कविता के बारे में

युवा कवि मोहनमुक्त युवा लेखक कमल मेहता

 

हिंदी दलित कविता में ओमप्रकाश वाल्मीकि और मलखान सिंह के बाद एक ठहराव सा आ गया था। मैं तो दलित साहित्य की मरनासन्न स्थिति को महसूस करने लगा था क्योंकि वह एक ही कीली के चारो और घूम रही थी। एक वितृष्णा सी हो गई थी दलित कविता–संकलनों से। ढेरो कविता-संकलनों में से दो-चार संकलनों में ही कवि का बौद्धिक श्रम दिखाई देता था। लेकिन जब मोहन मुक्त का कविता संकलन “हिमालय दलित है” आया तो मेरी जान में जान आई। मुझे ऐसा ही महसूस हुआ, जैसे निराहार तपस्या में रत मरनासन्न बुद्ध को सुजाता की खीर खाकर गात में प्राण का अनुभव हुआ। प्राण से ध्यान संभव हुआ और ध्यान से सिद्दार्थ को संबोधन आया। मोहन मुक्त ने मरनासन्न दलित कविता में नए प्राण डाल दिए। मोहनमुक्त दलित कविता के लिए संजीवनी बनकर आये है, जिन्होंने दलित कविता को गर्व करने लायक बनाया है। अब मोहनमुक्त का दूसरा कविता संकलन “हम खत्म करेंगे” भी आ गया। इसने इसने दलित कविता में ध्यान और संबोधि दोनों पैदा कर दी।” यह टिप्पणी कंवल भारती ने मोहनमुक्त के लिए की है। जिसे पहली नज़र में अतिश्योक्ति से देखने वालों को मेरी सलाह ज़रा ठहरने की रहेगी। पहली बात तो दलित कविता के दायरे में बांधे जाने को लेकर मोहनमुक्त किसी तरह की शिकायत नही करते बल्कि वे इसे गर्व से अपना जरूरी काम समझते हुए इस क्षेत्र में आगे बढ़ते हैं, दूसरे वे अपने “टार्गेट ग्रुप” में उन लोगो को शामिल करते है जिन्हें सामाजिक व्यवस्था के दुष्परिणाम भुगतने पड़े है, और उन तक अपने लिखे की पहली पहुंच को मद्देनजर रखते हुए वे लगातार लिख रहे हैं।

 

उत्तराखंड के पिथौरागढ़ ज़िले में गंगौलीहाट के रहवासी मोहनमुक्त कविता के उभरते एवं सशक्त हस्ताक्षर हैं, जिनके अब तक दो कविता संग्रह “हिमालय दलित है” एवं “हम खत्म करेंगे” आ चुके है। उनका पहला संग्रह 2022 में आया था जिसे प्रतिरोध की परंपरा का प्रारंभिक अंश कहा जा सकता है और उनका दूसरा कविता संग्रह हम खत्म करेंगे, प्रतिरोध की परंपरा का विस्तार है, जो वर्चस्व की जड़ो को पहचानने और उखाड़ने की प्रक्रिया में गढ़ी गई अभिव्यक्तियों के रूप में सामने आया है।

 

मोहनमुक्त विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में वे लगभग एक दशक से अधिक समय से लिख रहे हैं। वे अपनी कविताओं में बिंब को पलटने की बात करते है, अभी तक गढ़े गए प्रतीकों के बारे में लिखते समय वे उन्हें बदलने की आवश्यकता पर ज़ोर देते है। इसे उनके लिखे में यूं देखा जा सकता हैं-

” सुन रहे हो ??… मैं क्या कह रहा हूँ ??

तुम शायद ही समझ पाओ कभी कि तुम्हारे इंसान बनने में वक़्त है अभी

तुम शायद ही समझ पाओ इस लगने वाले वक्त के प्रति मेरी ज़िम्मेदारी

और तुम्हे शायद ही मेरी कविता

कविता जैसी लगे”

 

वे अपने को कवि की स्थापित परिभाषाओं का कवि माने जाने को लेकर बिल्कुल भी फिक्रमंद नही दिखते। अपनी विचारधारा को स्पष्ट करते हुए अपनी कविता “हम खत्म करेंगे” में बताते है कि मुझे किसी संस्कृति से, सभ्यता से, गांव से, क्षेत्र-प्रदेश से, देश से प्यार नही। यहां उनकी गूढ़ता को समझने के लिए उनकी कविता को सतही तौर पर पढ़ा जाना दिशाभ्रम पैदा कर सकता है। इसी कविता का एक अंश देखिए-

“कवियों बिंबो की मनमानी,ध्वस्त करेंगे हमने ठानी

इंसानी आंखों का पानी, आग भरी आंखें इंसानी।

हिंसक हमको ठहराये जो,हर उस किताब को भस्म करेंगे

हिंसक इस दुनिया की हिंसा, हम अछूत ही खत्म करेंगे।”

 

