प्रिय कवि

कुमार विश्वबंधु

 

1.

 

कुँवारी लड़की के हाथ में
जलती हुई सिगरेट

 

कुँवारी लड़की के हाथ में
जलती हुई सिगरेट
तुम्हारी सभ्यता के चक्रव्यूह में
उसे दी गयी
तमाम असभ्यताओं के खिलाफ
एक जलता हुआ बयान है
वह मात्र एक सिगरेट नहीं है
बल्कि लड़की की आजादी का
धुँधुआता हुआ फरमान है

 

तुम्हें अच्छा लगे न लगे
उसे परवाह नहीं
क्योंकि अब वह खुद
अपनी परवाह करना सीख रही है
कुँवारी लड़की
अपनी चुप्पी में चीख रही है

 

कुँवारी लड़की के होंठो पर
सुलगती हुई सिगरेट
हजारों वर्षों से थोपी गयी
तुम्हारी तमाम बंदिशों की नकार है
वह मात्र एक सिगरेट नहीं है
बल्कि उसका अपने ही
कुचले हुए वजूद के लिए प्यार है
तुम्हें गँवारा हो न हो
पर यह सिगरेट का धुआँ
जो लड़की के मुँह और नाक से
गल-गल निकल रहा है
उसके फेफड़ों में
जहर की तरह उबल रहा है
वह दरअसल हर मौके पर
हॉं-हॉं करने की
उसकी वर्षों पुरानी आदत का
नया-नया इंकार है

 

कुँवारी लड़की के हाथ में
जलती हुई सिगरेट
सदियों के
पथरीले अंधेरे को तोड़कर
आग में दमकते एक नये चेहरे का
स्वप्नगंधी अवतार है

***

2.

 

चटाई

 

रात का आसमान
घास के मैदान की तरह बिछा है
मैं छत पर
चटाई ओढ़कर लेट गया हूँ

 

पानी गले से नीचे टघरता हुआ
कहीं शून्य में गिर रहा है
आसमान धीरे-धीरे
मन के उदास कमरे में उतर रहा है
नदी की तरह बलखाता छलछलाता
बह रहा है समय
चटाई से भाप सी उठती है मंद-मंद
कोई जानी-पहचानी सी उष्ण देह-गंध
नथुनों में कौंध-कौंध जाती है
कोई अजाना सा गीला आत्मीय स्पर्श
छू-छू जाता है मन को
कोई आदमी या कि कोई औरत
जिसने वर्षों पहले
किसी उमस भरे तपते दिन में
यह चटाई बुनी होगी

 

देखकर भूले हुए चेहरों की तरह
जबाकुसुम सी किन्हीं ऊंगलियों की छाप
चटाई के ताने-बाने में मौजूद है अब भी
किन्हीं आखों से
बेबसी में चुआ हुआ कोई सपना
जुगनू की तरह भक्क् से चमक उठता है
किन्हीं होटों से हड़बड़ी में गिरा हुआ
हँसी का कोई टुकड़ा
ठक्क् से टकराता है मुझसे
मैं बहा जा रहा हूँ स्मृतियों के अंतरिक्ष पथ पर
देखता हूँ झोपडी़ के कच्चे ओसारे पर
चटाई बुनती एक धुंधली सी आकृति
जिसकी झुकी हुई पीठ पर
इतिहास का भारी बोझ लदा है
माथे से रक्त की तरह बहते
खारे पसीने की स्फटिक समान बूंदें
टप् से गिरती हैं चटाई पर

 

मैं उनींदा सा चौंक उठता हूँ
गूंजती है आकाशगंगा में भटकती हुई
असंख्य मनुष्यों की व्याकुल पुकार
आसमान से बरसते अन्न के दानों की तरह
बारिश की बूंदें टप् टप् टप्
गिरती हैं चटाई पर
चटाई जो किसी बटाई के खेत की तरह
मेरे सामने फैली है
मैं आसमान ओढ़कर सो जाता हूँ

 

*****

3.

 

कौन आएगा प्रेम-पत्र लेकर
भूख न जाने कब की मर चुकी है
और प्यास भी
पूरे सिस्टम से
रीढ़ की हड्डी निकाल ली गयी है
और गुस्सा…
एक जमाने से मिसिंग है

 

नंगे-नंगे गांव-शहर में भटकते
अकेले सच का
अब कोई पुछत्तर नहीं
न्यूज चैनलों में बकथोथी करते
पेटेंट बुद्धिजीवियों की तरह
मकान की एक भी खिड़की खुली नहीं है
और दरवाजा दिल का
पूरी तरह बंद पड़ा है इन दिनों
जिस पर मौत के डर की तरह
लटक रहा है बड़ा सा तालीबानी ताला
बाहर अहाते में हथियारबंद झूठ
बर्दी पहने घर की चौकसी कर रहा है

 

ऐसे में कौन आएगा
कौन आएगा प्रेम-पत्र लेकर?
भला कौन उठाएगा इतना जोखिम??

