
कविता के बारे में
रमाकान्त रथ जी की मृत्यु हाल ही में हुई है, वे उड़िया के महत्वपूर्ण कवि थे। मेरी उनसे मुलाकात पुरी में हुई थी। उनसे संवाद बहुत ज्ञानवर्धन था।
असफलता ही कविता है (रमाकान्त रथ से एक मुलाकात)
जब मुझे सर्वभाषा कवि सम्मेलन में अनुवादक कवि के रूप में आकाशवाणी का निमन्त्रण मिला तो उसे स्वीकार करने के कई कारणों में से एक प्रमुख कारण था, उड़ीसा के प्रधान कवि रमाकान्त रथ जी से रूबरू होने का पुनः अवसर। गत कृत्या कवितोत्सव (kritya2008) में आपकी उपस्थिति बेहद आकर्षक रही थी। आपका सहज सरल व्यक्तित्व और गहन गंभीर कविता किसी भी कोण से विरोधाभास नहीं पैदा करते हैं, क्यों कि अन्ततः दोनो में मानवीय भावना का प्राधान्य है। कभी-कभी तो आश्चर्य होता है कि सरकारी तन्त्र से इतना जुड़ा होने के बावजूद रथ साहब ने अपने व्यक्तित्व और कवित्व के रस को कैसे सरस रखा। संभवतः कविता के रस ने उन्हें नीरस होने से रोके रखा। मैंने केरल से चलने से पहले ही रथ साहिब को अपने आने का कार्यक्रम बता दिया था, और उनसे मिलने की इच्छा भी जाहिर की, लेकिन आश्चर्य तो तब हुआ जब वे आकाशवाणी की कविता गोष्ठी में वे स्वयं चले आए। हालाँकि उस वक्त उनसे बात करना संभव नहीं हो पाया. किन्तु उनकी सरलता ने मन को मोह लिया। कार्यक्रम के तीसरे दिन मैंने उनके घर जाने का कार्यक्रम बनाया गया। कार्यक्रम के दूसरे दिन हम लोग पुरी जगन्नाथ और कोर्णार्क आदि की यात्रा पर निकल गए थे, अतः बेहद थके थे। यात्रा से लौटने के बाद मैं उन्हें देर रात ही फोन कर पाई। रथ साहिब को साहित्य अकादमी की मीटंग में जाना था। उन्होंने दस बजे आने का वक्त दिया, क्यों कि ग्यारह बजे तक उन्हें निकल जाना था। दिल्ली से आए एक युवा कवि विवेक गौतम ने भी साथ चलने की उत्सुकता दिखाई। उत्साह के कारण हम समय से कुछ मिनिट पहले ही पहुँच गए थे।
आटो वाला नया था, वह रथ साहब की गली में तो पहुँच गया, किन्तु घर नहीं खोज पाया । जब उसने एक दूकान वाले से घर का पता पूछा तो दूकान पर खड़ा एक आदमी नाराज हो गया। वह उसे फटकारते हुए कहने लगा कि अमेरिका तक से लोग उनसे मिलने आते हैं, और तुम उनका घर तक नहीं देख पाए? बड़बड़ाता हुआ वह आटों में बैठकर हमें रथ साहिब के घर तक ले आया और कहने लगा, देखिए अंग्रेजी में नाम लिखा है,आप लोग पढ़ भी नहीं पाए। हम उसकी मानसिकता को समझ रहे थे। वह देश-विदेश में प्रसिद्ध कवि रमाकान्त रथ जी की गली में रहने के सौभाग्य को यूँ ही नहीं खोना चाहता था। रथ साहब का घर दुमंजिला है। घर के बाहर एक बगीचा है जो बेहद खूबसूरती से सजाया हुआ है। छोटे-छोटे पौखर से बनाए गए, कलात्मकता बगीचे के कोने-कोने में झलक रही है। हालाँकि दरवाजे पर काम चल रहा था, किन्तु गन्दगी का नामोनिशान तक नहीं। हमने काम करते एक ने एक मजदूर से पूछाः – रथ साहिब कहाँ रहते हैं, ऊपर या नीचे के माले में? उसने ऊपर की और इशारा किया। हमने सीढ़ी से ऊपर जाने लगे तो लगा कि सीढ़ी सीढ़ी पर कविता बिछी है।
