प्रिय कवि

चन्द्र की कविताएं 
 
 
 
सुंदर तो बस काम होते हैं
 
 
बैल हांकते हुए
या कंधे पर कुदाल या लकड़ी का हल ढोते हुए जब हम खेतों से घरों की तरफ लौट रहे होते हैं
मुरझाए हुए से दिखते हैं
सुंदर नहीं दिखते
 
मेरे कहने का मतलब
सुंदर कुछ नहीं
एक खटते खटते कृषकाय हुई कृषक की देह
और एक हाड़ मास काया वाले बैल
सुन्दर नहीं हो सकते
 
सुंदर तो बस काम होते हैं
क्रिया होती हैं
 
और भूख में कच्ची अधपकी रोटी 
बहुत मधुर।
 
 
 
कंधे पर हल ढोने की आवश्यकता 
ही मेरी कविता है
 
 
कंधे पर हल ढोने की आवश्यकता 
ही मेरी कविता है
मैंने ही लकड़ी के हल का अविष्कार किया है
इसलिए
मैं सुबह-सुबह जा रहा हूं
 
 
कुदाली और बैल तो पिताजी लेकर चले गए हैं 
सूरज को भी हांकते हुए
 
मैंने कंधे पर गमछा रखा है
तभी भी हड्डी दुखती,
कुहुकती है कंधे के भीतर की!
 
 
मौसमों ने 
कितना हंसी का पात्र 
बना 
दिया है हमें
 
कि जोती हुई हल-रेखा के बीच
मेरी कविता हांफ रही है बेदम होते हुए
और अब मैं हमेशा की तरह आ गया हूं दूर 
अपने खेतों में 
जहां से
 
दिल्ली क्या 
असम की राजधानी 
‘दिसपुर’ 
बहुत दूर है।।
 
 
 
वह भी जीवन है 
 
 
वह भी जीवन है
उसके वन में भी 
खिलते फूल हैं
लेकिन वह अब भी
सुन्दर 
नहीं है।
 
 
उसके मेहनत की माटी
तुम्हें 
सुन्दर बनाती है
फिर भी तुम्हारी आत्मा
उनसे घिनाती है।
 
 
तुम गर उसे सुन्दर 
बना नहीं सकते
उसके साथ हो लो
उसके साथ खटते खटते
मैल सब धो लो।
 
 
तब लौटते थे
 
 
तब लौटते थे
सूरज आगे से डूब जाता था उस जंगल के पार
और चांद पीछे से निकल आता था
तब लौटते थे घर हम
बैलगाड़ी हांकते हुए
 
सब पंछी लौटते थे
और हमारी थकान
कहीं नहीं लौटती थी
जूते हुए खेतों में
मिट्टी में दबी दबी रहती थी
 
हमारी नरम गरम आकांक्षाओं की तरह.
 
 
मज़दूरों की मौत
 
 
मैं देख रहा हूँ कि खेतों के माथे पर से खून रिस कर बह रहा है
और रवि के रथ का घोड़ा पृथ्वी पर रोशनी का रास्ता देने से पहले
कहीं आसमान में बल्ब की तरह फ्यूज़ हो गया है!
 
 
ढूंढ रहा है वह कोई ऐसा कवि
कोई ऐसा श्रम और मर्म ईजाद करने वाला मज़दूर
जो पहले खेतों के माथे पर से
खून के निशान पोंछ सके
 
 
बेचैन दिन का चांद एक शोकाकुल नदी के पार
पुकार रहा है जमीनी तारों को कि मुझे बचाओ
मुझे बचाओ इस संदेह भरे समय के यमदूत से
 
दिन में इतना अंधेरा क्यों दिख रहा है
मेरी मजूर माँ कह रही है
चारों तरफ कंगाली ही कंगाली
कंगाली बिहू कैसे मनेगा असम वासियों!
 
कहीं सूखे की कंगाली
कहीं ब्रह्मपुत्र में मौन हाहाकार!
कहीं पहाड़ टूटने पर हाय हाय!
 
