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सुधांशु मिश्र
1. हे बापू !
गोली मारी मर गये
लिया राम का नाम ।
हत्यारे तो तर गये
तुझे किया बदनाम ।।
यादें केवल रह गयीं
लेने को बस नाम ।
मजबूरी ही हो गया
लेना तेरा नाम।।
हत्यारे तो ख़ुश हुये
मुँह में मीठा डाल ।
मन में जो इक ज़हर था
दिया दिलों में डाल।।
जो तेरे हमराह थे
कुछ दिन थे उस राह ।
अगली नस्ल गुमराह थी
सत्ता ही थी चाह।।
किसने सोची बात ये
ऐसा दिन भी आय ।
हत्यारे सत्ता चढ़ें
झूठे मौज मनाँय।।
ईश्वर अल्ला नाम के
सन्मति का क्या काम ।
धर्म तो बस नफ़रत हुआ
भर सत्ता का जाम।।
2. हे मृत्यु !
अपने किस रूप में मिलोगी
हे मृत्यु !
दुष्ट के साथ के रूप में
अथवा मूर्ख मित्र के रूप में
या घर में छुपा साँप बन कर !
मिलोगी किसी अंतहीन काली रात का रूप धर के
या फिर यश वैभव के तिरस्कार का रूप लिये
अथवा स्मृतिनाश बन कर
या विवेक का अंत बन कर
अपने किस रूप में मिलोगी
बताओ ना !
घुटन असीम होती जाती है
अस्तित्वबोध नष्टप्राय
आत्मरतिक तानाशाह द्वारा शासित
ये भी तो हैं तुम्हारे ही रूप
मृत्यु के स्वरूप !
जिह्वा चिपक जाये तालू से
होठ मानो सी दिये गये हों
हाथ उठ नहीं रहे
प्रतिरोध क्षमता से परे हो गया हो
ये भी तो हैं तुम्हारे ही रूप !
झूठ प्रिय लगने लगे
रक्त में चाटुकारिता प्रवाहित हो अनवरत
नीयत ख़राब हो गई हो
आत्मा बिक जाये
ये भी तो हैं तेरे ही स्वरूप !
कहते हैं लोग
अब तूने सत्य से प्रेम कर लिया है
राज्य के द्रोह में भी है निवास तेरा
असत्य अन्याय के विरोध का भी परिणाम है तू
जन- कल्याण की चाहत भी हो गई है प्रिय तुझे
अपने किस रूप में मिलोगी मुझे
हे मृत्यु मेरी !
3. रामजी की रसोई
रामजी की रोटी
रामजी की दाल
आओ नोंचें
जनता की खाल
रामजी का नाम
जनता की चमड़ी
रामजी का काम
चम्पक की दमड़ी
रामजी की धरती
बन गई इमरती
एक मिनट में महँगी
एक मिनट में सस्ती
रामजी का चन्दन
जनता की गर्दन
पूरा मानमर्दन
रामजी की रसोई
चारों ओर मलाई
चन्दे में उलझी
नेताजी ने खाई
रामजी का कीर्तन
चंदे का बर्तन
नेताजी ने पकड़ा
सेठजी का दामन
रामजी की रसोई
जनता है सोई
भक्तों की अक़ल
गड्ढे में खोई
रामजी का काज
पैसे की आँच
नेता बेग़ैरत
पूरा नरपिशाच
रामजी का चन्दा
भक्तों का फन्दा
नेता है गन्दा
घोड़े का अंडा
ये एक धन्धा
कभी नहीं मन्दा
यही तेरा फ़ण्डा
पेट तेरा हण्डा
रामजी का भगत तू न्यारा
रामजी को हो तू प्यारा !
4. दुजन्मा
वो
इक गाली बन गया
न देखा किसी ने
न समझा किसी ने, बस
रामदास चपरासी
अपने पुरखों सहित ही
इक गाली बन गया !
तीन – तीन बेटियों का बाप
न ख़ुद का घर
न कोई दूकान
न कोई खाप
बस एम.ए की, एक
अदद डिग्री
तीन जोड़ी कपड़े !
कमरे के अंदर
आर्या साहब
बाहर उसका स्टूल
गाली बन गया !
पिता की वसीयत
छोड़ी दो धोतियां
मरी मां की तीन बालियाँ
बेपढ़ी एक अदद बीवी
तीन पढ़ाकू बेटियाँ
तीनों की पढ़ाई का क़र्ज़
इसी बैंक से, और वो
एक गाली बन गया
दुजन्मा !
साहब ने पूछा
इक दिन, अबे
रामदस्वे !
तू दुजन्मा कैसे, बे ?
वो खिसियाया मुसकाया
फिर बोला, सरजी !
जब माँ ने धरती पर उतारा, तो
पहला जनम !
फिर जब अक्षर – ज्ञान, तो
दूजा !
बस
‘फिर मैं गाली बन गया’!
5.
इस अंधेरे में कभी भी क्यों उजाला आयेगा
पूजते हैं जब अंधेरा क्यों उजाला आयेगा
जो नशा तुमने किया है होश क्योंकर आयेगा
हाँ में हाँ करना है तुमको क्यों उजाला आयेगा
राम का बस नाम जपते अर्थ नामालूम है
कर्म जब दशशीष जैसे क्यों उजाला आयेगा
जीभ थी तालू से चिपकी जब लुटी अस्मत यहाँ
फूल से पापी लदा था क्यों उजाला आयेगा
जब कभी सीता हरण था बंध गये थे तेरे कर
बस अकेला था जटायु क्यों उजाला आयेगा
राम तो बस बोल में थे पर बगल में थी छुरी
भक्ति थी जब बस दिखावा क्यों उजाला आयेगा
जब सियासत धन की चेरी और ग़ुरबा लुट रहे
बन गई शिक्षा तिजारत क्यों उजाला आयेगा।
सुधांशु मिश्र
कवि सुधांशु मिश्र एक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जिन्होंने भारत के अनेक प्रमुख समाचार पत्र और पत्रिकाओं से जुड़कर लगभग 45 वर्षों से जीवन को प्रभावित करने वाले विभिन्न मुद्दों को उठाया है, इन पत्र-पत्रिकाओं में पैट्रियट, टेलीग्राफ, ऑब्ज़र्वर ऑफ़ बिज़नेस एंड पॉलिटिक्स, मेल टुडे (इंडिया टुडे ग्रुप) और संडे ऑब्ज़र्वर प्रमुख हैं । इसके साथ ही आपने टेलीविजन और रेडियो पर सामाजिक – राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर कई महत्वपूर्ण कार्यक्रम प्रस्तुत किए हैं । वरिष्ठ पत्रकार सुधांशु मिश्र वर्तमान में जयपुर में रहते हुए प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए फ्रीलांस रूप में कार्य कर रहे हैं, भारतीय और वैश्विक महत्व के मुद्दों पर अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में बड़े पैमाने पर लेखन कर रहे हैं ।