समकालीन कविता

लीक से हट कर कविताएं

 

कृत्या के इस अंक में हम जन सामान्य की कविताएं लेकर आ रहे  हैं, अर्थातं उन  कवियों की कविताएं जो साहित्यिक हलकों से नहीं आते हैं। ये कवि अपने को कवि कहलाने की न जल्दी में हैं, न गुमान में। वे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े हैं, लेकिन संभवतया साहित्यकारों से अधिक पढ़ते ‍लिखते और सुनते हैं। मेरा इनसे परिचय तीन ताली समूह के द्वारा हुआ, जिसमें लोगों की रुचि देख कर कविता पाठ रखा गया तो महसूस हुआ कि ये सब समाज से , देश से सरोकार रखते हुए कुछ अलग लिख रहे हैं। इनके लेखन में ताजगी भी है, चिन्तन भी। क्यों कि ये साहित्यिक गुटों में पैठ नहीं करते, इसलिए इनकी कविताओं की शिल्प और शैली भी इनकी अपनी बनाई हुई है। आइए इन्हें पढ़ा जाए।

 

रति सक्सेना

 

 

श्रजल बाजपेयी की गजलें 

*

हरदम गले लगाया है रुसवा नहीं किया

इख़लाक के सिवा कोई रिश्ता नहीं किया

 

नीदें तुम्हारे हिस्से की महफ़ूज़ रखीं हैं

हमने तुम्हारी आँख से धोखा नहीं किया

 

कुछ फैसलों की दोनों ने यूँ आबरू रखी

दोनों में किसी शख़्स ने मनका नहीं किया

 

तुमने तुम्हारी हार का मातम नहीं किया

हमने हमारी जीत का जलसा नहीं किया 

**

 

 

उमर भर तो नहीं पत्थर रहूँगा

कोई पल फ़ैसला हक़ का करेगा

 

मेरे राघव भी आयेंगे किसी दिन

मुझे भी छू कोई इंसा करेगा

 

***

 

मतीं लोगों का ही हुजूम जुनूँ ढूंढता है

हम-से लोगों का ज़हन सिर्फ सुकूं ढूंढता है

 

हमको इज़हार तो होना है कोई राह मिले

मिसरा ए शेर मिरा नक्शा ए कू ढूंढता है

 

कौन लिखवाता है ग़ालिब की तर्ज़ पर गज़लें

कौन है जो मिरी आंखों में लहू ढूंढता है

 

इस को मालूम है वो शक्ल जुदा थी सबसे

दिल भी पागल है कि हू ब हू ढूंढता है

****

 

जहां पर खो गया नक़्शा हमारा

वहीं भटका रहा रस्ता हमारा

 

उसी के साथ ही महफूज़ थे हम

वही मझधार में तिनका हमारा

 

हमीं वीरानियां रौशन करेंगे

हमें मालूम है कुनबा हमारा

 

कोई कह दे जियादा हो गई है

कोई अब छीन ले प्याला हमारा

 

यहां हम आखिरी बारी मिले थे

यहीं पर दफ्न है मलबा हमारा

 

अभी किरदार में थोड़ी कमी है

उठेगा देर से  पर्दा हमारा

 

यआनी माफ तुमने कर दिया है

य आनी खत्म पछतावा हमारा

 

कोई अब दूसरा रस्ता निकालो

अभी भी मन नही बहला हमारा

 

*****

 

सो करता क्या ख़ामोशी ओढ़ ली है

उसी का जिक्र जब हर बात में था

 

मुझे तुम आज तक समझे नहीं हो

तुम्हें लगता है मैं गुजरात में था

 

 

श्रजल बाजपेयी वर्तमान समय में सांख्यिकी का शोधार्थी हैं, और छत्तीसगढ़ में रहते हैं । हिंदी गीत,कविता, ग़ज़लें लिखने और पढ़ने का शौकीन हैं। पठन और लेखन का शौक स्वयं तक सीमित रखा है। प्रसिद्ध समूह तीन ताल के सदस्य है, और पहली बार कृत्या के लिए आपकी गजले प्राप्त हुई है।

 

 

 

 

 

मानव देव रावत

 

 

उधार

 

किसी कवि ने कभी कहा होगा

कि जिंदगी के दिन होते हैं चार

लेकिन चार में जो न हो पाए गुजारा

तो मांगने चाहिए कुछ दिन उधार

 

मगर उधार मांगना अपने आप में एक लड़ाई है,

किससे मांगा जाए, कैसे मांगा जाए, कितने दिन के लिए मांगा जाए,

किस पहर मांगा जाए, किस दिन मांगा जाए और कब तक मांगा जाए.

ये वो सवालों की श्रृंखला है जो उधार मांगने के ख्याल के साथ ही पीछे पीछे चली आती है।

 जिस तरह गर्मी के आते ही आता है अपने छोटे कमरे में एसी लगवा लेने का ख्याल।

 

 

मगर उधार किस भाषा में मांगा जाए?

