अग्रज कवि

क्रान्तिकारी सन्तगुरु नारायण की चुनी हुई कविताएँ‍

 

*

जाति निर्णय

मानव की जाति है मानवता,

जैसे गायों की जाति है गोत्व

ब्राह्मण आदि उसकी जाति नहीं,

हाय! न जाने कोई तत्त्व यही।

 

*

एक जाति, एक धर्म,

एक ईश्वर मानव का,

एक योनि, एक आकार,

नहीं कोई भेद इसमें।

 

*

ही नर जाति से,

निकलती है नर सन्तति,

नर की, ऐसा सोचें तो,

है मात्र एक ही जाति।

 

एक इसी नर जाति से,

जन्म लेता है ब्राह्मण,

और चाण्डाल भी इसी से,

फिर क्या अन्तर है नर नर में।

 

चण्डालिका से जन्मे थे.

पराशर नामक महामुनि,

वेदव्यास जन्मे थे, सोच लें

मछुआरिन की कोख से।

 

जाति का लक्षण

 

जो युग्म होकर जनमता है,

उसका एक अलग किस्म है,

जो युग्म में बँधता नहीं यहाँ,

उसका कोई किस्म नहीं होता।

 

हर एक किस्म का होता है,

अलग- अलग तरह का शरीर,

अलग शब्द, गन्ध, रुचि, ताप,

शीत, व शक्ल, यही सोच लें।

 

हर किस्म के जीवो के होते,

अलग अलग चिह्न हैं यहाँ,

इसी से पहचान पाते हैं हम,

अलग- अलग किस्मों में उन्हें।

 

सिर्फ नाम, देश और पेशा,

इतना ही पूछना काफी है,

जाति न पूछें किसी से, क्योंकि,

शक्ल स्वयं बताएगी जाति।

 

अलग है शरीर हर किस्म का,

जिससे होती है उसकी पहचान,

जिसमें समझ और आँखें हों,

वह न पूछेगा किसी से जाति।

 

अपनी झूठी जाति बताते हैं कई

अपने को जाति में हीन समझकर,

हीनता की वजह नहीं कोई,

जाति एक ही है, झूठ मत बोलें?

 

ज्ञान के महासागर की लहरें ही,

जैसे अलग अलग किस्म हैं यहाँ,

लहरों की इन पंक्ति पंक्ति के पीछे,

एक ही मूल तत्त्व है, जैसे वह जल है।

 

ज्ञान के महा लौह शिल्पी ने जैसे,

गढ़ लिया है कई किस्मों को यहाँ,

आकार बदलकर वही फिर फिर,

आते रहेंगे ये सब किस्म बने हुए।

 

अलग- अलग किस्मों का लक्षण है,

अलग- अलग किस्मों को पहचानने,

अलग- अलग किस्म नहीं हों तो,

कैसे पहचानेंगे यहाँ किसी वस्तु को?

 

 

आत्मोपदेश शतक

1

ज्ञान में बसकर, ज्ञानी के अन्दर- बाहर,

सभी जगह एक समान प्रोज्वलित,

महा सत्ता को, पंचेन्द्रिय का कर दमन,

बार बार कर प्रणाम, करें निवेदन।

 

2

अन्तःकरण, इन्द्रिय और धड़ से लेकर,

जितने भी जो ज्ञात जगत् हैं अनेक,

परा ज्योति से उदित भानु का,

तनु मात्र है वह सब, इसे जान लें।

 

3

बाहर विवर्तित होकर जो दीखता है,

पंच भूत की विभूतियाँ बनकर,

जलधि में उठे हुए तरंगों जैसे,

अभेद है वह तत्त्व, यही समझ लें।

 

4

ज्ञान, और जो ज्ञेय अर्थ है,

फिर ज्ञाता का जो ज्ञान है,

वह सब एक आदिम ज्योति मात्र,

उसी अविरल महाज्ञान में तल्लीन हों।

 

5

सोती, जगती, चिन्ता करती रहती दुनिया,

पर सतत साक्षी सा वह अनमोल दीप,

देखता खड़ा है यह सब अविराम,

जो न कभी उदित होता है, न बुझता है।

 

6

सुबह उठना, फिर खाने, पीने, सोने,

रति संग करने, जैसे कई, कई

विकल्पों में पड़ा रहे कोई तो कैसे,

जग पाये निज रूप निर्विकार निर्मल?

 

7

सोते- जगते गँवाता नहीं कोई जीवन,

जब हो जाता है ज्ञान से एक रूप,

पर न पाये यदि अपने को इस लायक,

प्रणव जगे, मुक्त मुनिजन की सेवा करें।

 

8

शब्द स्पर्श रस रूप गन्ध के पाँचों-

फल खाकर, तन के बदबूदार पिंजड़ें में,

अठखेलियाँ करती पाँचों चिड़ियों को,

मार गिराएँ अन्दर जगे ज्योति-तीर से।

 

9

दोनों नाड़ियों के बीच हो छह अवस्था में,

एक लता जिस तनु के पेड़ पर फैले फूले,

उसके नीचे बैठकर कोई करे तपस्या,

तो उसको कैसे लगेगा भय नरक का?