सब ओर महामारी,
सब ओर नरसंहार
कीड़े मकोड़े की तरह मरते मनुष्य!
चारों तरफ चीखते हांफते मनुष्य!
 
और कहीं तानाशाही अवसर की नीचता
ऐसी तानाशाही अवसर की नीचता
कि घर भर
गांव घर
जिला बस्ती
हर नगर.
 
 
निर्वासन
 
 
मैं जन्म से लेकर अबतक नदी के तीरे जाता रहा हूं और खेतों के बीच
मुझे बहुत ही कम चीजें
याद रही हैं
 
 
क्योंकि दिल के पुस्तकालय में
याद करने लायक यातनाएं नहीं रहतीं
 
 
हालांकि भूलने की कोशिश करता हूं अपने देश को
भूलने के काबिल नहीं हो पाता हूं
न दुनियादार लोगों के भरोसे का मानुष
 
पंछियों की अपार करुणा में
पुकारती हुई आवाज़ें सुनता हूं
चुप लगा जाता हूं
यह मेरी चुप्पी
मेरी आत्मा की अंतहीन यातना है.
 
 
मैंने यहां सभी की आंखों में देखी है करुणा
सभी की आंखों में रोते हैं गौतम बुध !
 
 
दुनिया की आधा आबादी से अधिक
निर्वासन झेल रहे लोगों में से
मैं भी एक हूं
मेरी कविता इस देश के लिए
और
कितने जून भुगत सकती है
 
कितनी कितनी स्त्रियों के
दूध पीकर जिए हुए बच्चों को
मैंने देखा है अकाल के आकाश में
निज आंखों से
 
 
और उन बच्चों को भी अब देख रहा हूं
सामान की तरह ट्रकों में लदते हुए
और किसी कुरकुरे की तरह रास्ते में गिर जाते हुए.
 
मेरी दादी की पुरानी पोटली
जिसमें कुछ
अनाज के दाने बचे हुए थे
जो कि इसी देश की भूमि से लाए गए थे
 
 
यदि उन्हें कहीं रोपूंगा
क्या मुझे किसी देश की नागरिकता मिलेगी?
उन सभी अनाजों को भी नहीं ?
 
क्या पृथ्वी की तरह
गोल गोल प्याजों को भी नागरिकता नहीं मिलेंगी?
 
अनाजों के नस्ल आज भी जिंदा हैं मेरी खेती में
पर वह खेत मेरे नहीं है
देश के मानचित्र में.
 
क्या है इस उग्रवादी मौसम में,
इस ऋतुराज बसंत में
कितनी हरियाली
और कैसी अ-रोमांटिक सुंदरता है
कलाओं की दुनिया की
कि कातिल मस्त है,बेपरवाह
हमारे लिए क़ब्र पर क़ब्र खोदता हुआ
 
कि आदमी, मार तमाम आदमी,
आदमी ही आदमी भागा जा रहा है
खेत बाड़ी
नलबाड़ी
पानबाड़ी
तामुलबाड़ी
और
जिंदगी की दुकानदारी
छोड़कर
सारा का सारा डॉक्युमेंट्स फाड़कर
आदमी कहां जा रहा है
 
 
आदमी कहां जा रहा है
आदमी कहां जाएगा
किसी गली
किस देश
कहां गुलामी खटने जाएगा
 
 
ज़रा पूछो उसे
रुको भाई !
यातना शिविर भी एक निर्मम बीहड़ देश का नाम है.
 
 
बारिश में आदमी पेड़ क्यों नहीं रोपना चाहता
 
 
खेतों में कुदाली चलाते हुए 
जब बारिश आई
हम चार जने 
सौ साल पुराने पाकड़-वृक्ष के जड़ों के आसपास 
छिपने आ गए
 
मैं सबसे अलग तरह से छिप रहा था
पाकड़ के सोर के इर्द-गिर्द 
बारिश में भीगने के बाद मैंने जाना 
कि कोई भी श्रमिक
या कोई भी आदमी
वोटर आईडी आधार कार्ड  या एनआरसी नहीं 
सौ साल पुराना पाकड़ का वृक्ष ढूंढने लगता है।
 
 
बारिश में आदमी 
पेड़ क्यों नहीं रोपना चाहता?
 
