कविता के बारे में

आशीष दशोत्तर समकाल में समीक्षक के रूप में महत्वपूर्ण स्वर हैं, वे लगातार लेखन यानी कि कविता या समीक्षा में सलग्न हैं, उनके विचार कविता की स्थिति को समझने में मददगार होंगे, पूर्ण विश्वास है। RS

 

झूठसच के बीच मज़बूत दीवार सी खड़ी कविता

 

– आशीष दशोत्तर
 
 
 
 
 
 
 
 
‘मेरी कविता का विषय मानवीय स्थितियां हैं, न कि यह या वह ऐतिहासिक घटनाएं। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि दुनिया में जो कुछ भी घटता है उससे अपने को हटा लिया जाए। इसका अर्थ केवल इतना है कि एक जागरूकता और एक इच्छाशक्ति को बनाए रखा जाए, न कि जो सार तत्व है उसके बदले जो परिवर्तनशील है उसे अपना लिया जाए।’
 
 
युद्धोत्तर समय के इटली के चर्चित कवि इयुजेनियो मोंताले जब अपनी कृति ‘एक कवि की नोटबुक’ में यह लिख रहे होंगे तब उनके सामने लगभग वही सबकुछ होगा जो आज के कवि के सामने है। ऐसे में यह विचार किया ही जाना चाहिए कि आख़िर वह क्या है जो एक कवि को कविता लिखने पर मजबूर करता है? क्या उसके भीतर की पीड़ा, उसका भोगा हुआ दर्द, उसके सामने आने वाली तकलीफें या फिर उसके अभाव, उसकी अपनी विवशताएं या फिर व्यवस्था के दिए हुए ज़ख्म या ऐसा ही और कुछ? कई बार कुछ अकवि किस्म के लोग यह सवाल भी करते हैं कि कविता क्यों लिखते हो? कविता लिखने से होता क्या है? उनका सवाल बेवजह नहीं है। वे नहीं जानते की कविताएं क्यों लिखी जाती हैं या फिर लिखी जाती हैं या कवि उन्हें लिखने पर मजबूर होता है, या कि एक रचनाकार के भीतर कुछ न कुछ ऐसा होता है जो कागज़ पर कविता की शक्ल में उतरता चला जाता है।‌
 
 
यहां यदि हम पहले कवि की इस पंक्ति को न दोहराएं ‘मां निषाद…’ और अपने आसपास बिखरे समूचे परिदृश्य को देखें तो क्या वह ऐसा नहीं होता है जो हमें कविता लिखने के लिए विवश करे? और यह किसी एक दौर की बात नहीं, इसे हर दौर में ही समझा जा सकता है। एक बार एक वरिष्ठ कवि ने एक नवागंतुक कवि से कुछ ऐसा ही सवाल किया था कि तुम कविताएं लिखते हो तो कभी किसी से प्यार किया है? किसी ने तुम्हारा दिल तोड़ा है? कहीं तुमने ठोकर खाई है? नवागंतुक कवि ने इन सब प्रश्नों का उत्तर ‘नहीं’ में दिया तो वरिष्ठ कवि ने तत्काल कहा, तुम फिर ख़ाक कविता लिखोगे? कहने का तात्पर्य यह कि जब तक दिल के भीतर परिस्थितियों से उपजे दर्द को देखने की दृष्टि नहीं होती है तब तक कोई कविता नहीं उभरती है। सिर्फ़ कल्पनाओं के धरातल पर कविता नहीं होती। एक कवि जब अपनी दृष्टि को फैलाता है तो वह प्रकृति से उतना ही प्रेम करता है जितना मनुष्यता से। वह एक फूल को शाख से तोड़े जाने पर उतना ही द्रवित होता है जितना मनुष्य को पीड़ा पहुंचने पर या दो मुल्कों के बीच होने वाले युद्ध को देखकर। शिम्बोर्स्का की इन पंक्तियों पर भी गौर किया जाना चाहिए –
 
 
‘कुछ समस्याएं थीं जिन्हें हल कर लेना था
मसलन भूख और लड़ाइयां
हमें व्यवस्था के आंसुओं
 और सच्चाई जैसी चीज़ों के लिए
 अपने दिल में सम्मान जगाना था
 लेकिन ऐसा कुछ न हुआ।‘
 
