समकालीन कविता

राजीव तिवारी

 

स्मृति

 

स्मृति बहुत बाद में साथ छोड़कर जाती है
शरीर पर से पूरी पकड़ छूटने से
कुछ समय पहले तक साथ रहती है
बहुत बार अंतिम सांस तक

स्मृति जब सांसों के जाने से पहले चली जाती है
बची हुई सांसों को जीना
बोझ ढोना भर रह जाता है

जीवन सांसों के चलने तक है
पर जीना स्मृति के रहने तक ही

स्मृति है तो चेतना है
दो कहां हैं दोनों ।

 

युद्ध का अर्थ

 

युद्ध का अर्थ समझने के लिए
हमें उस घर में जाना होगा
जहां छुट्टी पर आए फ़ौजी को
वापस लौटने का फरमान
अभी अभी आया है

उस आंगन में जाकर
समझ सकते हैं हम युद्ध का अर्थ
जहां ताबूत में एक शहीद का शव शरहद से लौटा है
बेवा हो गई उसकी पत्नी
अनाथ हो गए उसके छोटे छोटे बच्चों
संज्ञा शून्य हो गए उसके बूढ़े मां बाप से मिल लेने के बाद
युद्ध के चेहरे और हमारी आंखों के बीच पड़ी
बहुत सी परतें हट जाएंगी फिर

 

युद्ध का अर्थ समझने के लिए
वह इलाका हो जाना चाहिए हमें
जहां फिज़ा में वार सायरन की गूंज है
जमीन पे टैंकों की गड़गड़ाहट
और आसमान पे
बमवर्षक विमानों का कहर
जहां किसी भी समय
कोई मिसाइल कोई बम कोई गोला
दागे जाने का अंदेशा है

 

अपने सुरक्षा बंकरों में छिपकर
ओजपूर्ण लफ्फाजी करने वाले राष्ट्राध्यक्षों के
बड़े बड़े दावे प्रति दावे
टीवी चैनलों के भोंपू एंकरों की जमात
उनके जर्नल कर्नल गेस्ट
सैन्य आयुधों की माइक्रो डिटेलिंग
युद्ध से जुड़े रोचक लोमहर्षक किस्से
व्याघ्र गर्जना
बहुत सहायक नहीं होते हमारे लिए
युद्ध का अर्थ समझने में

इतिहास की किताबें
युद्ध से जुड़ी
तारीखों घटनाओं
नायकों खलनायकों के बारे में तो बहुत कुछ बताती हैं
पर वहां
आम आदमी के रोज़मर्रा के जीवन पर
युद्ध के पड़ने वाले प्रभाव का
कोई विस्तृत जिक्र नहीं होता
किसी सैनिक के शौर्य पराक्रम
कायरता और समर्पण के बहुत चर्चे रहते हैं
पर उस पर उसके परिवार पर
जो कुछ गुजरता है
युद्ध से ठीक पहले
और युद्ध के बहुत दिनों बाद तक
वह छूट जाता है प्रकाशित होने से
कुल मिलाकर इतिहासकार
युद्ध के बारे में सतही बातें ही बता पाते हैं

 

युद्ध उन्माद कहर पीड़ा शौर्य पराक्रम जय पराजय अभाव उपलब्धि उमंग उत्सव अपराध कालाबाजारी आत्मरक्षा महत्वाकांक्षा
और भी बहुत बहुत कुछ होता है
एक युद्ध के कई चेहरे और अनेकों आयाम होते हैं ।

 

कर्फ्यू में शहर

 

कौमी फसाद के बाद कर्फ्यू लगा है शहर भर में

सड़कें सूनी हैं
पुलिस की गाड़ियां गश्त कर रही हैं
चप्पे चप्पे पर प्रशासन की नज़र है
सायरन और मेगाफोन की आवाज़ गूंज रही है
जानवर परिंदे दरख़्त फूल पत्ते
सब सकते में हैं