निसन्देह यह कविता रथ साहिब की नहीं, बल्कि उनकी पत्नी की है। हर सीढ़ी पर कुछ ना कुछ ऐसा कलात्मक था जो गृहपत्नी के सौन्दर्य प्रेम और कलात्मकता को बखान कर रहा था। जब हम ऊपर पहुँचे तो रथ साहिब तैयार होकर हमारा इंतजार कर रहे थे। साहित्य अकादमी की मीटंग के कारण उनके पास समय की बाध्यता थी। हमारे बैठते ही श्रीमती रथ बाहर आई और हमें नाश्ते के लिए आमन्त्रित किया, तभी हम समझ पाए कि रथ साहिब नाश्ते पर हमारा इंतजार कर रहे थे। श्रीमती रथ ने बेहद स्नेह से आग्रह कर करके हमें नाश्ता करवाया। मैं नाश्ते के साथ- साथ उनके घर को भी देख रही थी, बेहद ही स्नेह से सजाया हुआ घर, एक गृहिणी की सफलता का पूरा नमूना। पूरी और आलू की सब्जी और बड़े से रसगुल्ले के गरमागरम नाश्ते के बाद हमे हमने रथ साहिब से कविता के बारे में बात आरंभ की। आपने अपने विचार बेहद कम शब्दों में रखे, लेकिन जो कहा वह हमारे लिए काफी कुछ नया था-
” कवि के लिए कविता उसका अपना भावलोक है। लेकिन फिर भी कविता उसकी सफलता नहीं, बल्कि असफलता है। हालाँकि साहित्य की हर विधा असफलता से जुड़ी होती है किन्तु कविता के क्षेत्र में असफलता पूरी तरह से रहती है। और कवि को इस असफलता का सामना बड़े साहस के साथ करना चाहिए। जब तक असफलता को स्वीकरने की क्षमता ना हो, कोई भी व्यक्ति कवि कहलाने योग्य नहीं होता। ”
साहित्य के स्तर की बात करने पर रथ सहिब ने वही जवाब दिया जो कि हम सब महसूस करते हैं।
“साहित्य का स्तर गिरता जा रहा है, यहीं नहीं समाज में इसकी जगह भी कम होती जा रही है। अब सामाजिक कार्यक्रमों में लोग राजनेताओं को बुलाते हैं, साहित्यकारों को नहीं। इसलिए कवि को इस तिरस्कार के साथ जीना सीखना पड़ेगा। लोगों मे पढ़ने की आदत कम होती जा रही है, किस्से-कहानियाँ तो लोग पढ़ भी लेते हैं,किन्तु कविता के पाठक नहीं के बराबर हैं। खेल, फिल्म आदि में जो चकाचौंध होती है, उसका मुकाबला साहित्य नहीं कर सकता है। आज क्रिकेट के खिलाड़ी को जो सम्मान है, वह क्या किसी साहित्यकार को मिल सकता है? इसलिए कवि को तिरस्कार के साथ जीने की आदत होनी चाहिए। तिरस्कार के साथ जीना कठिन भी नहीं। हर जगह तो तिरस्कार का सामना करना पढ़ता है, भगवन से लेकर प्यार तक..” इतना कहते कहते रथ साहब के चेहरे पर चुहुल भरी हँसी छा गई। भगवान कब नहीं करता तिरस्कार और प्यार तो है ही तिरस्कार, समाज के द्वारा तिरस्कार भी जिन्दगी का अहम हिस्सा है। इसलिए लेखक को तिरस्कार सहने की आदत होनी चाहिए। उसे तो उस तिरस्कार का स्वागत करना चाहिए जो उसे लेखक बनाए रखने में सहायक हो।”