ऐसा कुछ न होना ही कविता के रचाव का कारण बनता है। हर दौर में कई सारी ऐसी चुनौतियां हमारे सामने खड़ी रही हैं जो कविता लिखने के लिए विवश करती रहीं। इन चुनौतियों को जो समझता है, उनके पीछे चल रहे षडयंत्रों को जो देख सकता है, वही उन्हें कविता के रूप में ढाल सकता है। पाब्लो नेरूदा ने कहा भी है, ‘कविता में अवतरित मनुष्य बोलता है कि मैं अभी एक बचा हुआ अंतिम रहस्य हूं।’ यानी वह सब कुछ जो परिदृश्य के पीछे चल रहा है, उसे सामने लाने की कोशिश एक कवि अपनी कविता के ज़रिए करता है। जैसे कि कवि अशोक वाजपेयी कहते हैं –
 
‘अगर वक़्त मिला होता तो मैं
 दुनिया को कुछ बदलने की कोशिश करता
 आपकी दुनिया को नहीं
अपनी दुनिया को
जिसको संभालने समझने
और बिखरने से बचाने में ही वक़्त बीत गया।’
 
एक कवि आज भी उसी तरह हैरान परेशान है। उसके भीतर की कविताएं बाहर निकालने के लिए आतुर हैं। क्या उसकी परेशानी का सबब यह नहीं कि यह कैसा दौर है जब एक फूल से उसकी खुशबू का पता पूछा जा रहा है?  क्या यह अजीब नहीं जब मिट्टी से उसकी उर्वरता के रहस्य प्रमाणित करने को कहा जा रहा है? क्या यह बेचैनी पैदा नहीं करता कि इंसान के खून से यह कहा जा रहा है कि वह प्रमाणित करें कि वह लाल रंग का ही है?  ऐसे अजीब दौर में एक कवि व्यथित होता है और उसके भीतर की कविता बाहर आने को आतुर होती है। जो लोग कविता नहीं लिखते हुए भी इंसान हैं वे भी इस बात को महसूस तो करते ही होंगे कि आज उनके होठों पर ताले क्यों लगाए जा रहे हैं?  उनके हर क़दम पर कई नज़रें क्यों लगी होती हैं? उनकी हर गतिविधि को बीसियों कैमरों में क्यों क़ैद किया जा रहा है?  ‌हम और आप जैसे मध्यमवर्गीय व्यक्ति के आत्म संघर्ष और अनिर्णय की मानसिकता का चित्रण करते हुए कभी शुज़ा ने कहा था –
 
‘जो न बोलेगा तो मर जाएगा अंदर से शुज़ा,
और अगर बोला तो फिर बाहर से मारा जाएगा।’
 
कवि के सामने भी आज यही संकट है और कविता के सामने भी। कविता जीवन के साथ चलती है। जीवन के सुख-दु:ख, उतार-चढ़ाव कविता का अहम हिस्सा होते हैं। यह संभव नहीं कि किसी व्यक्ति के जीवन में सुख-दु:ख न हों या कोई उतार-चढ़ाव नहीं हों। फिर क्या कारण है कि हर व्यक्ति कवि नहीं होता? कवि होने के लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है कि जीवन के विभिन्न पक्षों को देखने की दृष्टि। जिस व्यक्ति के पास यह दृष्टि होती है वह कविता को कागज़ पर ले आता है। कवि के भीतर की कविता जब कागज़ पर उतरती है तो उसमें जीवन के कई रंग नज़र आते हैं। वहां आत्मीयता भी होती है, रिश्ते भी होते हैं, अपने गांव की गलियां भी होती हैं। पत्नी या बहन भी होती है तो मां से जुड़ी यादें भी होती हैं। और बहुत कुछ ऐसा होता है जो उनकी कविताओं में दिखाई पड़ता है। कवि जानता है कि जिन्हें बोलना चाहिए उन्हें  बोलने नहीं दिया जा रहा है और जिन्हें चुप रहना चाहिए उन्हें चीख़ने चिल्लाने के लिए आज़ाद छोड़ा जा रहा है। समय का यह अजीब रूप एक कवि ही देख सकता है। वह समझता है कि किस तरह लोगों को भयभीत किया जा रहा है और उन पर चीख़ चिल्लाकर अनावश्यक दबाव भी बनाया जा रहा है। यह समाज को तोड़ने की साज़िश है, जिसे कवि बेनक़ाब करता है।
कवि वरवर राव कहते हैं –
 