 
नमक और बैल
 
 
जिनका एक बैल मर गया
उनका पैसा भी मर गया
 
 
क्या तुम्हारे कभी कोई बैल नहीं मरे
क्या तुम्हारा पैसा कभी भी नहीं मरा
 
सुनता हूं जिनके हाथ कट जाते हैं काम करते हुए
उन्हें दोबारा काम नहीं देता कोई
 
तुम्हारे तो हाथ ठीक हैं
तुम काम क्यों नहीं करते
 
यह बिन बरखा की रात इतनी क्यों गमगीन है
क्योंकि उसे दिन को मजूरी कहीं नहीं मिली
खेतों में भी
 
क्योंकि उसका बैल मर गया है
उसका पैसा भी मर गया है 
उसका पैसा दफन है 
माटी में 
उसे खोदो 
वहां से अब उसके काम की हड्डी मिलेगी 
हाड़ मिलेंगे
पीड़ा के अगाध संसार मिलेंगे
 
गलन के लिए नमक तो तुमने दिया ही था
उसे दफनाते समय
अब तुम्हें कहीं नमक क्यों नहीं मिल रहा
अब तुम बिन जोड़ी के 
एक बैल लेकर क्या करोगे
 
साहब, कसाई के हवाले कर दूंगा।
 
 
खेती
 
 
जब भी तुम्हें कोई कहे
खेती करेगा
खेती करके जीवन बिताएगा
खेती करके बेटा बेटी पालेगा
 
तुम उनसे कहना
बैलों की घंटी में श्रम की ध्वनि तो है मगर
उसके गले की रस्सी
फांसी है
 
खेती की रोटी अपनी बासी 
रोटी भी नहीं
स्वामी ईश्वरों की दासी है ।
 
 
मेहनत आज
 
 
रोटी की तरह मूल्यवान है मेहनत
रोटी मिलने से पहले की
की गई मेहनत महान है 
इसे स्पर्श करो 
तुम्हें पारसमणी मिलेगा 
 
 
और संघर्ष करो तुम्हारी कविताएं
खेतियां हरी-भरी होंगी
तुम्हारे हाथ कुदाल से भी धारदार होंगे
 
 
लेकिन मैंने संघर्ष किया
हाड़ तोड़ मेहनत किया
आज मेरे हाथों में
मेरे बांस के घरों में और माटी के दीवारों में और दूर तक फैले खेत के मैदानों में क्या है 
अधनंगी देह के दृश्य के सिवा, सिवा हाथियों के पांव में समा जाने का अर्थ क्या है मितवा?
 
मेहनत आज
हर मेहनतकश को लगती है सजा
 
हर मेहनतकश
लाचारी के कीमत पर
खटता है
महसूस करता है ठगा।
 
 
मैं प्यार करता हूँ इस देश की धरती से
 
 
मैं प्यार करता हूँ इस देश की धरती से
इस देश की धरती के हरे भरे वनों, जँगलों से,
वनों-जँगलों में चहचहाने वाली तमाम चिड़ियों से,
इस देश की धरती के खेतों से
खेतों में खटने वाले वाले मज़दूर-किसानों से
मैं प्यार करता हूँ
 
 
मैं प्यार करता हूँ
जिनके हाथ श्रम के चट्टानों से रगड़-रगड़ा कर
लहूलुहान हो चुके हैं
जिनकी पीठ और पेट एक में सट चुके हैं
भूख व दुख से
मैं प्यार करता हूँ उनसे
जिनकी समूची देह
खतरनाक रोगों से कृषकाय बन चुकी है
 