मैं तीन भाषाओं को बोलने समझने का दावा करता हूं मगर उधार मांगते वक्त

इन तीनों भाषाओं के तीन कोटि शब्द और मुद्राएं भी अपर्याप्त मालूम होती है।

तो कौनसी भाषा काम आएगी? शायद वही भाषा जिससे कभी नई प्रेमिका से प्रणय निवेदन किया गया था.

शायद वही भाषा जो कि सच बोल पाने की असमर्थता और झूठ को न कह पाने के बीच में उपजती है

शायद इस बात का प्रमाण है कि उधार मांगने की उचित भाषा तक तय नहीं है.

और उचित भाषा का न होना इस बात का प्रमाण है कि उधार मांगना किसी के लिए सुखद नहीं है।

 

उधार मांगते ही आप खो बैठते है अधिकार बिन बात रूठ जाने का

उधार मांगते ही आप खो देते हैं अधिकार उधार देने वाले से ऊंची आवाज़ में बात करने का

उधार मांगते ही आपको लगता है कि आपने खो दिया है

एक स्वतंत्र मनुष्य कहलाने का अधिकार, नज़रें उठाकर चलने का अधिकार

 

उधार लेते ही पैर भारी हो जाते हैं,

उधार लेते ही ज़बान धीमी हो जाती है

उधार लेते ही हाथ रुक जाते हैं खर्च करने से

 

मगर उधार लेना उतना बुरा यूं भी नहीं है

क्योंकि उधार लेने वाले अक्सर अकड़ पाने का अधिकार खो बैठते हैं

उधार लेने वाले किसी का दिल दुखा बैठने का अधिकार खो बैठते हैं

उधार लेने वाले हो जाते हैं किसी पिंजरे में बंद तोते की तरह,

चाहें भी तो गाली नहीं बक पाते

 

उधार लेना कुछ विनम्र बना देता है

और लगातार उधार लेना लापरवाह

यानी उधार और मदिरा में एक समानता बस यही है

की सही मात्रा में लेने से आदमी विनम्र रहता है

 

मुझे भी चार दिन की जिंदगी में 4 दिन और उधार चाहिए

पिछले 4 दिन मैने गलत तरीके से काटे हैं।

 

बोलो न

 

किन सवालों को न पूछने में भलाई है?

सुरक्षित रहने के लिए आज ये ज़रूरी पढ़ाई है.

गए वो दिन कि हर सवाल का पूछा जाना ज़रूरी था.

जवाबदेही ज़िम्मेदारी थी, ईमानदार होना मजबूरी था.

 

आजकल ऐसी कोई मजबूरी आड़े नहीं आती,

अब सवालों की उष्णा किसी को नहीं जलाती.

अब आसान है चुप रहना.

क्यों बेजा कुछ कहना?

 

न पूछो कि क्यों चैन नहीं पड़ता तुम्हें?

न पूछो कि इसका ज़िम्मेदार कौन है?

मत पूछो कि कसूर किसका था?

मत पूछो काली कमाई का हिस्सेदार कौन है?

 

हां अगर प्रासंगिक बने रहना है तो ज़रूर पूछो

सिर्फ़ प्रासंगिकता ही चाहो तो सबसे अच्छा है.

जवाब की उम्मीद करने से क्या फायदा?

जवाब की ज़रूरत किसको है?

 

उत्तर अब केवल एक दिशा है

उस दिशा में जाकर भी उत्तर न मिलेगा.

न मिलेगा कोई जो ये कहता होगा

कि आओ मैं जवाब दूंगा.

 

कोई न कहता मिलेगा कि हां मेरी ग़लती थी.

कोई न कहेगा कि हां तब मेरी ही चलती थी.

कोई न कहेगा कि मेरा कसूर है.

शराफ़त ही इनका इकलौता शउर है. 

 

छोड़ो न जाने दो, ये सारी बाते

तुम ये बताओ कि कैसे हो?

बोलो न चुप-चुप क्यों रहते हो?

 

संवेदना

 

ज़रा मुश्किल है किसी से नफरत करना

जो जान लो उसके बारे में सब कुछ.

 

सब कुछ, जो वो जानता है खुद के बारे में

सब कुछ, जो वो खुद के बारे में नहीं जानता

 

क्योंकि जान लेना पहली सीढ़ी है संवेदना के ऊंचे पहाड़ की ओर चढ़ने की.

वो पहाड़ जिसपे चढ़ने से आधे लोग डरते हैं.

डरकर ये दावा करते हैं कि उन्हें वो दिखता ही नहीं.

 

आधों को कभी वो पहाड़ सच में नहीं दिखता.

जिस तरह किसी को नहीं दिखती वो हूक

जो उठती है रात में ठंडी दीवार पर लगे बिस्तर से.

 

मुश्किल हो जाता है नफरत करना किसी से

अगर जान लो कि उसने झेला क्या क्या है?

उसने कितनी रातें बिना खाए बिताई हैं,

कितने दिन से वो मुस्कुराया नहीं है.

