
प्रिय कवि
विनोद दास
1
गाँठ
एक मीठे समय में
तुमने अपनी बाँह मुझे दिखायीं !
जहाँ एक कड़ी गाँठ थी
चियाँ सी छोटी और कड़ी
फिर तुम मेरी अँगुली पकड़कर
ले गयीं अपनी पिंडलियों के पास
वहाँ भी गाँठ थी
कटहल कोए सी बड़ी और कड़ी
तने पर उभरी भूरी गाँठों की तरह
तुम अपने तन की गाँठें दिखा रही थीं
अपने मन की गुठ्ठल गाँठे नहीं !
शायद तुम्हें डर था !
कि मन को दिखाने से
मैं तुमसे दूर छिटक जाऊँगा
तरबूज के काले बीजों की तरह
हालाँकि सच कुछ अलग था
मैं तुम्हारे मन की नीली गांठों के खुलने से डरता
कहीं उसमें मेरा स्याह चेहरा न झलक जाय
मैं कुछ-कुछ समझने लगा हूँ
दुनिया के दुःख का बड़ा हिस्सा
इन गाँठों में छिपा रहता है
हमारा साथ
टाई गाँठ की तरह है
जो एक सिरे को दूसरे से बाँधे भी रहता हैं
और जरूरत पर बिन उलझे
एक दूसरे को कर देता है मुक्त
लम्बे सफ़र के सहचर की तरह
2
लालसा
वे दिन भी थे
जब हमारी देह के भूगोल के बीच
बच्चे पुल बन जाते
बिस्तर पर
वहाँ अब स्मृतियों की सीली छायाएँ हैं
रीढ़ से उठता है प्राणघातक दर्द
गर्दन से सरककर गीले तकिये बन गए हैं
खामोशी की दीवार
अमरूद का स्वाद स्मृति है
फँस जाते हैं उनके बीज
दाँतों की खोखल में
दिल की नाड़ियाँ
रुँध गयी हैं
रुँध जाता है
हमारा गला
अपनी व्यथा कथा कहते हुए
दवा देकर डॉक्टर कहता है
बस ! दस फीसदी आपकी नाड़ियाँ खुली हैं
दिल तक रक्त पहुँचाने के लिए
मृत्यु आख़िरी स्टेशन है
मृत्यु आ रही है जितनी करीब
उतनी ही बढ़ती जा रही है
पृथ्वी पर रहने की तृष्णा
सूर्यास्त निकट है
हम सैर के लिए तैयार हैं
कुर्सी की पीठ पर टँगी कमीज़ पहनने के बाद
जब जूतों के तस्में बाँधता हूँ
पता नहीं क्यों
काँपने लगती हैं तब मेरी अँगुलियाँ
स्नायु रोगी की तरह
3
जुड़वाँ शिशु
शहतूत की तरह
उम्र पकने के साथ-साथ
हमारी त्वचा
एक सी हो रही हैं साँवली
हमारी झुर्रियाँ की बुनावट इतनी मिलती है
जैसे अनुभवी हाथोंवाले किसी एक क्रोशिये से बुनी गयीं हो
हमारी वाणी में दिखती इतनी संगति
जैसे हमारे पास एक ही शब्दकोश हो
हमारी आह्लाद की तालियों में
एक हथेली तुम्हारी होती है
दूसरी मेरी
कोई औचक भी हमें अकेला देखना नहीं चाहता
अकेला दिखने पर सबकी आँखें पूछतीं
जैसे एक जुर्राब दिखने पर
तुम विकलता से पूछती
दूसरा कहाँ है
कुछ चीज़ें जोड़े में न दिखती
तो अपूर्ण लगतीं
मसलन आँख-कान,दस्ताने-जूते
हम और तुम
बेरंग बिछी चादर पर
मतभेदों के तकियों पर सिर रखकर
हम दिखते साथ-साथ
एक दूसरे की बाँहों पर अपनी बाँह रखे हुए
प्रेम गर्भ से निकले
अबोध जुड़वाँ शिशु की तरह
4
रात की छतरी
आर्द्र रात में
तुम्हारे खर्राटे बरस रहे हैं
टीन छत पर
ओलों की बारिश की तरह
तुम्हें अपने खर्राटे सुनाये नहीं देते
जैसे मृतक देख नहीं पाता
अपनी लाश
दिन की ज़िल्लत
पसीने से तरबतर ब्लाउज की गंध में डूबी
तुम जितनी देर खर्राटे लेती
उतनी ही देर रहती
घर की अदृश्य हिरासत के बाहर
हाथ में ताला लेकर
मैं तुम्हारा पीछा करता रहता हूँ
तुम्हारी नींद में
बौराये ततैये की तरह
तुम्हारी पलकें
