
हमारे अग्रज
मृदुला गर्ग
मृदुला गर्ग (जन्म:२५ अक्टूबर, १९३८) कोलकाता में जन्मी, हिंदी की सबसे लोकप्रिय लेखिकाओं में से एक हैं। उपन्यास, कहानी संग्रह, नाटक तथा निबंध संग्रह सब मिलाकर उन्होंने २० से अधिक पुस्तकों की रचना की है। १९६० में अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि लेने के बाद उन्होंने ३ साल तक दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन भी किया है।
कृत्या ने मृदुला जी के कवि मन से संबन्ध जोड़ा है, उनकी कविताएं पहले भी कृत्या में प्रकाशित हो चुकी हैं. दरअसल हमारा मानना है कि गद्य में जो गति या लय होता है, वह कविता से भिन्न नहीं होता। वे आज भी कविताए लिख रही हैं।
इस अंक में सब कुछ लीक से अलग है तो एक कहानीकार की कविताओं को प्रस्तुत करके हम कविता के बृहद आकाश से ही संमबंध जोड़ते हैं।
देवदार
बहुत धीमे धीमे गिरा करते हैं
देवदार के दरख़्त
हवा हैरान-सी चुप रहती है
चोटी की शाख़ धँस जाती है
धरती के भीतर
धूल का बगूला सिर्फ
चार फ़ुट ऊपर उठता है
बवंडर नहीं उठा करते
हर कब्र की गहराई से
कुछ ऊँचे दरख्त ख़ुद
ज़मीन में समा जाते हैं
जड़ों की मिट्टी में
कभी कभी रेत मिली रहती है
2.
मैं जीती हूं
मैं जीती हूँ
चाहत से बँटे
बिखरे क्षणों में
जब मैं नहीं होती
विषाद का गहरा गढ़ा
मुझे चूसकर
भीतर—बहुत अन्दर
उगला करता है
तपता ग़ुबार
घुटन के अंतिम क्षण में
अट्टहास की गूँज पर चढ़
उछल निचली सतह से
तुम्हारे पास गिरकर
जीने लगती हूँ—पर
गढ़े से भी मुझे
कम प्यार नहीं
प्यार की बात बेकार है
वहीं मेरा घर है
गढ़े के बहुत अन्दर
सबसे निचली सतह पर
जहाँ हर क्षण बराबर
काला धुआँ उगला करता है
3.
कैक्टस पर फूल
कल रात तुम्हारी प्रतीक्षा करते
मैंने देखा—
मेरे पथरीले बगीचे के
धुँधियाते कोने में
कैक्टस पर एक फूल खिला है।
धीमे-धीमे मेरी आँखों के सामने
उस कंकरीले ठूंठ पर
असंबद्ध दौड़ते क्षणों की क़तार से
टूट कर दिपदिपाता एक पल
आ जड़ा है।
फिर देखा—
घोंसले से गिरे अबोध पक्षी-सा
पंख फड़फड़ाता
वह मेरी प्रतीक्षा का संगी
मुझे आश्वस्त करते-करते
स्वयं धरती पर झड़
बिखर चुका है।
बच रहा है वह कंटीला झाड़
अपने भाग्य पर स्तब्ध
निर्भाव प्रतीक्षा करता
मेरी तरह
उस रात की जिस रात
कैक्टस पर फूल फिर
— खिलेगा—
मृदुला गर्ग
ई 421 (भूतल) जी. के 2, नई दिल्ली 110048