
समकालीन कविता
विपिन चौधरी की कविताएं
ठहरना
ठहरना
अब ठहरना
दूर की चीज़ों पर
करीब की नज़र बनाये हुए ठहरना
दूरियों के लिए ठहरना,
दूरियों के याद रखने और भूल जाने के अंतरदोष को
नज़रअंदाज़ कर ठहरना
ज़मीन पर रखते हुए,
आसमान के लिए ठहरना
एक जिद के पास ठहरना
एक याद में ठहरना
अपने होने में,
ठहरना
इतने ठहरावों में एक साथ ठहरना
थमी हुई हर चीज़ के लिए,
ठहरना
बिना किसी पुकार के
दूर कहीं जाती पगडंडी पर
डगमगाते हुए चल देने के लिए
ठहरना
देखना, स्वाहा होना
मेरा यह जीवन एक दृश्य से अधिक क्या चाहता है ?
ऐसा दृश्य जो गहरी सांस लेता हो
नाजुक हरकतों की बात जानता हो
जिसे स्मृति में धड़कना आता हो
आता हो नींद में पाँव पसार,
सोना
जब मैं दृश्य को देखूँगी
उतरूँगी उसमें सलीके से,
ठहरूँगी
उस दृश्य के साथ चलती एक अदृश्य दुनिया को पहचान,
उसके साथ-साथ हो लूँगी
मगर उसे अपनी गिरफ़्त में लेने से बचूँगी
उसे देखूँगी
सिर्फ़ देखूँगी
कि देखने का भी एक संसार है
हर बार बनते-बनते रह जाता है जो
मेरे पलक भर
न
देखने
से
विचार
हर विचार का एक भरा-पूरा संसार है
सबसे सुंदर है उस विचार का संसार
जिसमें दिनभर प्रेम की मीठी आवाज़ाहियाँ बनी रहती हैं
एक विचार वह भी है जिसका संसार झर चुका है
जिसके कपाट अब जंग से अटे पड़े हैं
विचारों के ऐसे कितने ही संसारों में
गोता लगाते हुए
नींद के जल में चुपके से बहा दिए गए
वे विचार
जिनके आगे सारे हथियार कुंद हो गए थे
जिन्होंने हमें खुद से जुदा कर दिया था
मगर वे कभी गल नहीं पाए
उन्होंने अपना संसार साबूत बचा लिया
अब वे मेरे जागरण में रहने लगे हैं
अब वे विचार नहीं,
स्मृति हैं
छूना
इस संसार को सिर्फ़ छूना
इसका कोई भी किनारा
मत पकड़ना
लौट आना बरबस अपने भीतर
यह ठिठक कर यह सोचना,
कितना कुछ सँवारने का काम बचा है
भीतर
बच्चे की तरह अक्सर रूठे रहने वाले इस संसार को
भरकस मनाने का जतन भी करना,
इसकी एक कोर काटना,
चबाना
जूझना इससे लगातार
यह सब रजकर करना
मगर इस संसार को सिर्फ़
छूना
भवेश दिलशाद की 5 ग़ज़लें
———————————————
1
हवाओं से समझौता करना पड़ा
वो ख़ुशबू थी उसको बिखरना पड़ा
बहुत थोड़ी सी उम्र हिस्से में थी
मुझे रंग बनकर उभरना पड़ा
नहीं यूं ही आशिक़ गुलों को मिले
बहुत मुजरा कोठों में करना पड़ा
इक उम्मीद कमबख़्त ज़िन्दा रहे
सो कितने ही ख़्वाबों को मरना पड़ा
समाया न जब वुस्अतों में तो फिर
ये जीवन भी बीजों में भरना पड़ा
….
2
माना कि फूल पत्ते शाख़ों से झड़ गये हैं
रुत फिर हरा करेगी जो पेड़ उजड़ गये हैं
झगड़े तो हम हमेशा अब ऐसे लड़ गये हैं
हमसे कहीं हमारे बचपन बिछड़ गये हैं
देखो ये मेरी दुनिया मेरा वतन मेरा घर
वो बाप हूं मैं जिसके बच्चे बिगड़ गये हैं
क्या जाने चांद-सूरज कहते हैं कान में क्या
बरसे नहीं हैं बादल घुम-घुम घुमड़ गये हैं
जज़्बात दिल के दिल में रह-रह के सड़ न जाएं
कुछ खौफ़ हर ज़ुबां पर इक ताला जड़ गये हैं
….