 

*****

4.

झूठ

 

झूठ कभी भी
झूठ की तरह सामने नहीं आता
वह सच के लिबास में
बन-ठनकर आता है

 

सच को लगातार झुठलाते हुए
झूठ
किसी दैवी चमत्कार की तरह प्रगट होता है
और हवा में
महामारी की तरह फैल जाता है
वह जानलेवा वायरस की तरह
आदमी के दिमाग में
बिना आहट चलता रहता है
जैसे दीमक धीरे-धीरे
ताखे पर रक्खी किताब का पन्ना-पन्ना चाट जाता है
झूठ पलक झपकते
आदमी की उम्र भर की समझदारी को मिट्टी कर देता है
लालसा की स्वार्थ-कपट-धूप-छांही गलियों में
झूठ
किसी जहरीले सांप की तरह रेंगता रहता है

 

वह भावनाओं के भूगोल में
मनचाहा झोल डाल जाता है
और सभ्यता के पुराने से पुराने इतिहास में
किसी खूंखार हमलावर की तरह बेधरक घुस आता है
वह वर्तमान जीवन के सत्य प्रेरित प्रश्नाकुल मंचों पर
संस्कृति का हो-हल्ला मचाते हुए
अजन्मे भविष्य का कत्ल कर देता है
वह भाषा में चहलकदमी करते हुए
शब्दों के अर्थों में उलटफेर करता रहता है
वह प्रेम की जगह ऩफरत
और अमृत जगह विष रख देता है
वह बच्चों की खिलखिलाती हँसी के भीतर
बम छिपाकर गायब हो जाता है

 

हालांकि अब तक की यात्रा में उपलब्ध
शास्त्र सम्मत मुहावरे की भाषा में सोचें
तो हरबार जीत आखिरकार सच की होती है
जबकि रोजमर्रा के दृश्य में
सबसे अलग-थलग नितांत अकेला पड़ गया सच
अपनी सच्चाई के बावजूद
तमाशाइयों की निगाह में दोषी करार दिया जाता है
हथकड़ियाँ वही पहनता है
लोहे की बेड़ियों में वही जकड़ा जाता है
देश निकाला का दण्ड भी वही पाता है

 

लेकिन इस सबके बावजूद
झूठ चाहे कितना ही जोर लगा ले
सच को मार नहीं सकता
न ही सचमुच में कभी पराजित ही कर सकता है
वह समय के कटघरे में
अपराधी की तरह कैद कर लाए गए सच को
काठ के कीड़े की तरह
बेरहमी से काटता-कुतरता रहता है
पर अंततः अपनी मौत आप मर जाता है!

*****

गंभीर कविताओं के अलावा बच्चों के लिए कविता लेखन। नेशनल बुक ट्रस्ट आॉफ इंडिया, दिल्ली, से बाल कविता संग्रह ‘इ इत्ता है, उ उत्ता है’ 2011 ई. में प्रकाशित।
कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए एवं ‘नामवर सिंह का ओलोचनात्मक संघर्ष’ विषय पर कलकत्ता विश्वविद्यालय से पीएच.डी।

हंस, वागर्थ, जनपथ, आजकल, अक्षर पर्व, वर्तमान साहित्य, समकालीन भारतीय साहित्य, अक्षरा, कथादेश, सरयू धारा, भाषा, पाखी, परीकथा, वसुधा, पूर्वग्रह सहित देश की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ और लेख प्रकाशित। यदा कदा बंगला भाषा में भी कविताओं का लेखन और बंगला की लघु पत्रिकाओं में प्रकाशन।

सम्प्रति : ‘गवर्नमेंट कॉलेज आॉव एडूकेशन, बानीपुर’ नॉर्थ 24 परगना, पश्चिम बंगाल, में एसोसिएट प्रोफेसर।

388/8, बेहाला एअरपोर्ट रोड, मेन गेट, पो- पर्णश्री पल्ली, कोलकाता- 700060. (पश्चिम बंगाल)
e.mail : kumarvishwabandhu@gmail.com
Mobile : 9831198760

Post a Comment