
प्रिय कवि
हेमंत देवलेकर
1
आदमी और गेंहू
अपने हुलिये की जानकारी देते
जब आया सवाल रंग का
मैंने कहा – गेहुँआ
पहली बार मुझे महसूस हुआ
मेरी जगह गेहूँ का एक दाना खड़ा है
दुनिया का अकेला जीवित ईश्वर
कौतुहल से देखा अपने आसपास
हर कोई गेहूँ था
घर और इमारतें गेहूं की बालियाँ
मुझे गहरी आश्वस्ति हुई कि पृथ्वी इस वक़्त
गेहूँ से भरा खलिहान होगी
क्या गेहूँ से मेरा कोई रक्त-संबंध है –
गेहूँ के पेट की लक़ीर
मुझे अपनी पीठ पर दिखाई पड़ी
पहली बार अपनी त्वचा को एक खोजी की नज़र से देखा :
कितनी शताब्दियाँ लगी होंगी गेहूँ को
ढाल की यह परत फैलाने में
मैंने गेहूँ को अपने पूर्वज की तरह याद किया
गेहूँ होने की शर्त है – पिसना
और आदमी की नियति भी यही
हर आदमी
अपनी-अपनी पृथ्वी कंधे पर उठाए
पसीने से तरबतर चल रहा
देखो, तो वह एक साबुत गेहूँ दिखाई देगा
जबकि है वह पिसता हुआ आटा
गेहूं की तरह मुक्ति आदमी को सुलभ नहीं
रोज़-रोज़ पिसते हुए, हर दिन बच जाना है थोड़ा
यह जो दिख रहा है सारा का सारा इंद्रजाल
सब कुछ आटा है आदमी का
आदमी अपना ही आटा खाता है
गेहूँ की तरह फिर खड़े होने के लिए
मैंने सोचा मानव जाति की तरफ़ से
आभार प्रकट कर दूं गेहूँ का
मैं उसकी लहलहाती फ़सल के बीच खड़ा था
वहाँ एक रहस्यमय चुप्पी थी
फ़सल का हर एक दाना
भय और आश्चर्य से घूर रहा
मैं सहमा, इस तरह तो हम ब्लैकहोल को देखते हैं !!
पूँजीपति
कोरस – पूँजीपति पूँजीपति पूँजीपति
एक – क्या मतलब है इसका?
दो – जो भी हो, हमें बहकावे में नहीं आना चाहिए
तीन – मतलब कौन नहीं जानता ( विक्षिप्त हँसी) लेकिन यह मज़ाक का वक़्त नहीं।
कोरस – पूँजीपति पूँजीपति पूँजीपति
एक – कोई तो बताओ इस लफ्ज़ के मायने
दो – यह एक तिलिस्मी शब्द है. सरासर झूठा।
तीन – ( विक्षिप्त हँसी) बिल्कुल अलादीन के चिराग़ की तरह
कोरस – पूँजीपति पूँजीपति पूँजीपति
एक – तुम लोग नहीं बताओगे तो उन्हीं से जा पूछूँगा
दो – जैसे खोखला है यह शब्द खोखले हैं वे भी
तीन – वे फोर्ब्स की सूची में सबसे ऊपर छपा अपना नाम दिखाएंगे ( विक्षिप्त हँसी)। बस, इससे ज्यादा कुछ नहीं।
कोरस – पूँजीपति पूँजीपति पूँजीपति
एक – याने उनसे कोई मदद नहीं मिल सकेगी?