 

अपनी छाया और अपनी आहट तक संदिग्ध लगती है
नफ़रत आशंका दहशत और प्रतिशोध से भरे हुए हैं लोग
हवा में मांस लहू आग और बारूद की गंध घुली हुई है

 

मोबाईल का नेटवर्क बंद है
टीवी और अखबार में छनी हुई खबरें ही आ रही हैं

 

अफवाह हवा के कंधे पे चढ़ के
जहां तक पहुंच सकती है
पहुंच रही है
जो है उसे और भी बड़ा कर रही है
जो नहीं है उसे खड़ा कर रही है
कहीं हवा में आग लगा रही है
कहीं सुलगती आग को लहका रही है

 

ऊंची और मंझौली हैसियत वाले लोग
राशन और सुरक्षा के पूरे बंदोबस्त के साथ
दुबके पड़े हैं घरों में

 

रोज कुआं खोदकर पानी निकालने वाले बेतरह परेशान हैं
हर हाल में लौटना चाहते हैं अपने काम पर
उनके घर का चूल्हा बुझा पड़ा है
मजहबी नफ़रत की आग से

 

फसाद के उर्वरक से
सियासतदानों की खेती और लहलहा उठी है
आदमी को भीड़ में
भीड़ को वोट में तब्दील कर
वे दूर से तमाशे का मज़ा ले रहे हैं

 

मज़हब के स्वयंभू अलमबरदारों का
सारा वक्त इसी गुणा गणित में बीत रहा है
कि किसी भी हाल में
आपसी नफ़रत की आग की लहक मद्धम न पड़े

 

दोनों जमात में जो इंसान हैं
तेज आंधी में दीए को बुझने से बचाने की काविश में
अपना दामन तक जला रहे हैं

 

बच्चे अव्वल तो समझ नहीं पा रहे
पहले जो हुआ वह क्यों हुआ
अब जो हो रहा है वह क्यों हो रहा है
उन्हें घरों में क़ैद होना
पिंजरे में पाबंद होने जैसा लग रहा है
दोस्तों से मिलना स्कूल जाना
खेल के मैदान तक पहुंचना
सबकुछ अचानक से छीन गया है उनसे ।

 

रात की रिपोर्टिंग

 

अचानक से खुल गई है नींद रात के तीसरे पहर में
बिस्तर से उठकर खुद से बाहर निकल आया हूँ

 

तारों के लश्कर के साथ
पहरे पे तैनात है अधकटा चांद

 

वृक्षों के नीचे
शांति की नींद में पड़ी है छाया
हौले हौले झकझोर रही है जिसे हवा
कांप रही है विरल काया

 

सूखे पत्तों की झुरमुटों में रेंग रही हैं
भय और रहस्य की आहटें

 

सोए नहीं हैं सब चरिंद परिंद
जाग रहे हैं कुछ अब भी
अपनी बोली में सबसे बोल रहे हैं

अनिद्रा की मारी एक गिलहरी को चुहल सूझी है
कूद रही है पेड़ की एक डाली से दूसरी पर

 

दूर बहुत दूर
पहाड़ की तलहटी में बहती किसी नदी की कलकल
सुनाई पड़ रही है
एक स्त्री एकांत में स्मृतियों को बरतने के लिए
कोई पुराना फिल्मी गीत गा रही है

 

घर से थोड़ी दूरी पर बायपास सड़क है
गुजर रही हैं बहुत तेज रफ्तार में जिस पर गाड़ियां
पास की गली से कुछ लोग गपियाते हुए गुजर रहे हैं
आवारा कुत्ते बहुत दूर तक उनके पीछे पीछे जा रहे हैं।

 

आंधी पानी 

 