कितने घंटों से उसने पिया है सिर्फ अपना पसीना

कितने पल उसने अपने जीवन को दुत्कारते हुए बिताए हैं

मगर दुत्कार कर भी सिर्फ उसका जीवन ही है

जो उसके हाथ में बचा है इस बात की कोफ़्त भी है.

 

इस दुनिया में किसी से प्यार करना मुश्किल है या आसान नहीं मालूम

मगर ये मालूम है कि किसी से नफरत न करना आसान है,

बस संवेदना चाहिए. एक सवाल पूछने की. बस हिम्मत चाहिए जवाब सुनने की.

 

मुश्किल हो जाता है किसी से नफरत करना जो ये जान लो कि वो हर रोज़ किस तरह की लड़ाइयां लड़ता है

कभी कामचोर और कभी नाकारा दिखने वाला, न जाने कितनी जंगे रोज़ लड़ता है.

मगर उसे कोई पुकारता नहीं है योद्धा इस बात की भी कोफ़्त है.

 

नफरत के लिए चाहिए होता है कुछ धुंधलापन.

जब सब साफ हो जाता है तो जगह सिर्फ संवेदना की ही बचती है.

और इसी जगह पर रखे मिलते हैं वो जूते जिनमें पैर डालकर महसूस होता है वो भभका,

वो बदबू, वो नमी, जो पैरों में पैदा कर रही थी वो उलझन और बदबू जिससे तुम नफरत करने लगे.

और जब ये सब जान लोगे तो अंदाजा होगा कि नफरत तुम्हें पैरों से कभी नहीं होनी चाहिए.

 

दिक्कत सारी जूतों की थी. ये तब ही समझ आएगा जब वही गंध तुम्हे अपने पैरों से भी आएगी.

 

और समझ आएगा कि ये सब जान लेने में ज़रा मुश्किल है.

क्योंकि ज़रा मुश्किल हो जाता है किसी के बारे में सब कुछ जान लेने पर, उससे नफरत करना.

 

मानव देव रावत की पैदाइश अलीगढ़ में हुई मगर फिलहाल गुज़र बसर नोएडा में करते पाए जाते हैं। फिक्शन, नॉन फिक्शन, कविता, नज़्म, ग़ज़ल, नाटक और कहानी समेत हर विधा में रियाज़-रत हैं। अगर रास्ते में कोई व्यक्ति मदमस्त गाता, सीटी बजाता या ‘जा रे ज़माने चिल्लाता नज़र आए’ तो संभव हैं वही हो। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पढ़ाई लिखाई का दावा करते हैं मगर लोग उन्हें नाटक और गाने बजाने से एसोसिएट करते हैं। उनसे कभी मिलने का दिल हो तो उन तक पहुंचने का प्रयास न कीजिएगा, वो खुद सदाएं सुनते हैं और रिस्पांड करते हैं।

 

 

 

 

अजय जिंदल

 

एक रात ऐसी हो कि

चाँद ना हो आसमान

में चाँद की जगह सूरज

हो और चाँद बैठा रहे

हमारे पास मे असली

खूबसूरती से उसे मिलवाऊं

 

उसे भी जलन का आभास कराऊं

सब देखे होती है क्या हैं सुंदरता जब

मैं चाँद से तुम्हारी तुलना कराऊं

तारों से फिर तुम्हारी प्रसंशा कराऊं

इतिहास के पन्नों पर चाँद की जगह

तुम्हारा नाम लिख कर आऊं और

उन पन्नों को फिर से दोहराऊं

स्वर्ग कि परियाँ मैंने देखी नहीं

पर मुझे विश्वास है कि वो तुम जितनी

सुन्दर नहीं आंखें मछली जैसी

बाल काले घने होठ खून से भी

लाल और तुम्हारी मुस्कान जैसे

तीखी छुरी की धार तुम चलो

तो ऐसा लगे जैसे नदी बहती हो

सच बताऊं तुम्हारे जैसी सुंदरता

कही और मैंने देखी नहीं तुम्हारी

वाणी वीणा, जैसी तुम्हारी अदाओं

के तो क्या ही कहने तुम मुस्कराओ

तो कुदरती करिश्मा लगे तुम्हें

तुम्हारे नाम से नहीं सुंदरता नाम

से बुलाऊं सुंदरता शब्द कि शोभा

तुम्हें सम्बोधित करके और बढ़ाऊ

तुम से मिलकर जाना मैंने सुंदरता

होती क्या है इससे पहले तो मैं चाँद

को सुन्दर कहता था ।

 

 

तुम जब आवो

 

तुम जब आवों मिलने तो

साथ मे कुछ पानी और

घंटो वक्त बिताने की

क्षमता लेकर आना

लोगो कि बातें याद रखना

तुम पर हमारी बातों के बीच

वो घिसी‍ पिटी बाते लाकर

हमारा कीमती समय ना खराब

करना तुम जब आवों मिलने तो

घर से थोड़ा लंबे समय का

बहाना लेकर आना

 

अजय जिंदल है , विद्यार्थी हैं, उम्र 22 वर्ष है और झुंझुनूं, राजस्थान के निवासी हैं।

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