दो – वे व्यापार करते हैं, मदद नहीं करते
तीन – वे हर जगह केवल मुनाफ़ा देखते हैं। उफ्फ़…घिन आती है उनके बारे में सोचकर. खुदा के लिए बंद करो ज़िक्र उनका।
कोरस — बच्चे ले आये बच्चे ले आये बच्चे ले आये
एक – वो देखो, बच्चे बनाकर ले आये खीर और दलिया
दो – बच्चों ने बची हुई गुल्लकें भी फोड़ दीं, वह बच्ची खिलौने बाँटने लगी है।
तीन – बाँटते वक़्त कितनी ख़ुशी है उनके लहूलुहान चेहरों पर।
जीते जी यह यह मंज़र देखते तो कितना अच्छा होता।
चलो, हम ख़ुशबू तो ले ही सकते हैं
(ग़ज़ा की तीनों नन्ही आत्माएं उड़ीं
और खीर के भगोने की भाप में तैरने लगीं। कोरस आत्माएं थोड़ा सा मुस्काईं)
तानपूरे पर संगत करती स्त्री*
पहले पहल उसी को देखा गया
सांझ में चमके इकलौते शुक्र तारे की तरह
उसी ने सबसे पहले
निशब्द – नीरव अंतरिक्ष में स्वर भरे
और अपने कंपनों से
सन्नाटे पर बुहार दी झाड़ू
और सींच दिया
ताकि बोया जा सके जीवन
वह अपनी गोद में
एक पेड़ उल्टा लिए बैठी है
इस तरह उसने एक आसमान बिछाया है
उस्ताद के लिए
वह हथकरघे पर
चार सूत का जादुई कालीन बुनती है
जिस पर बैठ राग उड़ान भरता है
हर राग तानपूरे के तहखाने में रहता
वह उंगलियों से उसे जगाती है
नहलाती, बाल संवारती
काजल आंजती, खिलाती है
अपनी रचना को मंच पर फलता -फूलता देख
वह नेपथ्य से हौले हौले मुस्कुराती है
उसे न कभी दुखी देखा
न कोई शिकायत करते
वह इतनी शांत और सहनशील
कि जैसे बिम्ब हो पृथ्वी का :
कितनी निर्लिप्तता है उसमें
कि दर्शकों के देखते – देखते
ख़ुद को ओझल कर लेती है।
लोरी
बहुत चुपके से एक रात
लोरी के गायब होने का अंदेशा हुआ
हैरान था चंदा मामा कि बच्चों के पर्यावरण में
अचानक ये कैसा बदलाव आया कि
पलकों पर मंडराने वाली एक तितली खत्म हो गयी
मेरे बहुत ढूंढने पर एक सुराग मिला आख़िरकार
लोरी ज़िंदा ज़रूर थी
पर उसका हुलिया और आत्मा बिल्कुल ही बदले हुए थे
उसमें अब कोई संगीत नहीं था बाक़ी
थपकी नहीं थी, नींद का बुलावा नहीं था
जितने भी शब्द थे, वे सब
गुड टच – बेड टच को समझा रहे थे
हिफाज़त अपनी कैसे करना, बता रहे थे
ये कैसी रातें हैं कि दादी – नानी
बच्चियों को सुलाते सुलाते
जगाने लगी हैं
दुश्मन
“इतनी बड़ी भारी फ़ौज कहाँ जा रही है?”
“देश की सीमाओं पर तैनात होने जा रही है”
“ये टैंक, बंदूकें, गोला बारूद मिसाईलें किनके लिए हैं”
“देश के दुश्मनों को खत्म करने के लिए”
“देश के दुश्मन कहाँ हैं?”
“सीमाओं के उस पार हैं”
(तभी)
“हाय!! वो देखो, एक नन्ही बच्ची की
खून में लिथडी नंगी लाश…
चलो फौजियों से कहें हथियार लेकर
आ जाएं देश के भीतर”
“कैसी अधर्मियों- सी करते हो बातें!
दुश्मन कभी भीतर नहीं हो सकता”
“क्यों??”
“देश के भीतर सब लोग
भारत माता की जय !!
बोलते हैं हर रोज़”
हार्मनी
सफ़ेद और काला अलग रहेंगे
तो नस्ल कहायेंगे
मिलकर रहेंगे तो संगीत
हारमोनियम
साहचर्य की एक मिसाल है
उंगलियों के बीच की ख़ाली जगह
उंगलियों से भर देने के लिए है
हेमंत देवलेकर
भोपाल
7987000769
हेमंत देवलेकर, 11 जुलाई, 1972,तीन कविता संग्रह – ‘हमारी उम्र का कपास’, ‘गुल मकई‘, ‘प्रूफ़ रीडर‘ प्रकाशित
राजेश जोशी – आरती द्वारा चयनित- संपादित ‘इस सदी के सामने’ में शामिल
अंग्रेज़ी में अनुदित काव्य संचयन PERENNIAL में शामिल
मप्र हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी सम्मान
विहान ड्रामा वर्क्स भोपाल में रंगकर्म करते हुए अभिनय, गीत – संगीत, प्रशिक्षण में सक्रिय