समकालीन कविता
शाश्वत दुबे
याद आती है तुम्हें ?
कभी वो स्पर्श याद आती है तुम्हें?
बहुत पहले जो छुआ था तुमसे ।
वो सुगंध याद आती है तुम्हें ?
जो भीगी हुई धरती
हिलते हुए फूलों से आती है
जिसे तुमने उसके पास बैठ के
पहली बार जाना था ।
उसके पांव की कोमलता याद आती है तुम्हें?
जिसे चुराया था तुमने
पायल पहनाते वक्त ।
याद आती है तुम्हें ?
सीने पर उसके सिर का नपा तुला भार
जो उसके चले जाने के
बहुत बाद तुम्हें महसूस हुआ था।
उन तीन उंगलियों की पकड़
याद आती है तुम्हें?
जो अभी भी बांधे हुए है तुम्हें
हाँ वही तीन उँगलियाँ
जो तुम्हें खींच लाती हैं
बार बार गाढ़ी नींद से।
गुरुत्व
पृथ्वी किसी नियम में बध कर नहीं
घूमती है जलते हुए सूरज के चारो ओर
कोई गुरुत्व नहीं है
वह घूम रही है प्रेम में
हमारे तुम्हारे प्रेम में
क्योंकि बिना किसी त्रुटि के
अनवरत इतने युगों से
मौन चलते रहना
एक प्रेमी के ही बस में है ।
जैसे हम तुम भटक रहे हैं
मौन ,
अनगिनत जीवनों से।
“कुछ लोग बच जाते हैं”
कुछ लोग
इतने बच बच के जीते हैं
कि बारिश की बूँदों से बच जाते हैं
फ़िर फूलों की खुशबु से बच जाते हैं
वृक्षों की कोमलता से,
उसकी छाँव से बच जाते हैं ।
नदी के लहरों से ,
धूप से,
किसी के प्रेम से,
फ़िर उसकी यादों से,
किताबों से बच जाते हैं।
कुछ लोग
इतने बच बच के जीते हैं ।
कि जीवन से अछूते रह जाते हैं।
सुनो, तुम बचने का प्रयत्न मत करना,
तुम इन सब से होकर गुजरना
तुम इन सब से होकर गुजरना।
शाश्वत दुबे ने कमला नेहरू प्रौद्योगिकी संस्थान , सुल्तानपुर ( केएनआईटी सुल्तानपुर ) से सिविल इंजीनियरिंग में बीटेक किया है। वे साहित्य के सुधी पाठक हैं।
जावेद आलम ख़ान
वो सीधी माँग
बालों को दो भागों में बाँटती
वो सीधी माँग, ना जाने क्या क्या
कह जाती है, बता जाती है
दर्द, द्वेष, कर्तव्य और
मनोरथ की आपबीती
वो सीधी माँग ना जाने ना जाने क्या क्या कह जाती है
ना वो सिदूँरी हो पायी
ना वो सूनी रह पायी
बस लालसा से भरी रही
उम्मीद के साये में सपने संजोती रहीं
वो सीधी माँग ना जाने ना जाने क्या क्या
कह जाती है,
समाज के तानोंको भी दो भागों में बाँटती
वो सीधी माँग, ना जाने ना जाने क्या क्या
कह जाती है,
कोई कहता पुरातन है,
तो कोई कमजोर समझ के घात कर देता
कै से बताये आड़ी, तिरछी, सीधी
माँग तो बस केश सज्जा का तरीका है
साँचे के अनुकू ल बनाना तो समाज का नजįरया है
असल में अपनी सोच को दूसरों पे मढनेका
एक नया पुराना तरीका है
वो सीधी माँग ना जाने ना जाने क्या क्या
कह जाती है ॥
प्रेम-विवाह
सात जन्मों का बंधन सोचते हुए एक प्रेमिका ना जाने कितने खुशनुमा ख्वाब बुन जाती है जाने अनजाने
बिना ये सोचे ख्वाब तो नींद खुलते ही टूट जाने है
पहली भेंट से लेकर आखिरी विदाई तक
घबरायी आँखो की पहली झलक से
माँग को स्पर्श करते हुए पीले सिंदूर तक
पसंद- नापसंद, रीति-रिवाज, घर- परिवार
शहर, नाम, व्यवसाय और व्यवहार
ढाल लेती खुद को यूं सब मैं
मिले जो प्रेम, सम्मान और अिधकार बदले में
मिल जाये जो मंजिल उसको साथ निभाती जन्मों तक
और जो ना बदले प्रेम विवाह में
देह से विधवा, मन से मृत्तिका, दिमाग से बावली फिरती है
हर एक पल जीती नहीं बस उम्र काटती है