 
मैं प्यार करता हूँ
मैं प्यार करता हू~म
इस कपिली नदी से
इस कपिली नदी के तट पर की बांस की झाड़ियों से
जिनसे हमारी घरों की नीव धँसी-बनी
जिस नदी के सहारे
मैं और मेरा गाँव और मेरे गाँव की तमाम खेती-बाड़ी
ज़िन्दा है
 
 
मैं प्यार करता हूँ
प्यार करता हूँ मैं
अपने हाथों के श्रम के धारे से
 
मैं प्यार करता हूँ
गाय, बैल, हल, हेंगा, जुआठ, खुरपी-कुदाल से
प्यार करता हूँ
 
 
मैं प्यार करता हूँ उनसे
जिनकी समूची देह श्रम के लोहे की छड़ों से
रूई-सी बुरी तरह से धुनी जा चुकी है
 
 
मैं प्यार करता हूँ….
प्यार करता हूँ मैं….
अपनी इस जर्जर देह से
जिसका अनमोल रतन दूहा जा चुका है !
 
 
चिरई – चुरूँग 
 
 
मेरे ख़ून , मेरे पसीन , मेरे आँसुओं
से सनी हुई गेहूँ-धान की
लहराती हुई बालियों को,
बालियों के नरम-नरम
दूधदार दानों को
बड़े चाव से खाती हैं प्यारी-दुलारी ,
देसी-परदेसी चिरईंयाँ
 
 
मेरी मेहनत की धरती से
जितनी भी
उगती-खिलती
फलती-फूलती
किलकती हैं
षड्ऋतुओं में
फ़सलें
 
 
इन सारी फ़सलों में
मिहनत-मजदूरी
की है इन्होंने भी
 
 
इन सारी फ़सलों में
चोंच-चोंच भर
चिरई – चुरूँगों का भी तो
हिस्सा है
 
 
इसलिए तो ये खाते हैं उतना ही
एक रोटी पकने में जितने गेहूँ के दाने लगते हैं
एक कटोरी भात पकने में जितने धान के दाने लगते हैं
 
 
और एक बीघा खेती करने में कितना ख़ून
कितना पसीना बहाना पड़ता है
कितने दुख
कितने सुख
कितने सैलाब सहनकर चुपचाप
घुटना पड़ता हैं
 
 
और कितनी आत्मा और कितने प्यारे प्राण लगते हैं
यह सब समझते हैं
हम मेहनतकश भी
 
 
तब हज़ारों बीघा खेतों में कितने किसान
कितने श्रमिक
कितने मेहनतकश
कितने मज़दूर लगते होंगे
खेतों के सुन्दर वेदियों पर
उनका कितना पसीना
कितना ख़ून बहता होगा
कितना हाड़-तोड़ खटते होंगे
यह तो यहाँ के वे मूस जानते होंगे
जो गन्ने के मन्द-मन्द-मुस्कुराते हुए खेतों
में छुप-छुपकर
चिभते हैं मधुर ऊँख ही..
 
 
यहाँ की गिलहरियाँ जानती होंगी
गन्ने के खेतों में लुका-छुपी खेलती हुई
गन्ने के रस का माधुर्य, मनोहर,आकर्षक छाता लगाने वाली मधुमक्खियाँ जानती होंगी
बन्दर और हाथी जानते होंगे
 
 
ऊँखों की गेंड़ा खानेवाले हज़ारों जोड़ी बैल जानते होंगे
गैया बछिया जानती होंगी
जानते होंगे कुकुर सियार बिलार जैसे बहुत जनावर
 
इसलिए तो ये खाते हैं
कर्म के फल की तरह
और पेड़ की तरह
फिर दे दे देते हैं
 
 
खाते हैं ये
इसलिए
कि अपने हड्डियों से ख़ून-पसीना
चुआँते हैं
और खटते हैं रात-दिन
हो चिलकती धूप के दिन चाहें
सर्दी की अँजोरिया रात
 
इसलिए तो ये खाते हैं
प्रेम-सद्भाव से
 
तुम नहीं खटते क्या ?
दूर-दूर खेतों में ?
 