वे उक्त कविता में इंगित करते है कि सभ्यता संस्कृति के समस्त पाप वंचितों के माथे किस चालबाज़ी के साथ डाल दिये गए। अब यही घोषित हिंसक लोग उनके बिंबो की मनमानी, भाषा की चतुराई और उनकी लेखनी की संस्थागत, सांस्कृतिक हिंसा को खत्म करेंगे। स्थापित सभ्यता-संस्कृति से उनके विलगाव को इस कवितांश को पढ़ने के बाद समझा जाना आसान होगा।

 

मोहनमुक्त अपनी लेखनी के साथ बार-बार सवर्ण प्रगतिशील लेखकों/कवियों के जातीय श्रेष्ठता बोध, उनके बिम्बों की मनमानी का ध्यान दिलाते रहते हैं। वे जरुरी भी नही समझते कि उन्हें उन्हीं की भाषा में जवाब दिया जाए, वे अपनी खुद की भाषा अपनी समस्याएं और उनके निदान की बात करते है। बस…उन्हें यही जरुरी लगता है। वे कहते भी है कि “हृदय परिवर्तन” की बात बेमानी है। वे पुरानी शब्दावली को चुनौती देते दिखेंगे, स्थापित भाषा को अपने अंदाज में लिखते दिखाई देते है। उनके इस भाव को इस अंश के साथ देखिए-

– हर किसी सांचे में खुद को ढाल लेना

हमने हुनर माना नही, काम निकाल लेना।

हम धरती के सुराखों को बंद करने आये हैं

आसमां की ओर पत्थर तुम्हीं उछाल लेना।

इसी कड़ी में यह कहना लाज़िम होगा कि वे सवर्ण प्रगतिशील लेखकों की “झूठी महानता” में नही फंसना चाहते, इस बाबत एक स्पष्ट लाइन खींचते हुए वे कहते हैं-

– तू ही रख,अपना ढंग

ना आऊंगा, तेरे संग।

तेरी जंग, तेरी जंग

मेरी जंग, मेरी जंग।

 

हम जानते है इतिहास जीतने वालो का लिखा जाता है, जीतने वालो के लिए लिखा जाता है,जीतने वाला द्वारा लिखा जाता है। इतिहास के पन्ने उनका भी यशोगान करते दिखाई देते हैं, जिन्होंने लाशों के ढेर पर अपने महल खड़े किए हों, जिन्होंने कमज़ोरों के रुदन को अपना निद्रागान बना लिया हों, जिनकी प्रशस्तियों से अटे पड़े हों, संग्रहालय, और उन पुरखों का हवाला देकर गर्व किया जाता रहा हैं। मोहनमुक्त भी गर्व करते हैं, अपने पुरखों को याद करते हुए, मगर उस अतीत के कारण जिस अतीत में वे अपने पुरखों को ज़ालिम होता नही पाते। वे कहते हैं-

 

मैं खुश हूँ

कि मैं…

अपने पुरखों के बारे में नही जानता

क्योंकि वो इतिहास में नही हैं।

वो इतिहास में नही है

क्योंकि वो आक्रमणकारी नहीं थे

उन्होंने कोई नगर नही जीते

कोई गांव नही जलाये

उन्होंने औरतो के बलात्कार नहीं किये

उन्होंने अबोध बच्चों के सर नही काटे।

यहां वे उस रक्तरंजित इतिहास की ओर ध्यान दिलाते हैं, जिसे सभ्य साबित करने के लिए मनगढ़ंत शास्र रचे गए, साथ ही किसान-कमेरों के इतिहास को भी पन्नों से गायब कर देने के तथ्य को इंगित करते है।

 

वे मार्क्सवादियों की वर्ग चेतना के अंतर के आधार पर छद्म प्रगतिशीलता की पोल खोलते दिखाई देते हैं। उन्हें शिकायत है कि भारत का मार्क्सवादी आंदोलन क्यूँ नही समझ पाता कि जितना ” वर्ग-चेतना”’ की समझ होना जरूरी है, उतनी ही बड़ी सच्चाई भारत मे “वर्ण” है, और भारत मे एक बड़े तबके की वास्तविक लड़ाईयां इसीके इर्द-गिर्द हैं। वे भारी भरकम सैद्धान्तिक बहसों स्व वास्तविक लड़ाई के छिटक जाने को इंगित करते हैं-

– कॉमरेड

तुम तय करो

कि तुम कॉमरेड ही हो ना

कॉमरेड

लड़ाई जारी है

तुम तय करो

सिद्धांत ई पहले

तुम

किसके कॉमरेड हों !

