प्रिय कवि

 युद्ध के इस कठिन दौर में यह जरूरी है कि हम उनकी आवाज को रेखांकित करें, जो इस आपदा से गुजरे हों। यही कारण है हमने राएद वाहेश (Raed  Wahesh) की कविताएं प्रस्तुत की जा रही हैं। राएद वाहेश (Raed Wahesh) ने दो बार निर्वासन झेला है, एक बार फिलीस्तीन से, दूसरी बार सीरिया से। RS

 

 

राएद वाहेश (Raed  Wahesh)

दमिश्क में पैदा हुए राएद वाहेश एक फिलिस्तीनी-सीरियाई लेखक, कवि और पत्रकार हैं। वाहेश अपने लेखन में सीरियाई क्रांति का समर्थन करते रहे हैं। वाहेश 2013 में जर्मनी चले गए और अब हैम्बर्ग में रहते हैं। वाहेश ने विभिन्न अरबी भाषा के समाचार पत्रों और वेबसाइटों के लिए सांस्कृतिक संपादक के रूप में काम किया है। आपके अब तक पांच कविता संग्रह, एक गद्य खंड (प्रोज़) और एक उपन्यास प्रकाशित हो चुका है। कवि राएद वाहेश की यहां प्रस्तुत कविताओं का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद संतोष कुमार ‘सिद्धार्थ’ द्वारा किया गया है

 

निर्वासित की गलियां

 

गली न० 1

 

मैं जानता हूं सुबह का 10 बजा है
जानता हूं जून की 8वीं तारीख है
लेकिन मैं निश्चित नहीं हूं कि इन दोनों तथ्यों में कोई सही भी है

 

मैं आश्वस्त नहीं
अगर ये बगीचा है !
और मैं नहीं जानता कि फूलों में बारूद की गंध क्यों है !
और वो खिड़कियां हैं क्या
या कि मृतकों की आंखे ?
क्या यह बरसात है या किसी की यातना रिस रहीं बूंदों सी ?
और वह जो तेजी से आसमां को जाती हुई चीज है
काली वज्रपात सी
कोई पक्षी है या किसी की चीत्कार?

 

मैं जानता हूं यह 10 है
यह आज की हो या पिछले कल की सुबह
या साल भर पुरानी कोई सुबह
पर वास्तव में यह सुबह है ही नहीं
कि जब सूरज ही अपहृत हो
और बाकी बची रौशनी
अक्षम हो.. असहाय हो
चुकाने में फिरौती उन बादलों को

 

मैंने जान लिया है यह 10 है
कई घंटों से या दिनों से
लेकिन पता नहीं मैं कहां हूं
कि न तो कल बीतता है
और न ही वर्तमान नज़र आता है
अस्तित्व में यह सिर्फ सुबह का 10 है

 

जो बदल देता है अन्य सभी को महज अटकलों में।

 

गली न० 2

 

जाहेर अब्दुल बाकी के लिए

 

मैं, मेरा दोस्त और मलिक इब्न अर–रायेब*
तीनों एक हाईवे पर कार से जा रहे थे
कुहरा इतना
कि अंतर कर न सको
वह कार है या ऊंट
रेत है या बर्फ

 

किसी ने एक शब्द भी नहीं कहा मुझे,
मेरे दोस्त से और मलिक इब्न अर–रायेब से
तस्वीरें भी खामोश थीं हमारी
पर कुछ आवाजें थीं फ्रंट मिरर में
झिलमिलाती हुई
बार-बार पलकें झपकाती छह आंखों की

 

जब हम सभी आश्वस्त थे
कि अब तो रौशनी रहेगी ही चांदनी की
तभी बादलों ने रंग भरा और गाया
भावपूर्ण गीत अर–रायेब का
और यह सब
रात की जली चिट्ठियों का पृष्ठ बन कर रह गया
मैंने…और मेरे दोस्त ने महसूस किया
कि उस अंतहीन पथ पर
जब हमने दफ्न किया था अर–रायेब को
उसने भी हमें दफ्न किया था उसी भावगीत में।

 

*मलिक इब्न अर–रायेब सातवीं शताब्दी के अरबी कवि थे।  वह लुटेरे के तौर पर भी प्रसिद्ध रहे जो अमीरों से लूटकर गरीब लोगों में लूट का धन बांटते थे। बाद में वह इस्लामिक आर्मी से जुड़े और पर्सियन विद्रोह के खिलाफ लड़ाई लड़ी। मिलिट्री सेवा से घर लौटते समय उन्हें एक सांप ने डस लिया। और जिस समय जहर उनके शरीर में चढ़ रहा था, तभी उन्होंने अपनी एकमात्र कविता लिखी जो आज भी The Elegy of the Warrior (योद्धा का शोकगीत) के तौर पर दर्द सहने की अभिव्यक्ति की बेजोड़ मिसाल है। इसे अरबी भाषा की कविताओं में मास्टरपीस का दर्जा मिला हुआ है। 

 

गली न० 3

 

(कमांडर का प्रेत) :

“काट डालो उनके वक्षस्थल
चाकूओं से गोद डालो और करो हजार घाव
उनके शरीर में

 

और भेजो इनकी तस्वीर
उनके बहादुर भाइयों को”

(सैनिक का प्रेत):

 

“मेरे मालिक,
पर इन मृतकों की तस्वीर हम उन्हें कैसे दिखायें
उन्हें जो पहले से ही मर कर दफ्न हैं”

(कमांडर का प्रेत)”

खोद  दो ये तस्वीरें
उनकी कब्र के यादगारी पत्थरों में !”

 

गली न० 4

 

मेरी मां गयी थी
मेरे ही कैफे पर
वह वैसे ही बैठीं जैसे नियमित ग्राहक हों
चाय मंगवाया
बहुत धीरे – धीरे से चाय की चुस्कियां ली
पर उस दौरान उनकी आंखें ढूंढ रहीं थी
मेरे प्रेत को !

 

गली न० 5

 

वह रोज-रोज खोता जाता है
अपनी सहनशीलता
जब वह देखता है गली का छोर
वह छोर जो अब नहीं जाता पर्वतों तक
एक मिनट बाद
उसे याद आता है कि वह तो छोड़ चुका वह शहर
जिसकी सारी गलियां पर्वतों तक जाती थीं

 

वह खो देता है अपना दिशा-सूचक यंत्र
और सीख लेता है
कि जिसने भी खो दिया है पर्वत
वह स्वयं को भी खो चुका है
वह मान लेता है उस “श्राप” को
कि अपने पर्वतों (उच्च आदर्श) को खोने वाले
जिन्दा रहते तो हैं मगर पर्वतों पर नहीं
बल्कि पर्वतों की मृगतृष्णा में।

 

गली न० 6

 

हड्बड़ाहट में डरते हुए
सैनिकों ने निरीक्षण गेट खोला
व्यंग्यात्मक हंसी लिए उस महिला प्रेत के लिए
वह बेधड़क पार कर गयी
उसके गायब होते ही वे सब फुसफुसाये:
“मेरा मुंह कुचला गया उसकी वजह से
मेरे दांत तोड़े गये उसकी वजह से
जबड़े से गोली पार हुई उसकी ही वजह से”
लेकिन वह वैसे ही रही
बेशर्म और व्यंग्यपूर्ण.

 

(संतोष कुमार ‘सिद्धार्थ’ द्वारा अंग्रेजी से हिंदी में अनूदित)

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