तुम नहीं चढ़ाते क्या
फूल और प्रसाद की तरह
महान तीर्थ-स्थल जैसे असँख्य खेतों के असँख्य अमर चरण-चौखटों पर
जिगर का लहू-पसीना ?
 
फिर तुम नहीं खाते क्या ?
चोंच भर ?
कटोरी भर ?
 
तुम खाते हो
तुम खाते हो
हाँ ,
तुम खाते हो
खाते हो तुम !
 
पूरी की पूरी खेतियाँ !
पूरे के पूरे गोदाम !
 
 
 
 
घाठी 
——
 
 
यहाँ के लोग जब जाते हैं दूर परदेश, कमाने-धमाने
तब बनती है घाठी !
 
घाठी, गेहूँ के पिसान की
जिसमें भरी जाती हैं
खाँटी चने की जाँत में पिसी हुई सतुआ
 
जिसमें भरे जाते हैं
नमक, मिर्च और आम के अचार के मसाले
 
उसके बाद सरसों के तेल में
छानी जाती हैं नन्ही -नन्ही घाठी !
 
घाठी ,जिसे छानने- बघारने के लिए
रात भर जगतीं हैं माँ और घर रात से भिनसार तक गुलज़ार रहता है
 
घाठी, जिसे माँ ,सुबह-सुबह मेरे जाने से पहले
छानती हैं करीअई कराही में कराही – की – कराही
और नरम-गरम छानकर थरिया भर देती हैं मुझे
स्नेह से यह कहते हुए कि बेटा !
रेलगाड़ी में जाते हुए बटोही को भूख ख़ूब लगती है
और ख़रीद कर इधर-उधर खाने में पैसा भी तो लगता है, बाबू !
इसलिए, प्राण-मन-भर ये ही खा लो, बाबू !
 
मैंने बनाई है, बेटा ! अपने हाथों से
लो, और दो ले लो
क्या पता कब खाओगे मेरे हाथ की
बनी-बनाई घाठी !
 
माँ लाख सिफ़ारिश करती हैं
कि ले , और ले ,
खा ले बेटा !
 
पर मुझसे खाया नहीं जाता!
 
तब माँ चुप्पे-चुप्पे
मेरे परदेसी बैग में
भर देती हैं घाठी
कई जन्म के खाने के बराबर जैसे
कई जने के खाने के बराबर जैसे …
 
तब मैं ऑटो पकड़ने वाला ही होता हूँ
इससे पहले कि
मेरी माँ मेरी बहन मेरे भाई मेरे पिताजी मेरी लुगाई
सब के सब कुछ दूरी पर पहुँचाने जाते हैं कपली नदी के सँग-सँग
और गाय बैलों की
चिरई-चुरूँगों की घोर उदासी मेरी आँखों में
किसी नुकीली खूँटी की तरह धँस जाती हैं !
 
मैं तब जल्दी में होता हूँ
मैं तब ऑटो पकड़ने वाला ही होता हूँ
इससे पहले कि
हाथ जोड़ अपने बाबा का गोड़ लाग लूँ
 
इससे पहले कि
आजी माई बाबूजी की हथेलियों को चूम लूँ
 
और छोटे भाइयों को कोमल अभिलाषा दिला कर
उनके हाथों में दस-बीस थम्हा दूँ
कि मैं जरूर आऊँगा मेरे भाई
तुम्हारी पसन्दीदा कोई चीज़ लेकर…
 
मैं तब जल्दी में होता हूँ
मैं तब ऑटो पकड़ने वाला ही होता हूँ
लंका स्टेशन की तरफ जाने वाली ऑटो !
 
इससे पहले कि
अपनी दुलारी बहन को
यह आशा दिला दूँ
कि मैं जल्द ही लौट आऊँगा
अगले रक्षाबन्धन तक ज़रूर आ जाऊँगा, मेरी बहन !
 