3
चार दीवारी में दर है ये ख़याल अच्छा है
एक है अपना है घर है ये ख़याल अच्छा है
तुझसे बिछड़े हुए हैं उजड़े हुए हैं कबसे
अभी मरने में कसर है ये ख़याल अच्छा है
तुमपे करने को है दावा कि तुम्हीं तुम सच हो
हमपे कहने को इधर है ये ख़याल अच्छा है
क्या बुझाएगा ये पानी हवा हो जाएगा
आग ही आग अमर है ये ख़याल अच्छा है
जो भी है अच्छी बुरी जैसी भी है ये दुनिया
ये किसी और का हुनर है ये ख़याल अच्छा है
….
4
जिस तरह साये निकलते हैं उजालों से यहां
ज़िक्र यूं आया मेरा तेरे हवालों से यहां
कौन सी चीज़ है जो ख़त्म नहीं हो सकती
पूछते ही रहे हम तेरे ख़यालों से यहां
अपनी आगोश में ले ले जो समेटे भरपूर
सदी प्यासी है उसी लम्हे की सालों से यहां
चाबियां गुम चुकीं या भूल चुकीं फ़र्ज़ अपना
क़ैदियों का ये है बतियाते हैं तालों से यहां
देखना है हमें गुम होके तेरी ख़्वाहिश में
क्या उजाले भी निकलते हैं ख़यालों से यहां
….
5
अभी सूरज नहीं निकला अभी दूबों पे शबनम है
वो अपने अधजगे सपने में है पलकों पे शबनम है
वफ़ा जो करती रहती हैं वही आंखें ये कहती हैं
सुनो बारिश का मौसम है सुनो पत्तों पे शबनम है
हजारों वहम हैं पीछे नज़र आते हैं बस आंसू
इधर से धुंध दिखती है उधर शीशों पे शबनम है
ये कोई याद होगी चलते-चलते थम गयी होगी
ढुलककर माथे से अटकी हुई भौहों पे शबनम है
….
चार नज़्में/कविताएं
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1. मन
है मन में खिड़की..
खिड़की में गमला
गमले में मिट्टी
मिट्टी में पौधा
पौधे में ख़ुशबू
ख़ुशबू में जादू
जादू में बंधन
बंधन में उलझन
उलझन में ग़ुस्सा
ग़ुस्से में ग़लती
ग़लती में खोना
खोने में रोना
रोना में चिंतन
चिंतन में फिर मन
फिर मन में खिड़की..
फिर मन में खिड़की
खिड़की में पंछी
पंछी में इच्छा
इच्छा में अंबर
अंबर में माया
माया में मिथ्या
मिथ्या में चक्कर
चक्कर में भटकन
भटन में दुर्गति
दुर्गति में कुण्ठा
कुण्ठा में सपना
सपने में जगना
जगने में मंथन
मंथन में फिर मन
फिर मन में खिड़की..
फिर मन में खिड़की
खिड़की में दीया
दीये में समरथ
समरथ में सूरज
सूरज में ऊर्जा
ऊर्जा में विप्लव
विप्लव में रचना
रचना में अक्षर
अक्षर में आशा
आशा में जीवट
जीवट में यात्रा
यात्रा में चेतन
चेतन में जब मन
तब मन में कण कण
दर्शन ही दर्शन.
….
2. मैं और तुम
मैं बासी हूं तुम ताज़ा
मैं दस्तावेज़ी तारीख़ी, तुम अंदेशा अंदाज़ा…
बदअम्नी का कल्चर हूं मैं, कल्चर की बदनामी तुम
सुनो! कोख मैं अय्याशी की, पैदाइशी हरामी तुम
मैं जड़ हूं तुम फूल-फूल
मैं अकड़न-जकड़न अंट-शंट, तुम निहायती ऊलजलूल…
खड़ूस खूसट बुड्ढा हूं मैं, जाहिल हट्टे-कट्टे तुम
चमन कर चुका वीराना मैं, मुझ उल्लू के पट्ठे तुम
मैं छलावा हूं तुम पाप
मैं मज़हब के भेस में ज़हर, तुम सत्ता चोले में सांप…
सैंतालीस और चौरासी मैं, तुम अभी-अभी का दंगा
पाप नहायी लाश पटी मैं, तुम ख़ून सनी हो गंगा
तुम ताज़ा हो मैं बासी
तुम लाशों का इक एपिक हो, मैं क़ब्रों की फ़न्तासी…
तुम नफ़रत तेज़ तर्रार हो, मैं वहशत अच्छी ख़ासी…
…
3. दुनिया सो रही है
जब तमाम ख़्वाब टुकड़े-टुकड़े हो चुके
टुकड़ों-टुकड़ों में जागना भी कोई जागना है?