काली बदरी कोने कोने में आकाश के अटी पड़ी है
भरी दुपहरी में सांझ हुई पड़ी है

धारासार हो रही है वर्षा
लबालब हो रहे हैं नदी सागर
छलक रहे हैं ताल तलैया
भर रहे हैं गड्ढे डबरे
घर आंगन में बह रहे हैं सोते

रह रह कर चमक रही बिजली से चौंधिया रही है आंखें
मेघों के कर्णभेदी गर्जन हृदय पट पर वज्र दंड से पड़ रहे हैं

जटाएं खुली हैं उसकी पूरी
क्रुद्ध हवा सीने के जोर से चीख रही है

कहीं पेड़ गिर रहे हैं कहीं डालियां
बिजली के तारों पे फूस के छप्परों पे
जीर्ण शीर्ण हो चुके घरों पे भी
आफ़ात गुजर रहे हैं

डरे सहमे पशु पक्षी दुबके पड़े हैं सायबानों में
इंसान भी ठहरे से हैं
ठहरे से हैं दुनियां के कारोबार सब ।

 

राजीव कुमार तिवारी भारतीय रेल के आसनसोल मंडल के जसीडीह स्टेशन पर कार्यरत ),संप्रति स्वतंत्र लेखन , प्रकाशित पुस्तक – ” आधी रात की बारिश में जंगल “, बोधि प्रकाशन, जयपुर ,आजकल, कथादेश, परिकथा, वागर्थ, साक्षात्कार, मधुमति, कृति बहुमत, Indian literature, समकाल, रचना उत्सव, कवि कुम्भ, दैनिक हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, अहा जिंदगी, छत्तीसगढ़ मित्र आदि पत्र पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित

ऑनलाइन – हिंदवी, हंस, kritya,The Wire, हिंदीनामा, JIPL आदि, प्रोफेसर कॉलोनी, बिलासी टाउन, देवघर, झारखण्ड, Mobile 9852821415

 

 

 

आदित्य कुमार

 

एक क्रांतिकारी का बयान

 

देह की समस्त पीड़ाएँ

लिटाई जाएँगी मेरे साथ

कुछ जला दी जाएँगी

धधकती लपटों द्वारा

कुछ धुएँ का हाथ थामे

उठेंगी ऊपर

नीली छतरी में छितराएँगी

जब टकराएँगी

बादलों के जोड़ दुखेंगे

जिस नदी में बहेगी

मेरे पीड़ा से लिथड़ी मेरे जले देह की राख

विषैला होगा उसका पानी

रोहू–मंगूर की देह टूटेगी

सींचा जाएगा फ़सल जो

वो हरा नहीं, लाल होगा

आँख: लाल। ख़ून : लाल। पीड़ा : लाल।

मेरा संघर्ष, मेरी अपनी मूक क्रांति : लाल।

 

उदासी : आगमन

 

जिस तरह

बचपन में आया करती थीं बुआएँ

इस तरह नहीं आती

ना ही

गेहूँ कटने के दिनों

आती आँधी की तरह

ना ही बरखा की तरह

भादो की

परिचित– प्राचीन विकल उदासी—

टूटती है देह जिसमें

दिशाएँ समा जाती हैं शून्यता की खोह

मन तीर लगे मृग–सा छटपटाता है बेचैन

— चलती है तो उसके कदमों की

आहट नहीं मिलती

वो आती है ज्यों

धँसती हैं आँखें

जाती है उनकी रोशनी

उसके नीचे आधा स्याह चाँद उभर आता है

•••

भर दुपहरी

बैठा रहा कमरे में

मैंने उसे आते हुए नहीं देखा

साँझ

घिर आई है

मैं उसे आ चुका पाता हूँ

 

विकल्पहीनता

 

एक नदी थी

जिस नदी तीरे

बौर लदे आम्र वृक्ष के नीचे

हमने किया था प्रण

नदी में साथ उतरने का

संग बहने का

जब वक्त आया

हम एक ही नदी में

एक साथ उतरे

एक सी नाव हमारी

एक से हमारे पतवार

पर हाय!

