समकालीन कविता
देवेन्द्र आर्य
घर
—-
लौटूंगा
बार बार लौटूंगा
लौटने के लिए ही होता है घर
घर न हो तो लौटना कहाँ?
लौटना न हो तो जाना कहाँ?
एक घर ही तो है
जहाँ से जाया जा सकता है कहीं
जहाँ लौटा जा सकता है
कहीं से भी
कभी भी
घर है तो इंतज़ार है
इंतज़ार ही घर है
००००
(2)
संतति
———
संतान पैदा करने के अलावा
इंसान ने दो ची़ज़े और पैदा कीं
एक ईश्वर
दूसरा पैसा
ईश्वर जो एक होकर भी कई है
और पैसा !
वो तो चीज़ है ही कई होकर भी एक
दोनों बिना हाथ पैर मुंह !
मगर विजेता
प्रवक्ता इंसानियत के
कल-युग में त्रेता
ईश्वर ने लोगों के विश्वास को बांटा
धर्मों से
पैसे ने लोगों के विश्वास को जोड़ा
बाज़ार से
स्वनिर्मित ईश्वर और पैसे के खेल में आदमी
आदमी से बंटा भी
जुड़ा भी
जिसे कहते हैं सिक्का चलना
पूरे विश्व में सिक्का चलता है दोनों का
एक का नाम ईश्वर दूसरे का पैसा
एक बांट कर चलता है
दूसरा जोड़ कर
मज़े की बात यह
कि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं
और उससे मज़े की बात यह कि आदमी
अपनी इन दोनों औलादों का ग़ुलाम है अब
००००
(3)
आंसू और गाल
——————-
कल पहली बार ऐसा हुआ मेरे साथ
कि बायीं आंख का आंसू
नाक की सीमा रेखा पार कर
दाएं गाल पर लुढ़क गया
मैं इसे आंसुओं का परस्पर आदान प्रदान
सहयोग मान लेता
अगर बदले में दायीं आंख वाला भी
बाएं गाल को सहला रहा होता
मगर ऐसा नहीं हुआ
‘हम होंगे कामयाब’ की तरह
मित्रों पहली बार ऐसा हुआ
कि दोनों आंखों के आंसुओं ने गलबहियां कर लीं
दाएं बाएं का भेद ही नहीं रहा
वैसे देखा जाए तो आंखें भले दो हैं
मगर आंसू तो एक
वही रंग रूप रस कारण
आकार एक
आंखें दो आंसू एक
लुढ़के तो पानी ही ठहरे
मगर कल पहली बार ऐसा हुआ
कि आंसू दो थे
गाल एक
गाल पोछना अब आसान था
बेशक पहली बार हुआ ऐसा
मगर ज़रूरी नहीं कि दुबारा न हो
प्रेम की तरह
जिसमें ढ़ाई हमेशा तीन होता है
००००
(4)
पहली बार
————-
पहली बार जो हो
ज़रूरी नहीं कि प्यार ही हो
और आख़िरी बार जो हो
वह नफ़रत हो
नफ़रत भी हो सकती है पहली बार उसी से
जिससे आख़िरी बार प्यार हुआ हो
कुछ घटनाएं पहली बार भी
आख़िरी बार सी ही लगती हैं
जैसे प्यार
नफ़रत चाहे जितनी बार हो
पहली बार हुई सी कभी नहीं लगती
ठीक वैसे ही जैसे भूख
है तो एक शारीरिक क्रिया
मगर मानसिक हो जाए तो व्याधि बन जाती है
बार-बार होना व्याधि है क्या ?
००००
(5)
थक चुका हूँ कर्नल
———————–
अब और नहीं सही जाती यह वर्दी
अपने सैनिक होने को चरितार्थ करता
टूट चुका हूँ कर्नल!
तुम्हारे अदेश और ट्रिगर के बीच
सावधान की मुद्रा में मुस्तैद मैं
एक असावधान नागरिक होना चाहता हूँ अब
थका हारा
तुम्हारी दी हुई बंदूक से छलनी किए हैं
कितने निर्दोष सपने
महज़ दो कौर निवाले
और एक घूंट देशप्रेम के नाम पर
मेरे मन से ताज़ा ख़ुदे क़ब्र की महक आ रही है कर्नल
शरीर अकड़ी हुई लाश हुआ जा रहा है
मैं आराम चाहता हूँ
लाशों के बीच एक ज़िंदा लाश की तरह
सर झुका कर बैठ जाना चाहता हूँ मातम की मुद्रा में
अंतिम प्रायश्चित की तरह
कोई ख़तरा ज़िंदा नहीं बचा अब
मैं बैठ जाना चाहता हूँ युद्धोन्माद के झाग सा
बुझ चुके चराग़ों की राख सा
मगर कहाँ ?