 

मोहनमुक्त की यह स्पष्ट समझ है कि पूरा मामला दरअसल संरचनात्मक और सांस्कृतिक हैं। वर्चस्व की पृष्ठभूमि से आने वाले लोग आम तौर पर नही बदलतें और उतना तो नही जितना इस दुनियां को बेहतर बनाने के लिए ज़रुरी है। असल गुलामी राजनैतिक नही, सांस्कृतिक है। वे कहते हैं कि हमने घृणा की बू के संकेत जनकवियों की प्रसिद्ध कविताओं में देख लिए थे। हम देख सकते थी कि उनकी सच्ची-झूठी सदिच्छाओं के बावज़ूद जनकवियों की कविता आखिर दंगाइयों का औज़ार बन जाएंगी, वो कवियों के खुद से छिप जानें का अड्डा बनेंगी, वो लेखकों के पुरस्कारों के शानदार जस्टिफिकेशन बन जाएंगी, वो सत्ता और कविता के बीच की फिसलन वाली मजेदार ढ़लान बनेंगी, जिसमें कवि लुढ़केगा तो खुश होगा सचमुच। इसे वे लिखते हैं-

 

– हम अतीत को नही भूलेंगे

हम भविष्य को नहीं छोड़ेंगे

लेकिन हम ये मुतमईन होकर कह सकते हैं

कि वर्तमान में जो कुछ भी हो रहा हैं

हम उसमें शामिल नहीं हैं

हम शामिल नहीं हैं…हम आज भी बहिष्कृत हैं

और आज हम बहिष्कृतो की असाधारण खासियत को जानते हैं।

 

ऐसे छद्म/सवर्ण प्रगतिशील लेखकों के लिए मोहनमुक्त आगे कहते हैं कि कविता यथार्थ और आदर्श की जिन जटिलताओं को सामने ऱखने की कवायद करती हैं वही लोग उन जटिलताओं के आचरण से गुरेज़ करते दिखाई देते हैं। उन तथाकथित महान कवियों की सवर्णवादी बुद्धिजीविता चाहे-अनचाहे परिलक्षित हो ही जाती है। वे लिखते हैं कि जब ओमप्रकाश वाल्मीकि “दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र” लिखते हैं और दलित साहित्य की महत्ता इसके ज़रिये और निखर कर सामने आती हैं। लेकिन वाल्मीकि के सौंदर्यशास्त्र लिखने का औचित्य तभी है जब उसकी देखा देखी ब्राह्मणवादी सौंदर्यशास्त्र को आमने-सामने चुनौती देता हुआ लेखन सामने आए। इस कड़ी में बड़े और स्थापित नामों की लिखित कविताओं पर कटाक्ष करते दिखते है, चाहे वो निराला हों या अज्ञेय। उदाहरणार्थ अज्ञेय एक प्रसिद्ध कविता “सांप” के जवाब में बे लिखते हैं-

 

– नहीं…

ये मत करो कवि

ऐसा मत कहो

जिसे तुम मेरा विष कहते हो

मैं उसके साथ पैदा हुआ हूँ…

उसके सहारे जीता हूँ और मर जाता हूँ उसके साथ ही

मेरा डंसना ना तो अकारण होता हैं

ना ही अप्राकृतिक…

तुम्हारी सभ्यता की तरह।

मोहनमुक्त की कई कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद कर चुके

 

भारत भूषण तिवारी लिखते है कि “मोहनमुक्त की कविता हिंदी ले साहित्यिक इस्टेबलिशमेंट के लिए सुपाच्य नहीं हैं यह कहना अंडरस्टेटमेन्ट होगा। उनकी कविता से द्विज इस्टेबलिशमेंट को पहले बदहजमी होती हैं, जिसे पेचिश में बदलते देर नही लगती।’ इस कड़ी में वे उन लोगो को जो यह कहते है कि यह ‘कुंठित’ व्यक्ति अपने लिए जगह बना रहा हैं चर्चा पाना चाह रहा है, कहते है कि, ‘हम आपकी मान्यता दिए जाने की अधिकारिकता को स्वीकर ही नही करते, हम आपके मंच, आपकी चर्चा, आपकी मान्यता, आपकी प्रतिष्ठा या जो कुछ भी आपका दायरा है, उस सब को ठोकर मारते हैं, आपकी चर्चा या मान्यता का हमारे लिए कोई मूल्य नही हैं।’ इसे कोई अहंकार से भरा कथन कह सकता है लेकिन यह देखा जाए तो एल साहसिक अभिव्यक्ति है। कविता के रूप में इसे वे यूं लिखते है-

 

– फर्श पर बिखरे कंचो पर…नही आऊंगा

गुज़ारिश भूल जाइए तमंचों पर…नही आऊंगा

मेरे अपने लोग सारे आपकी दुनिया से बेदखल

मैं उनका युद्ध हूँ, आपके मंचो पर…नही आऊंगा।

कुल जमा बात यह निकलकर आती है कि जिस युवावस्था में लड़कों की जमात ज़िंदगी के द्वन्दों में उलझ कर रह जाती है, उस दौर में मोहनमुक्त एक स्पष्ट सामाजिक नज़रिया लेकर चल रहे है, जहां वे सामाजिक कार्यकर्ता अधिक मालूम होते है और कविता उसका ज़रिया।

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