मेरे सामने तुम—

केवल तुम!

और तुम्हारे सम्मुख

दिशाएँ चार

 

 

कविता की ज़मीन

 

कविता जीवनदायिनी थी

कविता लिखना था जीना

दुःख के जेठ में

नहीं लिखी गई कोई कविता

ना ही दुःख के भादो में

तलाशता रहा मन ताउम्र

दुःख का सावन

रिमझिम फुहार

टटोलता रहा दुःख का हर गड़हा

कि पानी केवल घुटनों तक आए

छाती तक नहीं

 

“समय नहीं है” का समय

मूल्यवान चीज़ों की पहचान थी

मद्धम गति उनकी

आज गुपचुप ढंग से

तेज़ी से

हो जाता है घटित

सब कुछ

जल्दी–जल्दी आँखों के आगे से

गुज़र जाते हैं लोग

जल्दी से मैं लोगों का गुजरना गुज़ार

हड़बड़ी में दुपहरी काट देता हूँ

जल्दी–जल्दी चलती हैं साँसे

जल्दी–जल्दी बहता है पसीना

जल्दी–जल्दी दरवाज़ा खोलता हूँ

दक्खिन के आकाश में

आनन–फानन में लटका बादल मटमैला

बादल की ओट में

दीवार, ग़ज़ल, भूख, थकान…

जल्दी–जल्दी मन में घुलता

खालीपन का चिर–परिचित स्वाद

जल्दी–जल्दी घर की याद

हाय! कितनी जल्दी साँझ।

भारतीय डाक सेवा में कार्यरत। कवि लेखक।

 

 

 

 

 

 

 


अनन्त आलोक

 

 

अंतिम संस्कार

 

हम दोनों के प्रेम के बीच
देह सिर्फ उतनी आई
जितनी जरूरी थी
हम सदियों हँसे हैं
एक दूसरे की बातों पर
एक दूसरे को देखते हुये
बातों बातों में
एक दूसरे की पीठ पर धोल जमाते हुये
हमने जी हैं सदियाँ
उम्र के एक अंतराल में
हम बारंबारता में बैठे हैं सदियों
एक दूसरे के निकट
एक दूसरे के आमने सामने
एक दूसरे से सट कर भी
एक दूसरे की ऊष्मा को महसूसते हुये
बिना पिघले
बिना बहके
महकते रहे सदियों तक
बारंबारता में
हम दोनों की अपने अपने हिस्से की उम्र
और हम दोनों का प्रेम
समानुपाती है
अंधे होने के बावजूद
हम दोनों जानते थे अच्छे से
किसी अनुबंध में बंधना
प्रेम का अंतिम संस्कार होगा
हम जी रहे हैं
अपने अपने हिस्से का प्रेम
सदियों से
अपने अपने साथ ।

 

जागते रहो

 

सुबह जब तुम
सो कर उठोगे
मारे जा चुके होंगे
बांग देने वाले
सारे मुर्गे
फोड़ दी जा चुकी होंगी
अलार्म बजाने वाली
तमाम घड़ियाँ
मोबाइल
उत्तर दिशा में लटका
ध्रुव तारा
उड़ा दिया जा चुका होगा
एक गोली से
सफ़ेद कबूतर की तरह
दुनिया के तमाम सफ़ेद कबूतर
खाए जा चुके होंगे
भून कर
तुम्हारी नींद न खुले
और दिशा से भ्रमित करने के
सभी प्रबंध किए जा चुके हैं
मुकम्मल
जिस सूरज से बांध कर आस
तुम सोए हो घोड़े बेच कर
उसके अपने ही घोड़े
ले जाकर छोड़ देंगे उसे
चक्रव्यूह के भीतर
और रथ को छोड़
स्वयं चरने लगेंगे
हरी हरी भांग।

 

शांति

 