लाशों के बीच लाश हुआ जा सकता
बैठा नहीं जा सकता कर्नल
काश ये पसरी हुई लाशें बैठ सकतीं
मेरे लिए थोड़ी जगह बनाते
मुझसे बेहतर हैं ये लाशें आरामफ़रमा
मौत से बेहतर चैन नहीं कोई
लाशों के बीच केवल लाश हुआ जा सकता है
लाशें गिराने का इल्म दिया तुमने कर्नल
लाशों पर सुस्ताने का हुनर नहीं
उसे छुपा कर अपने पास रख लिया वार रूम में
सांसें टांगी जा सकती हैं नैज़े पर
मगर टिक नहीं सकतीं
लाशों से घिरा मैं
न लाशों पर बैठ सकता हूँ
न अपनी संगीन पर
क्या हालत बना दी तुमने कर्नल!
अनुशासन का दीमक और जीत का छल
मुझे चाले जा रहा है
इन्ही के पैसों से आईं ये बंदूक और गोलियां
इन्हीं पर ख़र्च की हैं तुम्हारे कहने पर
कर्नल बस एक गोली मुझ पर एहसान कर दो
मैं चैन की नींद सोना चाहता हूँ
हमवतनों के साथ
देवेन्द्र आर्य- जन्म : 18 जून, 1957, गोरखपुर, (उ. प्र.)
कृतियाँ : गीत, ग़ज़ल समेत कविता के 18 संग्रह प्रकाशित । आलोचना ग्रन्थ – ‘शब्द असीमित’. एवं ‘आलोचना का मौन’
सम्पादन : आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव और कवि देवेन्द्र कुमार बंगाली पर तीन पुस्तकों का सम्पादन.
कविताएँ अंग्रेजी, उर्दू, बांग्ला, गुजराती, पंजाबी मराठी, कन्नड, उड़िया आदि विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुदित, प्रकाशित।
पुरस्कार/सम्मान : केन्द्र सरकार का मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से विजयदेव नारायण साही नामित पुरस्कार. जनकवि मुकुट बिहारी सरोज सम्मान.
रंगकर्म एवं सामाजिक आंदोलनों से गहरा जुड़ाव. विमर्श केन्द्रित संस्था ‘आयाम’ का संयोजन.
सम्पर्क : ए -127, आवास विकास कालोनी, शाहपुर, गोरखपुर – 273006 . मो. 7318323162
अंजली सिंह
1
जीवन में अपशकुन
अपशकुन है
दरवाजे लगा गुलमोहर का पेड़,
ऐसा पिताजी से कहा था
किसी ने ।
अपशकुनी तो घर की बेटी भी हो जाती है
जब ढलने लगती है
उसके ब्याह की उम्र ।
अपशकुनी हो जाती है
घर के बाहर बंधी ठूंठ गाय
जो बुढ़ापे के कारण
अब गाभन नहीं हो सकती ।
गूलर का फूल
दोहराई गई भूल
सांझ का सूरज
और
खोया हुआ धीरज
ध्यान से देखने पर मिलता है
कि सारी दुनिया ही
अपशकुनों से भरी पड़ी है
और
हम उन्हें भी
ऐसे काटते जाते हैं
जैसे कटवा दिया था
पिताजी ने
वो गुलमोहर का पेड़।
2
त्रासदी
दुनिया की सबसे बड़ी त्रासदी यह नहीं
कि स्त्रियाँ दुखों से बनी होती हैं,
बल्कि यह
कि वे अपनी बेटियों को आशीर्वाद में
अपना-सा जीवन नहीं देना चाहतीं।
“तू मेरे जैसी मत बनना”
वो कहती हैं
जैसे कोई नदी
अपने किनारे से माफ़ी मांगती हो
कि उसे कभी समंदर नहीं छूना आया।
हम बड़ी होती हैं
माथे पर उनकी उँगलियों की रेखाएं लिए,
और किसी एक दिन
जब उनके हाथों की कठोरता
अचानक नर्म लगने लगती है,
वे कहती हैं
“हम भी पत्थर नहीं थीं…
बस रो न सकीं
क्योंकि आवाज़ दीवार से टकराकर
घर लौट आती थी।”
हम चुप सुनते हैं,
उनकी टूटी हुई इच्छाओं को
जैसे कोई पुराना गीत
