समकालीन कविता
रेखा वशिष्ट की कविताएं
मां के अन्तिम दिन
मां
आज जब तुम
एक सांस लेते हुए
एक पहाड़ चढ़ती हो
एक पहाड़ उतरती हो
एक कदम चलते हुए
धरती से झगड़ती हो
मेरे पास ऐसा कुछ भी नही
जो तुम्हारे सांसों की लय
और पैरो की गति लौटा दे
तुम्हारा जीवन
इस घर के आंगन में
कटी हुई फसल की तरह पड़ा है
और बादल घिर आये हैं
आकाश जैसी वह छतरी
जिसके नीचे तुमने अब तक
हम सबके साथ
घर की दीवारों तक को
छुपा रखा था
आज छूट रही है.
तुम्हारे हाथों से
तुलसी मुरझा रही है
दूब झुलसा गई है
जाड़ा आने को है
पृथ्वी जितनी
पशमीने की वह चौड़ी चादर
जिसमें भेड़ों के मिमियाते
रेवड़ो को घाम
और गद्दी कुत्तों का हौसला
बुना था
वह चादर छीज रही है
मां !
कागज की पुड़िया जैसी
तुम्हें इस बारिश और पाले से
बचा कर कहां रखूं
जैसे तुम
घर के सबसे छोटे बच्चे को
लपेट कर रखती थी
उस लोई में
जिसमें रंग बिरंगी लीरों का
जादू बुना था
आओ हम आखिरी बार
मिरचें जलाने का टोटका करें
तुम सबके हाथों में
ताबीज की तरह बंधी थी
जिसके डर से
भूत-प्रेत, राक्षस-पिशाच
सब डर जाते थे
मां !
आज इस घर का
कोई भी कोना
कोई भी ताक ऐसा नहीं
जहां हर नजर से छुपाकर
रख सकूं तुम्हें
मेरे पास केवल एक जगह है
सुरक्षित और निरापद
मेरी कविता
तुम यही रहो मां
हरदम मेरे आस-पास
हरिद्वार में एक शाम
गंगा !
मैं तुझ में उतर रही हूं
अपने बेहिसाब पापों के साथ
घाट पर उतारे
आवरणों की गठरी में
उतार कर रख आई हूं मैं
अपनी अन्तिम पहचान
अपना नाम, कुल, जाति और गोत्र
अब है एक आवरण मुक्त
पाप-पंकिल देह और
एक आस्थावान
संस्कार भीरू मन
लहरों पर कांप रहे
आहुति दीपों की तरह
इस दोलायित क्षण में
मैं अपना गोपन-अगोपन
सब सौंप रही हूं
निश्छल
गंगा !
मैं तुझ में उतर रही ह
अपने तमाम पापों के साथ
लेकिन अन्तिम बार नहीं
कुछ ऐसे भी पाप हैं
जो मेरी नियति लिखते हैं
दादी कहती थी
वह भी नहाई थी गंगा
हर लड़की गंगा नहाती है
शादी से पहले
सौभाग्य की वेदी पर न्योछावर
देह के लिये जरूरी है
बेदाग होना
दूसरी बार वह गंगा में उतरी
अस्थिकलश में बंद
मुट्ठी भर राख बनकर
दादी का दूसरा चोला भी
उजला और बेदाग रहा
पति के रहते
सुहागिन मरी बेशक
क्षय का लंबा निर्वासन भोगा
जब सांसें उखड़ी
पति सौ काम छोड
सामने खड़े थे दर्शन देने
गंगा !
मैं अस्थि और राख होने से पहले
कई बार आऊंगी
कई बार उतरूंगी तुझ में
कुछ पाप ऐसे भी हैं
जो मैं बार-बार दुहराऊंगी
इस खूबसूरत धरती पर
जब तक
सुनहरे मीठे फल
मेरे लिये निषिद्ध रहेंगे
मैं पूछती रहूंगी
क्यों? आखिर क्यों?
