मेरी बात

आखिरकार इंसान को कविता या गीतों की जरूरत ही क्यों पड़ी? वह तो अच्छा खासा शिकार कर रहा था, खा रहा था, परिवार भी बनाना सीख गया था। लेकिन उस आदिम युग में भी वह गुनगुना रहा था, या तान भर रहा था। धीरे -धीरे तानों में शब्दों ने रंग भरना शुरु कर दिए, प्रकृति, दृश्य, प्रेम, स्नेह ‌और पीड़ा के लिए शब्द बनने लगे। जी हां आदमी ने सबसे पहली अभिव्यक्ति गाने के रूप में ही की। कालान्तर में यही कविता बनी, दुनिया के हर उस क्षेत्र में जहां आदमी ने वास बनाया, हालांकि हम सोचते हैं कि पंछी भी गाते है्ं, लेकिन क्या लोमड़ी खरगोश गाते हैं? नहीं हमे इसकी जानकारी ही नहीं है। लेकिन हम इतना समझ सकते हैं कि आदमी के गीत संवेदनाओं में रंग भरने के लिए थे, जिन्होंने आदमी को इंसान बनने में मदद की।

आज जब हम संवेदना की कमी को शिद्दत से महसूस कर रहे है, क्या कविता हमें बचा सकती है। कविता कोई दवा की खुराक नहीं जो देह के दर्द को सुला दे। लेकिन जब किसी समस्या या तकलीफ को, जो लगभग सार्वजनिक हो, कविता को इश्तिहार के रूप में सार्वजनिक मंच में छापना क्या संवेदना के भीतर आता है? निसन्देह नहीं। लेकिन जब ऐसी स्थिति आए जो इंसानियत के खिलाफ हो तो, कविता विरोध का माध्यम हो सकता है।

आज की क्रूरता भरी दुनिया में युद्ध नए नहीं हैं, आरंभ से युद्ध होते रहे हैं, कुछ राजाओं ने युद्ध अपनी मानसिक सन्तुष्टि के लिए भी किए है़ तो कुछ ने अपने साम्राज्य को बढ़ाने के लिए किए है। लेकिन जनता के लिए युद्ध हुए हों, जनता मोहरा बनी है, प्यादा, जो केवल राजा या रानी की चाल चलता है। फिर भी उन सभी स्थितियों में जब युद्ध उन लोगों को निशाना बनाया जाए, जिनकी कोई भागीदारी नहीं, जो निस्साहय नागरिक हैं, तो उनके साथ कौन खड़ा रहता है?

संभवतया उस वंचित वर्ग को किसी आवाज की जरूरत होती है, मुझे प्रतीत होता है कि गीत और कविता उनके रोष ‌और पीड़ा को शब्द दे सकती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि संवेदना को इतना मलिन कर दिया जाए कि हर किसी दुर्घटना को कविता का जामा पहना दिया जाए। लेकिन जब संवेदना घनीभूत हो जाती है, तो उससे उपजी कविता मारक होती है। ये शब्द अन्तस पर चोट करते हैं।

कृत्या कविता के द्वारा घनीभूत भावनाओं के प्रकटीकरण के लिए आपके समक्ष उपस्थित होती रही है, आशा है कि आगे भी होती रहेगी।

रति सक्सेना

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