जिसे कभी लिखकर अधूरा छोड़ दिया गया हो।
हम जान जाते हैं
कि हमारी मां
सिर्फ मां नहीं रहीं,
वे समय की दीवार में
गारे की तरह गूंथ दी गई थीं।
और सबसे गहरी पीड़ा यह नहीं
कि वे थक चुकी थीं,
बल्कि यह कि
हम उन्हें बचा नहीं सकते।
हम बस इतना कर सकते हैं
कि उनके हिस्से की नदी
अपने भीतर बहने दें,
उनकी पत्थर हुई चुप्पियों को
अपने शब्दों की नमी दें,
और किसी दिन
अपनी बेटी की हथेली थामकर कह सकें
मैं तुम्हें अपनी तरह बनते नहीं देखना चाहती,
इसलिए मैं खुद को तुम्हारे लिए
नया बनाना शुरू कर रही हूं।
3
प्रकृति और स्त्रियां
हर बार, बार-बार,
चाहे वह जंगल हो,
या कोई स्त्री का मन
जब-जब तुमने कहा-
हम तुम्हें बचा रहे हैं
दरअसल तुम उन्हें
कैद कर रहे थे।
प्रकृति और स्त्रियाँ
नहीं माँगतीं तुमसे संरक्षण।
वे स्वयं ही, बिखर कर
फिर से संवरना जानती हैं।
तुम बस उन्हें
उनके हाल पर छोड़ देना।
4
ब्रह्मांड
बोलती स्त्रियाँ
अपने भीतर एक ब्रह्मांड लिए चलती हैं,
और मूक स्त्री
भरती है उनकी आवाज़ में
स्मृतियों की सिलवटें
जो समय ने कभी खोली नहीं।
बोलती स्त्रियों को चुप रहना पसंद नहीं
अडोल स्त्री रचती है आग
सींचती है उसे अपने संघर्षों से
और झोंक देती है
बोलती स्त्रियों के ईंधन में।
फिर
वे जलती हैं
और
उनकी हर चिंगारी
एक कहानी बन जाती है
जो किताबों और अलमारियों से नहीं
चूल्हों, चौखटों और चुप्पियों
से जन्म लेती है।
उस चुप में दर्ज़ होती है
एक अनकही घोषणा
कि अगली आग
वहीं से उठेगी
जहां पिछली बार
उन्हें चुप रहने की सलाह मिली थी।
रेत पर खींची गई रेखाओं की तरह नहीं
पहाड़ पर उग आए
मंत्रों की तरह।
5
नीची जाति की औरतें
और वो,
नीची जाति की औरतें
नीच होने की कगार पर
तुम्हारी सोच से थोड़ा ऊपर जो आती हैं,
ताकि तुम श्रेष्ठ रह सको, अभी भी
उतने ही।
तुम्हारे बिस्तरों ने जिन्हें छूना चाहा,
जिनके हाथ की रोटियां तुमने नकार दीं,
वो स्तन जिन्हें तुमने अपना अधिकार समझा,
जो मिट्टी सने पाँव लेकर
धान रोपती रही दिन भर,
उसी ने रात में
तुम्हारी शुद्धता को
चीर डाला था
एक चुप चीख़ बनकर।
वे झुकी थीं -पर श्रम में,
झुकी नहीं थीं तुम्हारी तरह
परंपरा की पालकी उठाने में।
तुम्हारे घरों
की औरतें पिंजरों में थीं
देहरी की मर्यादा में, पति की छाया में,
संस्कार की श्रृंखला में
पर ये नीची औरतें,
घूंघट नहीं, ईंटें उठाती थीं,
देवता नहीं, पेट पालती थीं,
तुम्हारी हवस सहती थीं
और फिर भी तुमसे ज़्यादा जिंदा रहती थीं।
वे जाति से नीची थीं
पर अस्तित्व में ऊँचाई पर थीं।
तुम्हारे ग्रंथों में उनका नाम नहीं,
पर खेत, सड़क, घाट और माटी में उनकी छाप थी।
और ये ही तो डर था तुम्हारा
कि कहीं उनका मौन तुम्हारी आवाज़ से ऊँचा न हो जाए।
आज
तुम ऊँचाई की दीवार पर खड़े हो,
और वे ज़मीन में धंसी जड़ों की तरह जीवित हैं।
तुम श्रेष्ठ दिखते हो
क्योंकि उन्होंने खुद को कभी बड़ा सिद्ध नहीं किया।
और
इतिहास के बाहर भी जो ज़िंदा रहे,
उन्हें कोई जाति मार नहीं सकती।