जब हमने उनसे कविता समकालीन परिवेश के बारे में पूछा तो वे कहने लगे कि कविता में आज भी काफी संभावना है, किन्तु कितने लोग उसका लाभ उठा पाते हैं। लोगों की जरूरते बदल गई हैं, कविता अब जिन्दगी में उतना स्थान नहीं रखती है। लेकिन कुछ पागलों के कारण आज भी जिन्दा है। और जब तक पागलपन रहेगा, कविता जिन्दा रहेगी।
रमाकान्त जी अल्प भाषी हैं, अतः उनका इतना बोलना भी काफी था, बाकी कुछ तो उनकी कविताओं बोल रही थीं, जो उन्होंने मुझे दीं।
उनकी एक कविता “शब्द” का मैंने पढ़ते पढ़ते अनुवाद कर डाला- हँलाकी रथ साहिब ने अनुवाद के लिए विशेष रूप से कहा था कि केवल खराब कविताएँ ही अनुदित की जा सकती हैं। इसलिए मैं यह ही कहना चाहूँगी कि यह एक अच्छी कविता का खराब अनुवाद है।
उन हरे शब्दों को संभाल कर रखना
जो मैंने तुम्हें दिए थे, यदि दिन ज्यादा गरम हो तो
छायादार जगह में रखना
इस बात को बिल्कुल मत भूलना,
न जाने कितनी अनसोई रातों के बाद
मैंने इन्हें बटोरा हैं युवत्व के वन से
यदि ये मुरझाकर सूख गए तो
मेरी स्मृतियों की न जाने कितनी गलियाँ
रेत के नीचे दफन हो जाएंगी।
नीले शब्दों को अपने सपनों मे रख लेना
इनमें जादुई शक्ति है
जैसे ही तुम सोओगी, ये तुम्हे बादल पर बैठा कर
उन जगहों में चलेंगे,जहाँ तुम बरसों पहले घूमी थीं
और उन जगहो में भी,जिनके बारे में तुम
जानती भी नहीं,
वे तुम्हे मिलवाएंगे राक्षसों से
और बिजली पर सवार देवी से,
वे मुस्कुरा कर कहेंगी
” तुम अब घर लौट सकते हो,
प्रसन्न रहो, और आयुष पाओ”
ये तुम्हारी पढ़ने की मेज पर
वे खत रखेंगे जो तुमने लिखने के लिए सोचे होंगे
क्या तुम्हें कागज, कलम और वह वक्त मिल गए
जो तुम्हे कभी नहीं मिला।
और इन लाल शब्दों की बात है तो ये मैंने
अपने खून से लिखे हैं
अपने आप से बहस करते हुए
कि इन्हें अपने पास रखना है या दे देना है
कि वक्त गुजर गया
और गहरे लाल अक्षर फीके पड़ गए
ऐसा नहीं कि मेरे सारे शब्द
एक ही रंग के हैं
कुछ दो या ज्यादा रंग के है
तुमने कभी दिन के वक्त हँसी नहीं सुनी
या फिर रात के वक्त सिसकियाँ?
क्या कभी साँस आह में नहीं बदली?
क्या कभी ऐसा नहीं हुआ कि तुम्हारे
चारों तरफ लिपटा सन्नाटा
किसी जानी पहचानी आवाज में बदल गया हो?
तुम्हें दिए गए हर शब्द का
प्रतिरूप रख लिया है मैंने अपने पास
हो सकता है कि तुम किसी दिन आकर कहो,
“तुम्हारे दिए शब्दों में कुछ शब्द
मिल नहीं पा रहे हैं, उनके खोने से मैं
पूरी तरह से दरिद्र बन गई हूँ”
उस दिन मैं अपने खजाने में से कुछ शब्द
निकाल कर दूँगा, और कहूँगा कि
” इस बार संभाल कर रखना, यदि तुमने
फिर से खोया तो
मैं नहीं होऊँगा, तुम्हें वह देने को जो
तुमने खोया है…
प्रस्तुतिः- रति सक्सेना