गुप्त डायरी के उन गीले पन्नों की तरह चिपकी हुई हैं
जिन्हें खोलते हुए फटने का भय लगता है
तुम्हारे खर्राटे
तुम्हारे दुख और स्वप्न का गुप्त संवाद है
मिर्गी मूर्छित उस औरत की तरह
जो उन्माद में पता नहीं क्या
अगड़म-बगड़म बड़बड़ा रही है
खदबदाती गर्म रात में
घुर्र-घुर्र पंखा चल रहा है
फूल गयी है तुम्हारी मैक्सी पैराशूट की तरह
तुम निश्चिन्त सोती रहो
चादर खींचकर मैं तुम्हें नहीं जगाऊंगा
नींद वह छतरी है
जो तुम्हें बचाती है
दिन भर की खटन से
5
सौत
तुम्हारी कोमल काया में
बसती है एक और स्त्री
तुम्हारी सौत की तरह
वह मुझसे अधिक तुम पर दृष्टि रखती है
वह हर पल तुम्हें लांछित करती रहती है
कि तुममें क्या नहीं है
और क्या होना चाहिए
किसी के सामने
जब तुम रबरबैंड निकालकर लहराती हो
अपने लम्बे काले केश
वह सौत तुम्हें बारहा बरजती रहती
चेतावनियों की तरह
तितलियों की तरह
तुम्हारी स्वाधीन उड़ान उसे नहीं भाती
उसकी तन जातीं भृकुटियाँ
तुम्हारी झरती हँसी देखकर
वह खो देती अपना आपा
देने लगती सीख
पुरखिन सास की तरह
विवेक के झीने आलोक में इसे गौर से देखो
यह स्त्री कोई और नहीं
सदियों से तुम्हारे भीतर छिपा
एक बहुरूपिया पुरुष है
यह सिखाता रहता है तुम्हें
अच्छी स्त्री बनने का सबक
इसके पास
मगरमच्छों की तरह
तुम्हारा वजूद निगलने के लिए
असंख्य व्रत-तीज-त्यौहार हैं
आभूषणों की हथकड़ियाँ हैं
तुम्हारे पंख कुतरने के लिए
धारदार नैतिक कैंचियाँ हैं
तुम जैसी हो
जैसी बनना चाहती हो -बनना
बस ! उनकी अच्छी स्त्री के झाँसे में मत आना
उनकी व्याख्या झूठी है
अच्छी स्त्री महज एक लुभावना विशेषण भर नहीं है
स्वर्ण कलश में रखा एक हल्का विष है
बिना किसी विशेषण के भी अरबों खुश हैं
इस दुनिया में
तुम खुश रहना उस चिड़िया की तरह
जो पानी में अपनी छाया देखकर खुश होती है
प्रेम के मरुप्रदेश में
जब तुम्हारी आत्मा प्यास से होने लगें विकल
मेरी आँखों के जल की तरफ मुड़ जाओ
जैसे प्यासे जाते हैं सरोवर की तरफ़
6
भरोसा
मैं कहता
मेरे पास रूपये नहीं हैं
तुम मान लेती
महँगी दाल की जगह
तुम पकाने लगती सबसे सस्ती भाजी
बैंक चेक पर
बिना पूछे कर देती तुम दस्तखत
जैसे नई भर्ती के समय
बिना पूरा पढ़े
तमाम कागज़ात पर दस्तखत कर देता है बेरोजगार
किसी पर भी इतना यकीन अच्छी बात नहीं है
तुम हमेशा मुझे सन्देह से देखो
मैं हर मनुष्य पर भरोसा करता
लेकिन कोई न कोई यह सिद्ध कर देता
कि मैं कितना गलत था
कुछ घर टूटते
भरोसा खत्म होने पर
कुछ हत्याएँ भरोसा टूटने पर होतीं
भरोसा एकतरफ़ा नहीं होता
जिस खिड़की से छल आता
उसी खिड़की से चला जाता भरोसा
भरोसे की शक्ल मैंने कभी नहीं देखी
लेकिन जब भी मैं तुमसे छल करने को सोचता
मेरे छल के आड़े
मेरी आँखों के सरोवर में
तुम्हारा निश्छल चेहरा मछली की तरह तैरने लगता
7
आभूषण
आभूषण
देह पर तुम्हें बोझ लगने लगे हैं
स्वर्ण कंगन समय पेटी के अँधेरे में
बिसराये प्रेमी की तरह बिसूरते रहते हैं
पायल सुख की तरह कब छोड़ गए पाँव
पता नहीं
असफल कामना की तरह
तुमने उतारकर रख दी हमेशा के लिए