मैं प्रेम करूंगी
और कविता भी लिखूंगी
कल्पतरु
पहले मनुष्य जन्मा
या उसका मन
कौन जाने
मन के साथ जन्मीं
मोहिनी इच्छाएं
सागर मंथन से प्राप्त
कल्पतरु
कहां रोपा गया
कौन जाने
उसी कल्पतरु की एक टहनी
आज भी हरी है
वहीं टीले पर
मंदिर के बाहर
दूर-दूर से आते हैं लोग
बूंद भर आस्था से सींचते है
इस कल्पतरु की टहनी
लाल डोरी में गूंथकर
बांध देते हैं
इच्छा की एक गांठ
असंख्य इच्छाओं की वाहक
यह टहनी
उन इच्छाओं को कैसे पहचानती है
कहां ले जाती है
कौन जाने
लौट जाते हैं लोग
फिर-फिर लौट आने के लिये
आकर खोलने के लिये
इच्छा की गांठें
मेरा बूढ़ा मन
जिसने सुर्ख इच्छाओं को
बदरंग होते देखा है
गांठों को तार-तार
छीजते देखा है
किससे कहें कि
गांठ जल जाती है
खुला नहीं करती
मैं भी प्रार्थना के अंत में
एक गांठ लगाती हूं
मांगती हूं
यहां रहने वाले देवता से
जो सुबह घर से निकलें
वह रात को
सलामत घर पहुंचे
कल्पतरु की टहनी
लाल डोरियों से बंधी रहे
दहकती रहे
रेखा वशिष्ट
साहित्यक योगदान के लिए चन्द्रधर शर्मा गुलेरी राज्य सम्मान से सम्मानित रेखा वशिष्ट ने पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ से अंग्रेजी में एम.ए. व हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला से पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त की है । आपकी अब तक ‘अपने हिस्से की धूप’, ‘चिंदी – चिंदी सुख’, ‘पिआनो’ एवं ‘विरासत जैसा कुछ’ कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं । आपके कविता संग्रह ‘अपने हिस्से की धूप’ व कहानी संग्रह ‘पिआनो’ को भाषा अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया तथा ‘हाथ’ कहानी के लिए 1990 में कथा पुरस्कार मिला है ।
बृजेश की कविताएं
कविता और माँ
हरूफ तो छोडिये जनाब
कंठ से नहीं निकलता था एक भी अक्षर
कोई नहीं समझ पाता था,
मेरा एक भी शब्द
न्गूं… न्गूं…न्गूं… फूटने से पहले,
अपने अधरों से दे देती थी सहारा,
मेरी अनकही कविता को माँ !
प्रेम सितारे
दुइज की
सांझ गहराते ही
झिलमिला उठते
दो जोड़ी नयनों में
झील की शांत लहरों पर
झूलते नील गगन में
जगमगाते प्रेम सितारे
आ गिरते ही
श्वेतार्क का रेशमी बिया
बनने बिगड़ने लगता जलदर्पण
और हिलोर में डुबकने लगते
फिर से जगमगाने को
प्रेम सितारे ।
प्रेम कविता
पुरबाई में
अलमस्त फुनगी ने
धवल चांदनी में सुनी
चकोर से जो प्रेम कविता
भोर होते ही उसने
सुनहरी दवात डूबी
किरन कलम गह
बोल लिख डाले
डोलते पातों पर
चांद की रुख़सती से पहले।
अश्वेतवर्णा !
यों तो –
सांझ गहराते ही
घौंसलों को लौटते
पखेरुओं के परों पर बैठ
रोजाना आ धमकती, अश्वेतवर्णा!
हर उस जगह:
पहाड़, जंगल, मैदान, खेत-खलिहान
पगडण्डी, सड़क, मकान, दुकान…
जहां – जहां से आंख मिंचोली खेल
लौट जाती, श्वेतवर्णा!
और –
खेलते खेलते भूल जाती है
दियों को रोशन करना
लेकिन –
छप्पर तले आले में टिमटिमाती
ढिबरी के मंद उजाले में नहाये
श्यामल शब्दों को गुनते
सुनहरी रंगत लिए बच्चे
स्वर्णिम आभा देख,
वह करने लगी दिया-बाती,
और निसदिन बच्चों संग बैठ,
स्वर्णरेखा लगती अब
अश्वेतवर्णा !
बृजेश सिंह
बृजेश सिंह की कवितायें, लेख एवं समीक्षाएं देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आपकी अंग्रेजी की कवितायें कई एन्थोलोजी में सम्मिलित हुई हैं। बृजेश का कविता संग्रह ‘अपने–अपने कैनवास’ गत वर्ष 2023 में प्रकाशित हुआ है।
राजन स्वामी की गज़लें
1
अधूरेपन का मसला ज़िंदगी भर हल नहीं होता,
कहीं आँखें नहीं होतीं, कहीं काजल नहीं होता।
कहानी कोई भी अपनी भला पूरी करे कैसे ?