बेशक
घुंघरू वाली लाठी लिए
दौड़ते संदेश
चलने लगे घोड़ों पर
और फिर चिट्ठियों के भीतर बैठ
करने लगे सफ़र
समय और तेज दौड़ा तो
ईमेल, व्हाट्सएप
वगैरह वगैरह से उड़े
हाथ से हाथ और
कान से कान तक
मन की गति पर
इसके बावजूद बेरोजगार हुये
कबूतरों की सबसे अधिक जरूरत
महसूस हो रही है
आज
ऐसे वक्त में
जब शंकाओं से घिरा हुआ है
नीला गृह
पृथ्वी के किसी छोर से छोड़े गए
सफेद गुब्बारे भी हो सकते है
शिकार किसी मिसाइल का
सोचता हूँ
कुछ जोड़ी कबूतर पाल लूँ
दिन रात करता रहूँ
गुणा और करता रहूँ मुक्त
चारों दिशाओं में।

 

युद्ध-1

 

हैरत ये नहीं
कि सदियों से जारी है युद्ध
उजाड़ी जा रही हैं बस्तियाँ
उड़ाई जा रही हैं छतें, गिराई जा रही हैं दीवारें
उखाड़ी जा रही हैं
भुजाएं जड़ से
उतारी जा रही हैं
गर्दने धड़ से
छीनी जा रही हैं दुधमुहों से
दूध की अज्रस धाराएं
नन्हें-नन्हें हाथों से छीने जा रहे हैं
नेह और सुरक्षा के आँचल
खिसकाई जा रही हैं
पाँव तले से जमीनें
तमाम सलामत आँखों के देखते हुए

हैरत सिर्फ इतनी है
कि सभ्यता के इतने वर्षों बाद भी
इसी सभ्यता के शब्दकोष में आज भी दर्ज है
एक शब्द
युद्ध
और हम
खुद को सभ्य लिख रहे हैं !

 

युद्ध-2

 

अगर लड़ना जरुरी है
तो लड़ें।
गाँव के किसी मेले में
किसी कुश्ती की तरह।
और हार-जीत के बाद
गले लग जाएँ।

अनन्त आलोक –
प्रकाशन : हंस, कथा क्रम, वागर्थ, वीणा, लहक, बया, विपाशा, सरस्वती, अहा ! जिन्दगी, सोमसी, हिमभारती, हिमप्रस्थ, बाल हंस, बाल भारती, बाल किलकारी, आदि शताधिक पत्र पत्रिकाओं एवं ऑनलाइन पत्रिकाओं में कहानियां, कवितायेँ, ग़ज़लें, लघुकथाएं, बाल कथाएं , बाल कवितायेँ, आलेख एवं समीक्षाएं प्रकाशित एवं असंख्य संकलनों में संकलित|
विशेष : सिरमौरी में लिखे लोकगीत प्रसिद्ध लोकगायकों द्वारा गायन एवं फिल्मांकन| कविताओं का अंग्रेजी, पंजाबी और नेपाली में अनुवाद किया है।
अनेक कवि सम्मेलनों ,मुशायरों एवं लघुकथा सम्मेलनों में निरंतर भागीदारी की |सिरमौरी कहानी -पापड़ा का हिंदी अनुवाद एवं साहित्य अकादमी दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक में संकलन| हिमाचली संस्कृति में रूचि एवं निरंतर लेखन| हिमाचली लोकगीत- गंगी का विशेष शास्त्रीय अध्ययन एवं शोध।
सम्मान : सिरमौर कला संगम हिमाचल प्रदेश, हिमोत्कर्ष, शंखनाद मीडिया, नेपाल में युवा प्रतिभा सम्मान सहित स्पेक्ट्रम हिमाचल द्वारा सम्मान।
संपर्क : साहित्यालोक बायरी डाकघर एवं तहसील ददाहू जिला सिरमौर हिमाचल प्रदेश 173022
मोब 9418633772

 

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