मध्यमा की अपनी अंगूठी
आटा गूँथते समय
जो बन जाती थी तुम्हारी शत्रु
तुम्हारी देह पर अब एक ही आभूषण सजता
नज़र का चश्मा
तुम चश्मे में कुछ और मोहक लगती
मैं लगता कुछ और उम्रदराज़
हमारे फ़्रेमों का रूप रंग मिलता-जुलता
भूलवश तुम कभी मेरा चश्मा पहन लेती
कभी बेखुदी में मैं तुम्हारा
मेरे चश्मे से जब दुनिया तुम्हें धुँधली दिखती
तुम हँसकर छेड़ती
अब मुझे पता चला कि घर की गन्दगी
आपको क्यों नहीं दिखती
खिसियाहट की गीली मिट्टी में लथपथ
पुरुषोचित गर्व में डूबा
तुमसे कह नहीं पाता
कि तुम मेरी एगजास्ट फैन हो
निकालती रहती हो समय का चीकट विषाक्त धुआँ
अनवरत मेरी ज़िन्दगी से बाहर
8
नींद
यह कहना गलत है
यह सिर्फ़ उम्र का असर है
कि हमें इन दिनों नींद नहीं आती
दरअसल मन के कुहराम का समुद्र
तमाम दुनियावी सवाल पूछता रहता
और नींद की संभावनाएँ खत्म कर देता
सोने के पहले
हम उतार लेते अलगनी से कपड़े
बन्द कर लेते दरवाज़े की सिटकनी
गैस बर्नर बन्द है या नहीं
कर लेते तसदीक
जैसे यह हमारी अन्तिम रात हो
और सब कुछ सहेजकर जाना है
दुखों का कम्बल लगती रात
चाँद का आलोक
काल की तरह हमें घूरता रहता है
दाँत भींचकर कराहतीं रहतीं
हमारी बूढ़ी हड्डियाँ
हम सशंकित सुनते रहते
एक दूसरे की साँस
जैसे सुनती रहती है माँ
अपने मरणासन्न बच्चे की दिल की धड़कन
उसकी छाती पर कान सटाकर
रात में
हम कई बार जाते शौच
खाँस कर एक दूसरे को बता देते
कि हम अभी हैं
9
अपमान
मैं मोबाइल में डूबा था
तुम कुछ मुझसे कह रही थी
जब मैंने अपनी आँखें मोबाइल से नहीं हटायी
झनझना कर चली गईं तुम
ना सुनना
अपमान की ऐसी दलदल है
हो जाता है जहाँ प्रेम भी लथपथ
कीचड़ सनी चप्पल की तरह
रसोईं में मिले जले-कटे तुम्हारे सुर्ख ज़ख्म
जल्दी सूख जाते
अपमान के नहीं
अपमान की बारिश में
अबोला
तुम्हारा रक्षा कवच था
बारिश में छिद्रों से भरी छतरी की तरह
तुम्हारे पास
अपमान के असंख्य दैनिक संस्करण थे
अपने जबड़े भींचे
मुठ्ठियाँ कसे
तुम बुदबुदाती हुई भूनती रहती अपना अपमान
कड़ाही में सब्ज़ी के साथ
तुम्हारी सब्ज़ी मैं रोज़ खाता
मुस्कराकर कहता “ अच्छी है ”
विनोद दास जी समकालीन समय के महत्वपूर्ण कवि हैं, उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में एम.ए. किया। कविता के अतिरिक्त कहानी, भेंटवार्ता, आलोचना और अनुवाद में भी उनकी गहरी दिलचस्पी रही है। उनकी कहानियाँ ‘आठवें दशक के लोग’, ‘काफ़िला’ और ‘कथान्तर’ कथा-संकलनों में आयी हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए वे प्रख्यात साहित्यकारों और कलाकारों से साक्षात्कार करते आ रहे हैं। उनके आलोचनात्मक लेख भी प्रकाशित होते रहे हैं। उन्होंने अंग्रेज़ी के माध्यम से काफ्का, किपलिंग, सोल्ज़ेनित्सिन आदि ख्याति प्राप्त कथाकारों और कई यूरोपीय कवियों की कृतियों को हिन्दी में प्रस्तुत किया है। साथ ही कई हिन्दी कविताओं के अंग्रेज़ी में अनुवाद भी किये। सम्प्रति वह राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक में कार्यरत हैं।