किसी का आज खोया है, किसी का कल नहीं होता।
रहे आदत पसीना पोंछने की आस्तीनों से,
मयस्सर हर घड़ी महबूब का आँचल नहीं होता।
हमारी सौ बरस की ज़िंदगी की राह में अक्सर,
जिसे हम ढूंढते हैं, बस,वही इक पल नहीं होता।
सभी से तुम लगा लेते हो उम्मीद-ए-वफ़ा, लेकिन,
लिए पैग़ाम सावन का हरेक बादल नहीं होता।
2
आड़ी-तिरछी, नई-पुरानी, मीठी-खारी बातें हैं,
करना चाहो, तो इस दिल में कितनी सारी बातें हैं।
मुद्दत बाद मिले जब तुमसे, तो ऐसा महसूस हुआ,
हमको भूल चुके हो, लेकिन याद हमारी बातें हैं।
जरा-जरा सी बातों ने जन्मों के रिश्ते तोड़ दिए,
ऐसा लगता है, जैसे रिश्तों पर भारी बातें हैं।
जाने कितने रूप लिए बातें इतराती फिरती हैं,
ठंडी-ठंडी मरहम बातें, तेज़ कटारी बातें हैं।
जब-जब बिगड़ी बात, हमेशा बातों पर इल्ज़ाम लगे,
खड़ी कटघरे में हरदम, कितनी बेचारी बातें हैं।
3
हमसफ़र मिलते नहीं हैं हर सफ़र के वास्ते,
हर ख़ुशी होती नहीं है हर बशर के वास्ते।
आपने पत्थर की मीनारें उगा दीं हर तरफ़,
मैं ज़मीं लाऊँ कहाँ से अब शजर के वास्ते ?
हैं मयस्सर सैंकड़ों फ़ानूस महलों के लिए,
इक दीया भी क्यूँ नहीं है खंडहर के वास्ते ?
दाल-रोटी पर टिकी है ज़िंदगी, माना, मगर,
दाल-रोटी ही नहीं काफ़ी बसर के वास्ते।
रेल, बिजली, कारख़ाने तो जुटा लाए हो तुम,
अब ज़रा तहज़ीब भी लाओ शहर के वास्ते।
4
क्यूँ भला अलफ़ाज़ दाँतों से पकड़कर बोलता है ?
क्या वजह है, आदमी इतना संभलकर बोलता है ?
बोलनी पड़ती है उसको जब कभी भी झूठ की जय,
सोचिए, वो रूह को कितना कुचलकर बोलता है !
नाम दे देते हैं चारागर इसे बीमारियों का,
जब कभी भी आदमी का खूँ उबलकर बोलता है।
ये ज़हन तो जानता है हश्र सच्ची गुफ़्तगू का,
दिल मगर बेबाक है, कुछ भी मचलकर बोलता है।
आप दीवाने हुए हैं, बस यही लगता है वरना,
कौन किसके वास्ते घर से निकलकर बोलता है !
राजन स्वामी
कवि, शायर, लेखक एवं वास्तु शास्त्र विशेषज्ञ राजन स्वामी (पूर्व आई.आर.एस.) गत चालीस वर्षों से साहित्य सृजन के क्षेत्र में सक्रिय हैं। कवि राजन स्वामी का लेखन देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है तथा आपने राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक ‘हिंदुस्तान’ (मेरठ संस्करण) का लगभग दो वर्ष तक वास्तु प्रश्नोत्तर स्तम्भ लेखन किया है। कवि के अब तक एक ग़ज़ल संग्रह ‘अजीब-सा-मौसम’, काव्य संग्रह: ‘परछाइयों के शहर में’, ‘तीन’, ’रस-पंचमी’, ‘इंद्रधनुषी’, वास्तु शास्त्र पर ‘वास्तु शास्त्र और हमारा घर’ एवं ‘जीवन की महक : फेंगशुई’ प्रकाशित हो चुके हैं। वर्ष 2011 में कवि राजन स्वामी को इंडियन ऑइल कौरपोरेशन लिमिटेड गुजरात रिफाइनरी द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कविता प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार से पुरुस्कृत किया गया है।