प्रिय कवि

मौलाना जलालुद्दिन रूमी

अंग्रेजी से हिन्दी में अनुदित किया है संपादिका रति सक्सेना ने।

कवि के रूप में रूमी कभी भूत काल में नहीं गए, उनकी काव्य शक्ति का जादू पूरब- पश्चिम दोनो में आज भी लोगों के सिर चढ़ कर बोलता है। मौलाना जलालुद्दिन रूमी का जन्म 1207 में फारस ( वर्तमान अफगानिस्तान ) के बाख शहर में हुआ था, बाद में वे कोन्या शहर ( वर्तमान तुर्क )। रूमी रहस्यवादी कवि हैं, उनका जीवन भी उनकी रुबाइयों की तरह ही रहस्यवादी रहा है। कहा जाता है कि अमीर खानदान से सम्बन्ध रखने वाले रूमी एक फकीर शख्स के मित्र व चेले बन गए और वहीं से उनकी काव्य यात्रा शुरु हुई। रूमी की कविता में वह ताकत है जो आज की युवा पीढ़ी को भी मोह लेती है।

 

हरमशिवा ‍ पारसी मूल के यहूदी हैं जो इरान में पैदा हुए और अमेरिका में बस गए। शाहरम शिवा को रूमी की कविता को पश्चिम में लोकप्रिय बनाने का श्रेय दिया जा सकता है। वे रूमी के कविताओं को गीत व अभिनय के साथ विचित्र अन्दाज में पेश करते हैं जिससे युवा पीढ़ी भी आकर्षित होती है। निम्नलिखित कविताएँ शिवा के नेट से ली गईं हैं , इनका अनुवाद शिवा ने फारसी से अंग्रेजी में किया। अंग्रेजी से हिन्दी में अनुदित किया है संपादिका रति सक्सेना ने।

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मुहब्बत अमर है, रहेगी अमरत्व तक
प्रेमी छूट जाता है जिन्दगी और मुहब्बत के बन्धन से
कल जब कयामत आएगी
हर दिल जो प्रेम डूबा नहीं, छूट जाएगा बन्धन से

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तुमने उसे चाँद कहा, गलत, चाँद की तुलना ही कहाँ?
तुमने उसे राजा कहा, गलत, राजा की कोई तुलना कहाँ?
न जाने कितनी बार तुमने कहा कि “तुम देर से उठे”
जब सूरज मेरे साथ तो वक्त का क्या मतलब मेरे लिए?

 

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तुम्हारी मुहब्बत ने मेरी देह को उठा दिया आसमान तक
और तुमने ऊपर उठा दिया दोनों जहाँ से
मेरी चाहत है कि तुम्हारा सूरज मेरी बरसाती बून्दों तक पहुँचे
जिससे मेरी रुह बादल बन ऊपर उठे

 

गजल

 

ओ रुह
तू बड़ी चिन्ता करे
तूने अपनी शक्ति देख ली
तूने देख ली अपनी खूबसूरती
देखे तूने अपने सुनहरे पंख
क्या किसी से हैं कम?
तू ही सच है

 

ओ रुह , ओ रुह , ओ रुह
तू ही रक्षक है
प्रेमियो की संरक्षक
सुल्तानों की सुल्तान
किसी भी राज्य का
तू क्यों चिन्ता करे

 

तू शान्त हो मछली सी
चली जा अपने समन्दर की ओर
अब तू पानी में है
जिन्दगी की आग के परे

 

तू क्यों चिन्ता करे

जा सो जा

जा सो जा
तुझे इजाजत है
तेरे दिल में मुहब्बत नहीं
जा सो जा

 

उसकी मुहब्बत, उसका दुख
खासोखास हैं हमारे लिए
तू जा सो जा

 

मैं जल रहा हूँ
मुहब्बत के दर्द में
तेरे दिल में ऐसी कोई चाहत नहीं
तू जा सो जा

 

मुहब्बत की राह के हैं
बहत्तर परतें और अगिनत तहें
तेरा प्यार तेरा धरम
सब दिखावा, और धोखा
तू जा सो जा

 

हमने तो दे दिया अपने को
मुहब्बत के हाथों मे
इँतजार है अब उसकी बोली का
तू रहा है केवल अपने हाथ
तू जा सो जा

 

मैं पीता हूँ बस दर्द और अपना खून
तेरे लिए सैंकड़ों पकवान
हर खान के बाद एक मीठी नीन्द
तू जा सो जा

मैंने फाड़ दी अपनी आवाज की चादर
छोड़ दी उम्मीद बतियाने की
तू तो अभी तक नंगा नहीं
तू जा सो जा

 

निम्नलिखित रुबाइयाँ बदियोज्जामन फौरौजानफर द्वारा सम्पादित ” कोलियात ए शम्स ए तबरिजी” से ली गईं हैं इनका अनुवाद ” जरा हौशमन्द ” ने अंग्रेजी में किया। अंग्रेजी से हिन्दी में अनुदित किया है ‍रति सक्सेना ने।

 

‘#1958, from Rumi’s Kolliyaat-e Shams-e Tabrizi

 

मैं हवा, तुम पत्ती, कैसे न थरथराओगे,
मानोगे नहीं कहना? मैंने मारी कंकड़ी
फोड़ दी गगरी, तुम कैसे नहीं बदल पाओगे
हजारों जवाहरतों में, हजारों समन्दरों में?