एक बासी जम्हूरियत की ज़मीन पर
एक बोसीदा शोर उठता है
क़हक़हों की शक्ल लेकर उड़ता है वापस
एक नातवां जम्हूरियत की तरफ़
शब्दों में पोशीदा जो कविता है
ये शोर अस्ल में, उस पर हमला है;
कविता के बदन पर नील पड़ते हैं
मस्कत* से रबात के सफ़र में
शायरी के पांव लहूलुहान हैं
पुरख़ार हैं गाज़ा* से देआर* तक बिछे जंगल
सूखे प्यासे दरख़्तों के मुक़द्दर में
कोई फुहार हो सो हो, दर्या कहां?
कभी तेहरान की ज़मीन पर गिरकर
कोई शहतूत धब्बा हो जाता है
कभी काले गुलाब रौंदे जाते हैं
मिनस्ता* की ज़मीन पर ख़ून के धब्बे
दाग़ की नज़्म होकर चांद नज़र आते हैं…
कभी थेम्स तक उठते हैं ज्वार ऐसे
दक़ियानूसी गोरों के बुत गिराते हैं
उधर भाटों में कश्तियां डूब जाती हैं
कभी सिन्ध में बेआवाज़ घंटियों की
कभी चीन में पुरानी तुर्क टोपियों की
किसी सूराख़ से रोशनी की दस्तक है
किसी कमरे में मुसलसल पहरे धुओं के…
जैसे किसी इंतज़ार की एक रस्सी है
रात की सुलगती सिगड़ी सर पे रखे
जिस पर ज़िन्दगी करतब दिखाती है
एक भरोसा जिलाये जा रहा है
कि सूरज हो जाएंगे चिंगारियों के फूल
अभी मदारी अपनी छड़ी घुमाएगा
देखते-देखते नज़्ज़ारा बदल जाएगा
ये काला रूमाल नारंगी दुपट्टा नज़र आएगा…
कराबाख* की कोख में जो बारूद पलता है
वादी में उसी ख़्वाब का केसर उगता है
इधर, दिल्ली में कोई नयी उम्मीद
कई महीनों सब्ज़ा दिखाती है
उधर, कीव में सूरज डूब जाता है
वो बेरूत जलता है और नींद आती है…
एक आग की दुनिया है, एक नींद की
एक ख़ला है इन दोनों के दरम्यान
जहां भटकती रहती है जिब्रान* की आवाज़
‘आज़़ादी के वास्ते जागना लाज़िम है’
मक़सद और इरादे की दुनाली में भरकर
ख़्वाब को जहन्नुम पर दागना लाज़िम है…
पूरब में कहीं नींद उचटती रहेगी?
पच्छिम में कहीं ख़्वाब चटकता रहेगा?
कहीं हल्के से कंपकपाती रहेगी
वस्त में रात के पैरों तले बिछी ज़मीन?
उत्तर और दक्खिन की दो आंखों में
जमी रहेगी चुप्पी की बर्फ़…!
कब तक उंगलियों के बीच इतनी दूरी रहेगी?
टुकड़ा-टुकड़ा आसमान पूरा कैसे रंगेगा?
आख़िर हर सुब्ह कब तक अधूरी रहेगी?
….
4. देख रहे हो सर्वेश्वर!
कहीं गिर रहे हैं बम
धमाके ही धमाके
कहीं आतिशबाज़ियां
पटाखे ही पटाखे
कहीं आहें कराहें
चीख़ें ही चीख़ें
कहीं क़हक़हे
हंसी-ठठ्ठे और ठहाके
आ गये हाथों में गर्मागर्म पत्थर
बुझी पड़ी है ताक़ पर अक़्लमंदी
ज़ेह्नो दिल में जब नहीं रही
कपास और तेल की जुगलबंदी
तो कल की मरती आज मर जाये
दुनिया यूं ही जल जाये अफ़सोस क्या है…
कोने के घर से उठ रही हैं लपटें
तड़प रही हैं रूहें सड़ रही हैं लाशें
चार घर छोड़कर बन रहे पकवान
बंट रहे नेग बधावे खील बताशे
चार घर बहुत दूर की बात है?
तो ये है अपने घर का हाल
जल-जल राख हो रहा एक कमरा
बाक़ी कमरों में जगमग दीपों के थाल
बस काग़ज़ी नक़्शा रह गये देश-दुनिया
देख तो रहे हो सर्वेश्वर दयाल?