 
‘कब डरता है दुश्मन कवि से?
 जब कवि के गीत अस्त्र बन जाते हैं
वह क़ैद कर लेता है कवि को 
फांसी पर चढ़ाता है 
मगर कवि जीता है अपने गीतों में
और गीत जीता है जनता के हृदय में।‘
 
 
यह ऐसा समय है जिसमें झूठ का बोलबाला है और सच को चार दीवारों में क़ैद कर दिया गया है। झूठ के आवरण में सच को दबाया जा रहा है। कविता इस झूठ और सच के बीच एक मज़बूत दीवार की तरह खड़ी है। वह समाज को बता रही है कि सच क्या है और झूठ क्या। नक़ाब पहनकर किस तरह असली चेहरों को छुपाया जा रहा है और किस तरह उन्हें महिमामंडित किया जा रहा है। यही समय होता है जब कवि के भीतर की कविता बाहर आती है। कई बार रचनाकार को स्वयं यह महसूस होता है कि वह अगर यह सब कुछ नहीं लिखता तो क्या होता? इस संदर्भ में पाकिस्तानी कवियत्री अज़रा अब्बास का यह वक्तव्य मानीखेज़ है – ‘तीन क़िताबें लिखने के बाद जब मैं खुद से यह सवाल करती हूं कि मैंने क्यों लिखा? मैंने लिखना क्यों ज़रूरी समझा? क्या लिखे बग़ैर मेरा गुज़ारा नहीं हो सकता था? क्या सिर्फ़ मैं एक बीवी और कुछ बच्चों की मां बनकर मुतमइन नहीं हो सकती थी? तो यह जवाब में ख़ुद को देती हूं कि नहीं।‌ यह जो लिखने की मजबूरी मेरे साथ है यह उस वक़्त ही मेरे लिए आम हो गई थी जब से मैंने सोचना शुरू किया था। लेकिन यह सोच आसमान से नहीं गिरी थीं। यह मेरे दिमाग में किसी ऐसे ख़्याल के साथ नहीं आती थी, जिसे लिखने के बाद मैं यह कहती थी कि यह फेंटेसी है। बेशक मैंने बहुत ख़्वाब देखे।‌ बहुत सी मुसाफ़तें ख़्वाब में तय की, लेकिन मेरा एक-एक लफ्ज़ मेरी ज़िंदगी से मरबूत (सम्बद्ध) था।’
 
 
एक रचनाकार की ज़िंदगी का हर एक शब्द उसके अपने गुज़रे हुए पल का साक्षी होता है। वह उसे महसूस करता है और कविता के ज़रिए या अन्य किसी रचना के ज़रिए कागज पर उतारता है। अंततः एक कविता कभी ख़त्म नहीं होती। वह सदैव कायम रहती है। कविता की बुनियादी प्रकृति ही  ऐसी होती है कि वह धीमी गति से प्रसारित होती है। सीना दर सीना सफर करती है ।‌
कवि को विस्मृत करते हुए कविताओं को सदैव याद रखा जाता है। कविताएं किस समय मूल्यांकित की जाएंगी यह भी निश्चित नहीं होता लेकिन इतना अवश्य है कि एक न एक दिन कविता का मूल्यांकन अवश्य ही होता है और वही कविता की सफलता है। कवि कुंवर नारायण कहते भी हैं –
 
‘तुम्हारा पुनर्जन्म होगा सदियों बाद
 किसी अनुश्रुति में
एक शिलालेख के रूप में
अबकी वर्तमान में नहीं अतीत में
जहां तुम विदग्ध सम्राटों की सूची में
स्वयं को अंकित पाओगे।‘
 
 
कविता का होना मनुष्यता का होना है। कविता का होना संवेदनाओं का होना है। कविता का होना सांसों का स्पंदन है । कविता का होना हमारे जीवन की ज़रूरत है। कविता अगर हमारे बीच रहेगी तभी हम भी इसी तरह मौजूद रहेंगे।
 
       – 12/2, कोमल नगर
बरबड़ रोड़
रतलाम -457001 (म.प्र.)
मो. 9827084966
 

Post a Comment