तू सोन चिरई है री !
चिन्ता मत कर ।
 
मैं तब जल्दी में होता हूँ
मैं तब ऑटो पकड़ने वाला ही होता हूँ
इससे पहले कि
अपनी प्यारी दुल्हनिया से
एक मीठी बतिया, बतिया तो लूँ
और धीरज दिला तो दूँ
कि मैं जल्द ही लौट आऊँगा
आऊँगा तो तुम्हारे लिए ज़रूर एक सुन्दर चुनरी लेकर आऊँगा
यहाँ की तरह वहाँ टिकुली-सेनुर ,
छाएगल , और शौक-सिंगार का सामान
मिलेगा कि नहीं
पर भरोसा दिलाता हूँ तुम्हें प्रिय !
मैं जल्द ही लौट आऊँगा अगले बरस तक !
 
आऊँगा तो ज़रूर तुम्हारे लिए कुछ लाऊँगा
ख़ाली हाथ थोड़े ही आऊँगा
और हाँ , कलकतवा जाऊँगा तो ज़रूर अपनी एक दो कविताएँ उन मज़दूरों को भी सुना कर ही आऊँगा !
 
मैं तब जल्दी में होता हूँ
ऑटो पकड़ ही लेता हूँ
 
कुछ देर बाद लंका स्टेशन पहुँच ही जाता हूँ
तुरन्त टिकट भी कटा लेता हूँ
 
कुछ देर स्टेशन पर
दूर परदेश जाने वाले यात्रियों का चेहरा
एक बच्चे की तरह पढ़ता हूँ …
कुछ सोचता हूँ …
 
तब तक देखता हूँ कि पूरब की तरफ से सीटी बजाती हुई ट्रेन, धुआँ उड़ाती हुई ट्रेन
आ रही है झक झक झक झक ….
 
तुरन्त कन्धे पर टाँगता हूँ बैग
बैठ जाता हूँ रेल में खिड़कियों के पास
देखता हूँ दूर, दूर पेड़-पौधे,
 
पशु-पक्षी ,नदी-नाले, जल-जँगल-ज़मीन
धानों की हरी-भरी पथार
पथारों में खटते हुए किसान-बनिहार..
 
इसी तरह उदास-उदास बीत जाता है दिन
इसी तरह उदास-उदास बीत जाती है रात……
 
अचानक भूख लगने लगती है कस के
तब याद आती है घाठी की, बस, घाठी की !!
 
घाठी , चलती हुई रेल में चुपचाप
अचार के सँग खाने से खाया नहीं जाता !
 
तब माई की याद आती है
बहन की याद आती है
वह खाट पर लेटे हुए बीमार बाबा याद आने लगते हैं
मस्तक पर पगड़ी बाँधे हुए , खेती-बारी में घूमते हुए पिताजी की दिव्य-दृश्य चलचित्र की तरह याद आने लगते हैं
आँगन-दुआर में रोज़ सँध्या को हुक्का पीते हुए आजी की याद आने लगती है
उन मासूम-मासूम भाइयों की याद आने लगती है
शिवफल-वृक्ष के शीतल छईंयाँ बँधाए हुये खूँटियों में
गईया बछिया बरधा याद आने लगते हैं
याद आने लगते हैं गाँव-गिराँव के मज़दूर-किसान बन्धु !
 
तमाम खेत याद आने लगते हैं
खेत की मेड़ें याद आने लगती हैं
 
और जब लुगाई की याद आने लगती हैं
तब आँखों से कल-कल-निनाद करती हुई धारदार नदी बहने लगती है !
…आत्मा और काया में प्रेम , बिरह और माया इतने कचोटने लगते हैं..कि अपने गाँव-जवार ,नदी-नाले ,वन-जँगल ,पर्वत-अँचल
इतने रच बस जाते हैं तन-मन में
कि मन करता है कि अगले स्टेशन पर तुरन्त उतरकर लंका की तरफ़फ जाने वाली ट्रेन पकड़ लें !
 
पकड़ ही लें !
 
असम में मजदूरी करने वाले जमीन से जुड़े कवि हैं, उनकी कविताएं उनकी कुदाल की धार सी तीखी होती हैं। वे भविष्य में कविता की आशा हैं।

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