मेरे प्रति इतने कठोर क्यों हो?’
टॉलस्टॉय का सीधा जवाब था
‘तुमने बेवफ़ाई की है’
‘किससे’?
अपने पति करेनिन से, समाज से.
तुमने तो अपने प्रेमी ब्रोंस्की के लिए
अपने बच्चे को भी छोड़ दिया
और अब तुम मुझसे नरमी की उम्मीद करती हो?
अन्ना जब ज़िंदा थी.
तो यह सब सुनने की उसे आदत हो गयी थी!
लिहाजा उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं आया.
अन्ना ने सीधा सवाल किया
बेवफाई क्या है, प्रेम क्या है, समाज क्या है?
टॉलस्टॉय ने इस पर अपना पूरा बोझिल दर्शन रख दिया.
अन्ना बिना प्रभावित हुए बोली
एक स्त्री को क्या चाहिए
प्यार और सम्मान
ब्रोंस्की ने मुझे दोनों दिया.
इसलिए मैं पति को छोड़ ब्रोंस्की के पास आ गयी
और माँ का दायित्व?
टॉलस्टॉय को लगा कि इस सवाल से अन्ना निरुत्तर हो जाएगी
लेकिन अन्ना का जवाब था
‘केरेनिन ने मेरे बच्चे को मुझसे छीना
और मैं सिर्फ माँ नहीं थी, एक स्त्री भी थी
स्वतंत्र स्त्री
प्यार और सम्मान की आकांक्षी’.
‘लेकिन ब्रोंस्की ने भी तो तुम्हें धोखा दिया,
आखिर तुम्हें मिला क्या?’
यह तो तुम ब्रोंस्की से पूछना
मैंने तो बस प्यार किया था
एक मासूम प्यार!
फिर समाज की नैतिकता का क्या?
नैतिकता के सवाल पर अन्ना भड़क गई,
‘तुम्हारे समाज की नैतिकता
मकड़ी के उस जाले की तरह है
जहाँ स्वतंत्र स्त्री का गला घोंटा जाता है
उसके प्यार, उसके सपनों का गला घोंटा जाता है
जैसे मेरा घोंटा गया
क्या मेरा गला घोंटने से तुम्हारे समाज की नैतिकता बच गयी?
सच कहूँ तो मैंने तो बस प्यार किया था
बहती नदी सा निश्चल प्यार.’
‘अच्छा छोड़ो टॉलस्टॉय
यह बताओ
अगर तुम मेरी जगह होते तो क्या करते?’
टॉलस्टॉय ने सिगार सुलगाई
बेचैनी में कमरे का कई चक्कर लगाया
फिर बेहद धीमी मगर गंभीर आवाज़ में कहा
‘वही करता जो तुमने किया’
यह सुनकर अन्ना करेनिना
पुनः शब्दों में विलीन हो गयी…….**
**कहते हैं कि टालस्टाय पहले अन्ना को नेगेटिव रूप में चित्रित करना चाहते थे. लेकिन वे ईमानदार रचनाकार थे.
इसलिए जैसे जैसे अन्ना के चरित्र में डूबते गए, उनकी अन्ना के प्रति सहानुभूति बढ़ती गयी और अन्ना अंत मे उपन्यास में सकारात्मक पात्र के रूप में उभर कर आई.
यात्रा..
यात्रा कैसी रही?
पिता का स्वाभाविक सवाल था.
अच्छी रही!
क्या उत्तर भी उतना ही स्वाभाविक था?
ट्रेन के एसी डिब्बे में वह रात भर जागती रही.
सामने बैठे दो अधेड़ उम्र के व्यक्ति
जब तब कनखियों से उसके शरीर का मुआयना कर लेते,
और फिर ताश के पत्तों में रानी खोजने लगते.
मानो रानी और इस लड़की के शरीर मे कोई साम्य हो.
सहज होने के लिए
लड़की ने ‘अरुण कमल’ का कविता संग्रह बैग से निकाला
‘नींद आदमी का आदमी पर भरोसा है’.
न जाने इस कविता का असर था या नींद का दबाव
लड़की की आंखे बंद होने लगी.
अचानक उसे लगा
उसके शरीर का मुआयना और सघन होने लगा है
अजनबी आंखों की छिपकलियां उसके शरीर पर रेंगने लगी हैं.
घबराकर उसने आँखे खोल दी
अब नींद आंखों से गायब थी
उसने नींद को ऐसे रोक रखा था
मानों आंख लगते ही कोई खंजर उसके सीने पर गिर जाने वाला था.
खैर, उस रात ‘कुछ नहीं हुआ’.
लेकिन ‘कुछ होने’ की आशंका उसे डराती रही.
और आज, घर के सुरक्षित बिस्तर पर भी
वह रात भर करवट बदलती रही.
क्या कुछ हो सकता था,
इसकी भयावह फ़िल्म देखती रही.
दूसरे दिन उसका भाई आया
पिता का वही स्वाभाविक सवाल
यात्रा कैसी रही?
भाई ने चहक कर कहा-
बहुत अच्छी!
ट्रेन में सोते हुए ही आया.
इस रात भी भाई घोड़े बेच कर सोया.
बहन ने उसे चाय पर जबरदस्ती जगाया.
चाय पीते हुए, बहन ने सोचा
दोनों की ‘यात्रा’ में यही तो फर्क है
दो रातों की नींद
और
दो रातों का जागरण.