 

10

“अँधेरे में कौन बैठा है, बोलो”,

ऐसा जब पूछ उठता है कोई,

तो जवाब में कोई जिज्ञासा से पूछे,

“तुम हो कौन?” तो उत्तर होगा एक ही।

 

11

अहं’, ‘अहं’ जो सब कहते हैं, वह सब,

अनेक नहीं होता, पर होता है एक ही,

अहन्ता दूर होती है क्योंकि वह अनेक है,

ऐसे ही जारी है ‘अहं’ का सार तत्त्व।

 

12

देखें इस अहन्ता को, जो लिए है,

चमड़ा, हड़्ड़ी, मल, अन्तःकलाएँ,

ऐसा अहं मिटे, ‘अहं ही ब्रह्म’,

ऐसा विराट् अहं का भाव जगे।

 

13

त्रिगुणमयी, विभूति लगाये ईश को,

मन का पुष्प चढ़ाकर, इन्द्रिय शान्त हो,

अहं मिटकर, केवल भाव की महिमा से परे,

परा ज्योति में हो जाएँ निमग्न।

 

14

त्रिभुवन की सीमा के उस पार,

जलता है दीप त्रिपुटि का भेद मिटाकर,

उसे कोई कपटी, पाखण्डी न पा सके,

ऐसा उपंनिषदीय कथन है, करें याद।

 

ज्ञान

 

1

जो कुछ जाना जाता है,

वह सब ज्ञान से भिन्न नहीं, यदि ढूँढ़ें तो,

चूँकि इनमें ज्ञान एक ही है,

इसलिए ज्ञान के बिना और कुछ नहीं।

 

2

जो कुछ जाना जाता है,

उसके वर्तमान रहते हुए भी,

यदि ज्ञान नहीं तो वह नहीं,

ज्ञान नहीं’ ऐसा कहने पर,

ज्ञान नहीं है, ऐसा जिसको ज्ञान है,

उसको ऐसा ज्ञान है, यह कह सकते हैं।

 

3

सीमातीत ज्ञान होकर,

जिसे जानते हैं, वह भी,

ज्ञान होकर प्रकाशित होता है।

ज्ञान में जो स्वप्न उठता है,

वह भी जैसे ज्ञान हो जाता है।

 

4

यदि ज्ञान पूर्ण है,

तो जो ज्ञान नहीं, वह कहाँ टिक सकेगा?

ज्ञान कौन सा है, ऐसा-

जहाँ जाकर जानते हैं,

वहीं तो वह टिक सकता है,

और कहाँ टिक सकता है?

 

5

यह ज्ञान रूप जगत्,

ज्ञान से मिट जाता नहीं,

पर जगत् का कहाँ विलयन होता है?

जब ज्ञान होता है, तो ज्ञान को-

अलग से नहीं जानते हैं,

ज्ञान और ज्ञेय दोनों एक हो जाते हैं।

 

6

ज्ञान होने से पहले क्या है,

ऐसा पूछने पर यही कह सकते हैं-

कि ज्ञान के अलावा कुछ है नहीं,

ज्ञान-हीनता की क्या सीमा है,

यदि पूछे, तो कहें ज्ञानहीन हो,

कुछ भी दीखता नहीं यहाँ।

 

7

ज्ञान होता है या नहीं होता है,

यह भी हम नहीं जानते,

ज्ञान को ज्ञान नहीं जानता है,

वह तो स्वयं प्रकाश रूप है,

हम ज्ञान रूप हैं, इसलिए जो-

ज्ञान है, वह ज्ञान नहीं, ऐसा ज्ञान-

होना भी सही ज्ञान नहीं।

 

8

जब से ज्ञान है, तब से यह जगत् भी है,

लेकिन जगत् कहाँ टिकेगा अलग?

ज्ञान तो केवल एक है, और कुछ नहीं,

तो ज्ञान के अलावा और क्या है?

 

9

ज्ञान का है एक ठिकाना,

पर ज्ञान से अलग उसका-

अपना नहीं कोई ठिकाना,

ज्ञान का मतलब किससे है’?

यह पूछने पर कहें, यह समग्र ही ज्ञान है

 

10

तब कुछ भी ज्ञात नहीं जब-

यह ज्ञात सब ज्ञात में विलीन होता है,

ज्ञान में कौन सा है, ऐसा ज्ञात नहीं तो,

कहाँ से आएगा अलग ज्ञान?