ये जो भीतर मचा है घमासान वबाल
तुमसे कहा है अपने तक रखना
कल के मरते आज मर जाएं ये लोग
मुझे भी अब इनसे कुछ नहीं कहना
— भवेश दिलशाद
क़ुदरत से शायर और पेशे से पत्रकार। ग़ज़ल रंग सीरीज़ में तीन संग्रह ‘सियाह‘, ‘नील‘ और ‘सुर्ख़‘ प्रकाशित। इन दिनों संपादक—आब-ओ-हवा। रचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद… में विशेष दक्षता। साहित्य की चार काव्य पुस्तकों का संपादन। पूर्व शौक़िया रंगमंच कलाकार। साहित्य एवं फ़िल्म समालोचना भी एक आयाम। वस्तुत: लेखन और कला की दुनिया का बाशिंदा। अपनी इस दुनिया के मार्फ़त एक और दुनिया को बेहतर करने के लिए बेचैन।
रूपेश चौरसिया
1.
मैं एक हादसे की तरह जन्मा
मुझ पर पहला अधिकार रूदालियों का है
मेरी उम्र दुःखों को कुतरने में बीत गई
जबकि मुझे बच्चों से पतंग उड़ाना सीखना था
मेरे खून से
अधपके सपनों की गंध आती है
गंदी नाली में अपनी परछाई
देखकर कभी चौंका नहीं
इस पर भी हैरान न हुआ कि
लोगों ने मेरे विकृत नाम से चिढ़ाया मुझे
वे सारे उच्चारण जो मेरे लिए नहीं थे
मेरी आत्मा से चिमट गए
मेरी भाषा में घुला है मेरे पूर्वजों का जहर
मैं बदहवास भागता रहा मेरे प्रतिबिंब की ओर
जैसे अभी-अभी चलना सीखा है कोई बच्चा
मुझपर नाम की मोटी परत जम गई
कोई अघोरी आकर उघारेगा मुझे पूनम की रात में
2.
स्वांगपुरुष
उसने प्रेम को ओढ़ लिया है —
जैसे राजा किसी उत्सव में ओढ़ता है चोला
सिर्फ़ तस्वीर के लिए।
वह एक मिथ्या-ऋषि है
जो सत्यवती की नाव में बैठ
नदी पार करने का अभिनय करता है,
डूबने का साहस नहीं रखता।
“मैं तुम्हारे लिए मर सकता हूँ”
— यह उसका सबसे प्रिय संवाद है,
जैसे पुरानी फिल्म का दोहराया गया क्लाइमेक्स,
जहाँ नायक मरता नहीं,
केवल कैमरा कट करता है।
उसने प्रेम को
प्रस्तावना की भाँति रचा है,
मुखपृष्ठ सुशोभित है,
पर भीतर केवल रिक्त पृष्ठ हैं—
न लिपि, न ध्वनि, न अनुभव।
उसकी प्रेमिका जानती है—
यह सब लाक्षणिकता का विषवृक्ष है,
जिसकी छाया में
ना विश्राम है, ना स्वप्न।
किन्तु वह चुप है—
क्योंकि इस युग में
श्रद्धा भी संशय के साथ जन्मती है।
3.
खुशबू का एक कतरा जो बोया था तेरे सीने में कभी
अंधेरे में पत्थर हो गया होगा सूखकर
रह रहकर एक टीस उठती होगी सीने में
दर्द से बिलबिला उठती होगी रात के तीजे पहर
देखना किसी अंधेरी रात में
भादो की आखिरी बरसात
चुपके से खिड़की से निकल जाएगा
तुम ज़ुकाम के डर से छत पर नहीं जा पाओगी
नाक बड़ी कुत्ती चीज है मेरी जां, हर जगह घुस जाती है
मेरा क्या है
मैं इंसां न बन पाया, दीमक बन जाऊंगा
किताबों के बीच दबकर मर जाऊंगा
तुम हूर हो, फरिश्तों में रहना है तेरा
जन्नत से बाहिर किस कदर आओगी भला?
4.
मेरा नाम गिर गया है शहर के चौक पर
कितने आते-जाते लोग रौंद गए होंगे
वो कितना चिल्लाया होगा..
मगर चींटियों की आवाज भला कौन सुनता है?
लोग नाम को तभी चिन्हते हैं
जब वो माथे पर लिखा हो।
क्या पता कल कोई भलमानस आए,
उसे उठाकर, झाड़-पोछकर अपने साथ घर ले जाए
मगर दत्तक पुत्र दत्तक पुत्र ही होता है।
5.
