मेरी बात

मानव सभ्यता के हजारों वर्ष बाद भी हम पुरानी समस्याएं नहीं सुलझा पा रहे हैं, बल्कि हमें जो विरासत से मिला था, उसे गंवा रहे हैं। जी, हम मारकाट की आदिम प्रवृत्ति से छुटकारा नहीं पा रहे हैं,  विश्व के किसी न किसी कोने में लगातार युद्ध चल रहा है। ऐसी स्थिति में हम प्रकृति संपदा को बेरहमी से खत्म कर रहे हैं। पर्यटन सरकारों के लिए आर्थिक लाभ का उपाय बन रहा है, लोगों के लिए अधिकांश फैशन है। लेकिन पहाड़ों को रोंदती गाड़ियों के पहिए पहाड़ों के सीने को छलनी कर देते हैं। साथ ही बड़े- बड़े होटलों के निर्माण के लिए कितना पहाड़ खिर जाता है, उसका कोई रिकार्ड है क्या?

 

यही नहीं, गर्मी में आइस पार्क का निर्माण, बिना जरूरत के एसी चलाना आदि भी ऐसी आदतें हैं, जिन्हें हमने कुछ वर्षों में ही सीखी हैं। हालांकि हम सब जानते हैं कि जितने ज्यादा ए सी चलते हैं, उतने ही बाहर के वातावरण में ऊष्णता बढ़ती जाती है।

कविता को जितना युद्ध के खिलाफ बोलना चाहिए, उतना ही प्रकृति के पक्ष में भी बोोलना चाहिए। क्या वर्तमान कविता यह कर रही है?

 

इन्हीं सवालों के साथ है, कृत्या का नया अंक।

इस अंक में हम पेरुमाल मुरुगन जी की कविताओं के मोहन वर्मा जी द्वारा किए गए अनुवाद को प्रस्तुत कर रहे हैं, उपन्यासकार के मन की अन्तर्व्यथा कविता में उभर कर दिखाई देती  है। प्रिय कवि के रूप में JOSÉ SARRIA की कविताओं को प्रस्तुत कर रहे हैं, जो वैश्विक एकांतता को रेखांकित करती हैं। इन कविताओं का अनुवाद संतोष कुमार सिद्धार्थ ने किया है। समकालीन कविता में दो युवा कवियों को और एक स्थापित कवि हैं।

समकालीन कविता के रूप में आशीष दशोत्तर का लेख झूठ–”सच के बीच मज़बूत दीवार सी खड़ी कविता” को प्रस्तुत कर रहे हैं।

आशा है, आपको यह अंक पसन्द आएगा।

रति सक्सेना

 

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