 

#544, from Rumi’s Kolliyaat-e Shams-e Tabrizi

 

तुम जो हर कठिनाई को बनाते हो आसान
फूल पत्ते, बगीचे, और दरख्त पान करते तुम्हारा मधु उपहार,
गुलाब मदमत्त है, काँटे स्वप्न में लीन
एक प्याला और दो, वे आ मिलेंगे तुमसे सुरा नद में

 

#1993, from Rumi’s Kolliyaat-e Shams-e Tabrizi

मैंने तो माँगा बस एक बोसा, तुमने दे दिए छह
कौन है गुरु तुम्हारा, जो हो इतने प्रवीण ?
इतने गहन अच्छाई के स्रोत, दयालु
जो तुमने दुनिया को उबारा , हजारो बार

 

#1976, from Rumi’s Kolliyaat-e Shams-e Tabrizi

मैं, मैँ नहीं, तुम तुम नहीं , तुम मैं भी नहीं
हालाँकि तुम तुम हो, मैं, मैं हूँ, फिर भी तुम मैं हो
हे खौरासन की खूबसूरती, मैं हूँ, तुम्हारे कारण
पशोपेश में हूँ कि क्या तुम मैं हो, मैं तुम हो?

#1976, from Rumi’s Kolliyaat-e Shams-e Tabrizi

यदि तुम ही मेरी पुकार का जवाब ना दे सके
अपनी खूबसूरत शहद सी आवाज में तो कौन देगा?
ओ दुनिया के चरवाहे ! आत्मा के पनाह !
तुम नहीं तो कौन ही बचाएगा भेड़िये से ?

 

#1923, from Rumi’s Kolliyaat-e Shams-e Tabrizi

प्यार में इस कद पागल नही होता मैं तो
शायद तुम्हारे दर पर खड़ा भी नहीं होता
अब मत कहना कि” चले जाओ मेरे दर से!”
मेरा अस्तित्व ही मिट जाएगा दर से हटते

#1925, from Rumi’s Kolliyaat-e Shams-e Tabrizi

 

शेरवानी पर से धूल झाड़, उड़ता हूँ ऊपर को
यदि महसूस कर सका अपनी पूर्णता मैं उड़ सकूँगा
आसमान में रिक्त व हल्का होकर
मेरा मस्तिष्क पहुँचेगा सातवीं जन्नत में

#1957, from Rumi’s Kolliyaat-e Shams-e Tabrizi

 

और कितनी देर तक जलता रहूँगा शमा की मानिन्द?
और कितनी देर तुम मेरे से दूर जाते रहोगे?
और कितने दोस्त मुझसे शर्मसार होंगे?
और कितना दर्द मेरा ? कितनी देर रहोगे तुम आजाद?

#1913, from Rumi’s Kolliyaat-e Shams-e Tabrizi

 

यदि तुम हो ईमानदार, रहस्यों के रखवारे
दिल खोने के खिलवाड़ से मत हो दूर
यह खेल है, पर इसकी आग इतनी सच्ची
कि जल जाए आशिक खिलवाड़ में भी

#1901, from Rumi’s Kolliyaat-e Shams-e Tabrizi

 

तुम पिरो सकते हो हजारों दिन एक साथ
मेरी आत्मा को इस दर्द से कोई छुटकारा नहीं
तुम हँसते हो मेरी नादानी पर, बड़े ज्ञानी जो हो
पर तुमने कब सीखा पागलपन की हद तक प्यार?

#1897, from Rumi’s Kolliyaat-e Shams-e Tabrizi

 

कल रात तो तुम मुझे छोड़ सो गए आराम से
आज की रात कहाँ गुजारी ओ बेवफा!
कयामत तक कहूँगा कि तुम मेरे साथ थै
अब बताओ तुमने क्या कहा आनन्द लहरी में

 

1873, from Rumi’s Kolliyaat-e Shams-e Tabrizi

 

वह खूबसूरत फुसफुसाई मन्दिम आवाज में
और तुम हो गए पागल, बिना किसी कारण
ओ खुदा! यह कौन सा मंन्त्र, कौन सा जादू
जो पत्थर दिल पर भी चल जाता है ?

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