हमारे अग्रज

प्रताप नारायण मिश्र

 

प्रताप नारायण मिश्र मूलतया गद्यकार के रूप में प्रसिद्ध हैं, किन्तु आपकी काव्य शक्ति भी अपने समय की कसौटी पर खरी उतरती है। उनकी कविता में बाबू हरिश्चन्द्रयुगीन प्रभाव जरूर है किन्तु कल्पना प्रवणता और सजीवता की दृष्टि से युगीन नवीनता है। खड़ी बोली के उस आरंभ काल को रेखांकित करते वक्त प्रताप नारायण मिश्र की कविता को नकारना संभव नहीं है।इस अंक में आपके कुछ कुछ प्रेम गीतों को प्रस्तुत किया जा रहा है।

 

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तोहि छैला मैं छाती लगाये रहिहौं।
आँखिन ते कछु दूरि न करिहौं पुतरी प्यारे बनाये रहिहौं।।

 

 

पलकन ते नित पायँ दाबि के उर पर सदा सोआये रहिहौं।।
जो कछु भौंह चढ़ी देखिहौं तौ परि पैयाँ मनाये रहिहौं।।
डारि गरे तोरे अपनी बहियाँ प्रेम के जाल फँसाये रहिहौं।।
प्रिय प्रताप तोरी इक छबि पर दूनों लोक लुटाये रहिहौं।।

 

नैना बाँके बान

 

कसकै मोरे रे करेजवा तोरे नैना बाँके बान।
नहिं भूलति जस वह दिन तानी बाँकी भौंह कमान।।
जादू भरी रसीली चितवन प्रेम भरी मुसकान।
छिन छिन पल पल पर सुधि आवत बिसरावत सब ज्ञान।।
अब “परताप”न जीवन रहिहैं अधर रस दान।
धाय आय गर लागु पियरवा नाहितु निकसै प्राण।।

 

 

करि स्नेह पछितानी

 

दगा के रूप दिलजानी ।
छल के सिन्धु झूठ के भाँडे कोटि कपट के खानी।।

 

पहिले प्रीति दिखाय हाय फिर निपट निठुरता ठानी।
तन मन लै फिर बात न पूछी कीन्हीं निज मनमानी।।
काह करौं कित जाऊँ हाय ह्याँ सुधि बुधि सकल हिरानी।
हा “परताप” कुठौर फँस्यौ मन करि सनेह पछितानी।।

 

यह फल पायो

 

प्रीति किये को यह फल पायो।
जिनकी हमहिं सुरति निशिवासर तिन हम कँह सब विधि बिसरायो।।

 

जिन हित लोक वेद सब छाण्ड्यो तिन मुखहू कबहूँ न दिखायो।
द्वार परेहु “परताप” न पूछ्यो काको कौन कहाँ ते आयो।।

 

वीरता वर्णन

 

“कर धरि कयिन कृपान अस्व औ शस्त्र चलावहु।
क्षत्रिय कुल को बल प्रताप बैरिन दिखरावहु।।
जिमि मृगगण मँह सिंह यथा ईंधन महँ आगी।
घुसहु शत्रु दल माहिं, सबहि नासहु भय त्यागी।।

 

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