अंजली सिंह, 26
वर्ष की युवा लेखिका, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र की विद्यार्थी रही हूं। कविताओं के माध्यम से मैं उन भावों और अनुभूतियों को स्वर देने की कोशिश करती हूं, जो अक्सर कहे नहीं जा सकते। शायद ये भाव आत्ममंथन और संवेदना की धरती से उपजते हैं, और शब्दों की दुशाला पहनकर सामने आ जाते हैं। चरैवेति।।
गोबिंदा बिस्वास,भारत
अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुदित, अनुवादक डॉ अर्चना बहादुर ज़ुत्शी
हरेक रक्तपात झिंझोड़ता है
एक मां अपने पुत्र हेतु शांति की कामना रखती है,
यह ममता जन्म के समय से ही होती है
उसने जन्म देने की पीड़ा जो सही है।
वह उसे खोना नहीं चाहती क्योंकि वही तो उस का हर्ष है।
जब उस के पांव बरसों पहले भारी हुए
वह उमंग से भर उठी,
समय के साथ वह एक प्रसन्नचित नवयुवक बना,
परंतु प्रसन्नता छिन्न हो गई उस ने जब सैन्य वस्त्र धारण किए ।
वह अपने राष्ट्र के प्रति निष्ठावान सैनिक था
अपने प्रतिद्वंद्वी की भांति।
युद्ध चलता रहा, एक मां ने अपना पुत्र खोया
इस युद्ध की त्रासदी ने उस के ह्रदय के टुकड़े- टुकड़े कर दिये।
वह आक्रमणकारी भी अधिक समय तक जीवित ना रहा
उस के लिए भी नियति ने यथा सोच रखा था,
समय बीता, उस पर भी प्राणघातक हमला हुआ
आक्रमणकारी की माता को भी घोर पीड़ा का हुई।
आंसुओं का कोई राष्ट्र या धर्म की सीमा नहीं
यह बिल्कुल समान और अभेद होते हैं
चाहें वह चिले, कोरियाई या ब्रिटिश नागरिक हों
अमरीकी, रूसी अथवा अफ्रीकी नेत्री।
एक जैसी ही ह्रदय विदारक अनुभूति
जब एक पिता, एक माता, या एक बहन
अपने अतिप्रिय परिजन को एक प्राणघातक विस्फोट में खो देते है।
एक दिन दोनों मृतकों के करीबी गोल्गोथा भूमि पर मिल जाते हैं।
उन मारे गये व्यक्तियों की मातायें निर्बाध रुदन करती हैं।
“मेरा बेटा, मेरे ह्रदय का टुकड़ा, वापस आ जा गले लग जा
अन्यथा मेरे प्राण भी निकल जायें।
निरंतर माता रोती है,पिता रोते हैं, भाई भी रोता है ।
अपनी गोद में एक बालक लिये,पत्नि रोती है।
दोनों ही मृतकों के लिए,जिन के अंग विदीर्ण हुए थे
वह अश्रुपूर्ण प्रार्थना करते हैं,
“कृपा करें इन को नवजीवन मिले।”
सैकड़ों ह्रदय, सम्पूर्ण विश्व से,
अश्रुपूरित नयनों से बोझिल
मारे हुओं को श्रधांजलि देते हैं,
वो कहते हैं, “युध्द विराम हो और प्रभु के प्राणियों की हत्या थमे।
सभी सुख और शांति से रहें।”
(अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुदित, अनुवादक डॉ अर्चना बहादुर ज़ुत्शी)
2
मैं जौली बोल रहा हूँ
मैं जौली आप सभी से संबोधित हूँ
उन सभी से जो मेरे सामने हैं, मेरे विचार से,
आप मंडेला से ले कर लूथर किंग गाँधी से ले कर हो ची मिन्ह सब मेरे सम्बन्धी है।
आप अटिला, सारे कालों में विध्वंसक,
जो भी आप के मार्ग में पड़ा उस का नाश हुआ,
परन्तु आप के भीतर सब कुछ अंधकारमय नहीं था ।
एक अबोध मानवीय स्पर्श आप को बदल सकता था, आप में एक किरण थी ।