तुम जो भरती सॉंझ में उठकर चली गई थी
वह रात मेरे गले में बैठ गई
तुम्हारे जाने और आने में बस पुकार भर की दूरी थी
बेआवाज़ चिल्लाना, नींद में चिल्लाने-सा है
उस रात जाना कि हम कितनी दिशाओं में
भटक सकते हैं एक साथ
एक साथ हम कितने ख्यालों में कूद सकते हैं
कितनी कच्ची प्रार्थनाएं गिरती हैं आंखों से एक साथ
उस रात जाना मैंने कि
मिट्टी रूठकर पहाड़ हो जाती है और
पहाड़ टूटकर नदियॉं
हम पत्थर खा के लौट रहे
आशिक़ की तरह बैठ गए हैं रहगुज़र पे
देखें कौन चवन्नी डाल के जाता है हमें।
6.
वह प्रेम के फूल को
भाषा के सिलबट्टे पर पीसता था
जबकि मैं उसे अपने जूड़े में बॉंधती थी
वह सिर्फ देखे को मुझे दिखाता था
जबकि दृश्य के ठीक पीछे
अदेखे का एक बड़ा संसार था
उसे प्रेम के बाद के
सारे दृश्य दिख रहे थे
सिवाय प्रेम के
तर्क हमेशा से भारी रहा है
भावनाओं पर
मैं उसकी भाषा में उलझकर
अपने प्रेम से निर्वासित हो गई
7.
मैं वह बनते-बनते रह गया
जिसे तुम बना रही थी
मुझ पर तुम घट गई पूरा
मैं तुझपे घटने में फिसल गया आधा
तुम्हारी देह पर संवाद की काई जमी है
तुम लाख सुरीली धुन छेड़ लो
दीवार के उस पार पसरी चुप्पी
हृदय सुन ही लेता है
मैं तुमसे कितनी बार मिलने की आरजू की
तुम नहीं आई
अपनी तस्वीर भेज दी
तुम्हारी तस्वीर हमेशा से खूबसूरत थी
वह बिच्छू के डंक की तरह
बीसबिसाती रही मेरी आत्मा में
तुमने प्रेम को खुदाई में मिले
बर्तन की तरह संभाल रखा है संग्रहालय में
8.
मेरे प्रतिबिंब में घुला है
झूठे शब्दों की उलाहनाऍं।
मैं अपनी आवाज़ की छाया में
गुम हुए अर्थों को टटोलता हूँ,
जहाँ भाषा
सेमल के फूल की तरह हँसती हैं।
कोई “कूऽऽ” कहकर छुप जाता है
भावों की दरार में
सारे शब्द इकठ्ठा होकर
एक किला बनता है
जिसमें प्रेम भटक रहा होता है,
अंत:पुर तक नहीं पहुंच पाता है
प्रेम के मंचन के लिए
हम संवाद रट रहे हैं।
चुप्पियाँ गिरती रहीं,
जैसे रिहर्सल में वाक्य छूटते हैं।
प्रेम उन ऑंखों में है
जहां से पानी गिरता नहीं
वो भीतर ही घुलकर
उसे मुलायम करता है।
9.
शिक्षक आता है जेलर की तरह
कक्षा में बैठे बच्चे गिनता है
एक, दो, तीन…
जैसे सजायाफ़्ता कैदी।
हर हाथ में एक-एक पन्ना थमा देता है—
न प्रश्न, न उत्तर
सिर्फ़ समय की सज़ा
जो घंटी बजने तक काटनी है।
बच्चे बैठे हैं
पीठ सीधी करके, गर्दन झुकाकर
जैसे कोई गुनाह स्वीकार कर रहे हों।
हर दीवार पर टँगे हैं पोस्टर—
“हमारे टॉपर।”
जो तस्वीर से गिर गया,
वो कहॉं गया?
पिता की जेब से
रसीद की तरह निकलता है प्यार—
ममता के भूखे बच्चे को
मॉं रोटी डालकर चली जाती है
अंकों की गंध आती है थाली से।
कमरे की दीवारों ने सुना है रोज
“मैं asset नहीं हूं पापा”
रूपेश चौरसिया - इससे पहले कुछ पत्रिकाओं (जैसे – सदानीरा, हिंदवी, poems India, गोल चक्कर) में कविताऍं प्रकाशित हो चुकी हैं। BD poetry for kritya (1)
खगड़िया, बिहार
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