 

11

यदि हम यह बात कहें कि-

ज्ञान किस तरह का है और कैसे होता है,

तो ज्ञान का ज्ञान होकर जो ज्ञान देता है,

वह आखिर हम ही ठहरते हैं।

 

12

ज्ञान का मतलब तू ही है,

वह तेरा ज्ञान और तेरे द्वारा ज्ञान,

इन दो प्रकारों का है,

ऐसे ही दो भेद हैं कि ज्ञान है या नहीं।

 

13

ज्ञान भी उसी तरह यदि-

जाननेवाले में ढल गया,

जो ज्ञात है उसमें ज्ञान की चिनगारी पड़ी,

और वह टूटकर पाँच ज्ञानेन्द्रियों में बँट गया।

 

14

एक है ज्ञान और ज्ञानी है दूसरा,

जो ज्ञात है वह है तीसरा,

पाँच ज्ञानेन्द्रिय और ज्ञान मिलकर हैं छह,

उससे ज्ञानी और ज्ञाता को मिलाएँ तो आठ हैं।

 

15

ज्ञात होता है, इसको भी मिलाएँ तो भी,

सात ज्ञान और एक मिलकर आठ हुए,

यदि ज्ञान को इसी तरह बाँटते जाएँ तो-

अलग अलग रूपों में वह जाना जाएगा।

 

 

ईशावास्योपनिषद् भाषा

 

1

ईश सारे जग में,

अवास करता है, इसलिए

चलना मुक्त होकर,

चाहना नहीं किसी का धन।

 

2

नहीं तो जीवन के अन्त तक,

कर्म करते हुए. असंग होकर-

रहने के अलावा कुछ नहीं,

नर को करना यहाँ।

 

3

आसुरी दुनिया एक है,

घने अँधेरे से आवृत,

मोह से आत्मा के हन्ता,

जाते हैं उसमें मरने के बाद।

 

4

अडिग एक ही परम तत्त्व हो,

मन के वेग को भी जीतकर,

जो खड़ा है सामने,

उस तक पहुँच न पाती हैं इन्द्रियावली

 

5

वह खड़ा है, वह जाता है,

वह दौड़ता है अन्य सभी से आगे,

उसके प्राण स्पन्दन के-

अधीन हैं सभी कर्म।

 

6

वह लोल है, वह अलोल है,

वह दूर है और पास भी,

वह सभी के अन्दर है,

और सभी के बाहर भी।

 

7

सभी भूतों को निज आत्मा में-

और आत्मा को भी वैसे ही,

सभी भूतों में जो देखता है,

उसे क्या है निन्दनीय?

 

8

अपने से अभिन्न रूप में,

जिस दिन देख पाता है सब कुछ,

तब से कौन सा मोह-

और कौन सा शोक होगा उस द्रष्टा को।

 

9

कलंकहीन हो, बिना किसी चिह्न के,

परम पावन रूप में सदा ही़,

मन का मन होकर अपने में,

वह जो स्वयं प्रकाशित होता है।

 

10

ज्ञान से पूर्ण होकर,

सर्वज्ञाता परमेश्वर ने,

अलग अलग कर बाँट दिया,

पहले ही यह विश्व सारा।

 

11

जो करते हैं अविद्या की उपासना,

वे जाते अन्धे तम में,

जो विद्या रत हैं,

वे जाते हैं उससे भी घने अन्धकार में।

 

12

अविद्या से जन्य अन्य है,

और विद्या से जन्य अलग है,

ऐसा सुनते हैं हम,

उन पण्डितों से जो यह सब बताते हैं।

 

13

जो विद्या और अविद्या-

दोनों का मर्म जान लेते हैं,

वे अविद्या से मृत्यु को पारकर,

विद्या से अमृत पाते हैं।

 

14

जो असम्भूति की आराधना करते हैं,

वे जाते हैं अन्धे तम में,

जो सम्भूति में रत होते हैं,

वे जाते हैं और भी अँधेरे में।

 

15

सम्भूति से जो जन्य है वह अलग है-

और असम्भूति से जो जन्य है वह भी अन्य है,

ऐसा सुनते हैं हम,

उन पण्डितों से जो यह सब बताते हैं।

 

16

विनाश से मृत्यु को पारकर,

अमृत रूपी पद को,

सम्भूति से सम्प्राप्त करता है,

दोनों को जाननेवाला

 

17

ढका हुआ है स्वर्ण पात्र से,

सत्य का सही चेहरा,

हे पूषन तू खोलना उसे,

जिससे सत्य धर्मी देख सके।

 

18

जन्म लेकर आदि में-

अकेले ही यह सृष्टि-

स्थिति, विनाश करनेवाले

हे सूर्य हटाना रश्मि को।

 

19

इन रश्मियों का दमन कर,

जिससे देखूँ तेरा कल्याण-कलेवर,

तुझमें जा पुरुष की आकृति,

अदृश्य होकर और आँखों से-

दर्शनीय होकर खड़ी है,

वही मैं हूँ।

 

20

हे आत्मा, तू स्मरण कर ‘ॐ’, ऐसा,

जो कुछ किया गया, वह सब याद कर,

हे अग्नि हमें गति मिले, इसलिए,

भेजना हमको सन्मार्ग से।

 

21

जो कुछ भी कर्म करते हैं,

वह सब जाननेवाले हे देव,

प्रवंचना करता यह मन,

हटा देना हममें से,

आपको हम कहते हैं,

नमोवाक् बहुत- बहुत।

 

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