आप हिटलर, मुसोलिनी या स्टालिन हो सकते हो,
हो सकता है आप ट्रूमैन हो, जिस ने बम गिराया था,
यह सभी समाज और स्थिति द्वारा निर्मित हैं।
यदि कुछ और ही परिवेश होता, यह शांति के दूत होते।
आप गुएवारा, कास्ट्रो, लेनिन या ज़ेडोंग हो
आप सब सशस्त्र क्रांति के समर्थक हो
आप के रंग रंजित मार्ग पर कई कीट जैसा मनोरथ लिए,
परंतु भीतरी तौर से वह कपोत हैं, आरिओ के संगीत की मालिंद।
आप सुहार्तो, पोल पौट या कोई निर्दयी निरंकुश,
जिन के कारण आंसुओ और रक्त की नदियाँ बहीं।
वहाँ पर एक सच्ची सहानुभूति निहित थी।
यदि वहाँ पर राट्र निर्माण एवं चरित्र निर्माण हेतु सर्वोच्च शिक्षा दी गई हो।
आप जान ओ’लिअरी या प्रभाकरन
दो विभिन्न पृथ्वी खंडों से,
आप अपने लोगों के लिए खुशहाल-स्वप्नलोक की अपेक्षा रखते थे।
आप ने सभी अशांति फैलाने वाले तत्वों के लिये कठिनाइयाँ बढायीं।
कोई भी पूर्णतया काली रात्री नहीं होती, यद्यपि वह कृष्ण-पक्ष ही क्यों ना हो
एक क्षीण प्रकाशमय विचार जिसे समझना कठिन है,
सभी क्रूरताओं के पीछे अंर्तरात्मा ढकी होती है
सभी शैतानी प्रवृत्ति के लोग दैवीय होते यदि उन्हें उचित शिक्षा मिलती।
(अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुदित, अनुवादक डॉ अर्चना बहादुर ज़ुत्शी)
गोबिंद बिस्वास भारतीय कवि हैं़ उनकी सात प्रकाशित पुस्तकें हैं। द सनी पोएम्स (86 कविताएँ) और द यूनिवर्सल पोएम्स (90 कविताएँ) क्रमशः 2016 और 2017 में कोलकाता, भारत में प्रकाशित हुईं। द इटरनल पोएम्स (110 कविताएँ) और द ग्लोबल पोएम्स (114 कविताएँ) क्रमशः 2019 और 2020 में नई दिल्ली, भारत में प्रकाशित हुईं। द इम्मोर्टल पोएम्स (100 कविताएँ) का प्रकाशन काठमांडू, नेपाल में 2023 में हुआ। उनका YouTube चैनल — गोबिंदा बिस्वास, द इंग्लिश पोएट या उनकी वेबसाइट — www.gobindabiswas.com देखें। 15 अगस्त, 2021 से अब तक उन्होंने दुनिया भर के कवियों के साथ ई-टॉक पोएज़ियो विद गोबिंद नामक 66 ऑनलाइन कविता साक्षात्कारों का आयोजन और मेज़बानी भी की है।
डॉ. अर्चना बहादुर जुत्शी की “पोएटिक कैंडर” कल्टुरियम
(18 मार्च, 2019) और “द स्पीकिंग म्यूज़” (2020) एशियन एक्सट्रैक्ट्स में प्रकाशित हुई। “केयरलेस वर्स व्हिस्पर्स” (2021, किंडल) उनकी तीसरी पुस्तक है। “फुल थ्रोटेड स्टिरिंग्स” उनका चौथा खंड (कविता) है। कविता प्रतियोगिताओं की निर्णायक रहीं, उन्होंने लखनऊ के प्रसिद्ध स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाया। उनके काम में साहित्यिक आलोचना के अध्याय शामिल हैं; उनके गद्य और पद्य कई संकलनों में प्रकाशित हुए हैं। उनका हिंदी से अंग्रेजी में अनुवादित उपन्यास किंडल पर उपलब्ध है।
पैनोरमा इंटरनेशनल फेस्टिवल 2022 में विजेता। प्रिंट और मीडिया में साक्षात्कार (यूट्यूब पर उपलब्ध)। “कल्चरियम” में उनकी पुस्तक “द स्पीकिंग म्यूज़” प्रकाशित हुई और उनकी रचनात्मक यात्रा को कवर किया गया।