
समकालीन कविता
नितेश व्यास
अभी मैं
अभी मैं शान्ति का संगीत सुनता हूं
अभी मेरे कानों को फोड़ती हैं दर्दनाक चीखें
अभी मैं स्नान करता हूं
अभी मेरी आत्मा धंसती जाती है मलबे में
अभी मैं नाश्ता करता हूं कि इतने में
सर्वनाश की एक लोमहर्षक सिहरन दौड़ पड़ती नस-नस में
अभी मैं पढ़ता हूं कोई किताब
अभी सारे अक्षर वाक्य-रथों पर आरूढ़ हो हमला बोल देते मेरी चेतना पर
अभी मैं सोचता हूं सुनसान पड़ी सड़कों के बारे में कि
एक जानी पहचानी भीड़
घुस आती मेरे मन-मस्तिष्क में
इन सब से परास्त कुछ देर बैठना चाहता हूं आंखें बन्द कर
तो दीख पड़ता
दो बर्ष का बालक
अपनी माता की मृतदेह के पास बैठा खोज रहा अपने जीवन का स्रोत
मेरी सांसें अब भी चल रही है
सजीव कहलाने की सार्थकता को ख़ारिज करती हुई
शब्द-नि:शब्द
जो अखण्डित भासती है
शब्द की मै वो तितिक्षा
जो निरर्थक से निकल कर
सार्थक होने को आतुर सी खडी
मैं अर्थ की वो ही
प्रतीक्षा
हूँ भटकता शब्द अब
जिसको न मिल पाया
अभी तक
उच्चरित होने का कोई
कंठ-तालु-दन्त-जिह्वा
की पहुंच से दूर का स्थान कोई
कभी हूँ वाक्य ऐसा
कि जहाँ दिखती नहीं है
योग्यता-आकांक्षा-आसत्ति की कोई अपेक्षा
मैं अपनी बोलती भाषाओं से
विश्राम लेकर
मौन में होकर समाहित
श्वास के भीतर ठिठकता
शून्य होना चाहता
पर
दमित वाचलता होती मुखर
आतुर त्वरा से
मैं विवश
फिर शब्द होकर
खर्च होता जा रहा
अविरल प्रवाह से।।
शीत शोणित
मै अपनी देह को फेंकता हूँ
एक गहरे आलोक में
नहीं
वो सूरज नहीं
सूरज तो कब का
काला पड़ चुका
मेरी आत्मा सा,
वो मेरा लहू
जिसमें अब नहीं बची है
मानव-जाति की कोई
उजली संभावना
अपनें रक्तांश को छिटक आया
किसी बूचड़खाने में
अब वो है
एक दम सफेद
एक दम ठंडा
धूप-सी नदी में तैरते
हिमखंड-सा।।
*ताल थिरकता काल*
(उस्ताद ज़ाकिर हुसैन के लिए)
ये उचित समय नहीं है तुम्हें
कविता सुनाने का
तुम पर कविता लिखने का तो कतई नहीं
कि जब तुम बोए जा रहे हो मिट्टी में
किसी बीज की तरह
नाद की गूंज को सिरहाने रख कर
गोद में अब भी पड़ा है बायां
लेटे-लेटे भी ढूंढ रहे हो अपना साज़ कि
अल्लाह मियां के दरबार में जाते ही
देनी होगी हाजरी
नाराज़ हैं शाग़िर्द वो नहीं उठा रहे
तबला
गला रहे हैं उसे कुछ
उसमें भर रहे हैं अपने आंसू
ये मेरे भी रोने का समय है
लेकिन मैं लिख रहा हूं कविता
क्या करूं
कविता के भीतर है मेरे रोने का कमरा
आंसुओं से डबडबाई आंखों में
दिखती है आपकी तस्वीर
उलझी लटों को झटके से झाड़ते हुए
मानो बालों में उलझी ताल को
अंगुलियों का रास्त दिखा रहे
चारों तरफ तबले ही तबले
बीच में आप
जैसे तबलों के तालाब में खिल हुआ ख़्वाब
तबला मिलाते मिलाते ही सुर
चढ़ आते गोद में
नाचते अंगुलियों की पोर पर
जैसे
आफिस से आए पिता की गोद झुलते हैं नन्हें मुन्ने
सहलाते सुरों को
जैसे पिता फेरता हाथ बच्चों के माथे पर
फिर अचानक
किसी बच्चे से खुद कोसोंप देते
उस चर्म-वाद्य को
जैसे केशकम्बली झुका देता
स्वयं को
असाध्य वीणा पर
तबला बजाते हो कि दिखाते करतब
मुख से बहते बोल पहले-
धा धा तिरकिट धा धा तुन् ना
ता ता तिरकिट ता ता तुन् ना
धा तिरकिट धा तिरकिट तिरकिट
धा धा तिरकिट धा धा तुन् ना
ता तिरकिट ता तिरकिट तिरकिट
ता ता तिरकिट ता ता तुन् ना
करते बोल
रक्त के प्रवाह को पहुंचा देते चरम बिन्दु पर
एक झंकृति एक हमिंग
नाद अनहद गूंजता
कभी पलटों कभी चक्रधार तिहाइयों का उठता सैलाब
जैसे काल के भाल पर पड़ती
प्रलय की थाप
विसर्जित हो जाता सब कुछ
उस क्षण
शान्त शान्त सब कुछ
कि उतार देते अचानक स्वर-नौका
कभी शिव का डमरू डमडमाता
तो कभी शंख ध्वनि चकित करती
कभी सूरज के सात घोड़े एक साथ
दौड़ पड़ते तबले पर
कभी कबूतरों की गुटरगूं
अब जबकि बीत चुकी है चेतना
कारुवाद्य की देह पड़ी है बेहोश
रीत चुका प्राणों का प्याला
उड़ चुका है स्वर-पखेरु
सुदूर सात आसमानों के पार
सारी तालें बैठी है उदास बेसुध
और रागें सारी गगन-महल की
दीपमालिका को बुझाती हुई
भटक रही बेताल अंधेरे में
परदेस गये पिया की प्रतीक्षा में
वो प्रतीक्षा ही अब बजती रहेगी
किसी ताल की तरह अनवरत
नितेश व्यास,सहायक आचार्य, संस्कृत,महिला पीजी महाविद्यालय जोधपुर राजस्थान,संस्कृत अध्यापन के साथ ही हिन्दी-उर्दु तथा विश्व साहित्य में रुचि।
हिन्दी एवं संस्कृत में कविता,समीक्षा,आलेख, काव्यात्मक समीक्षा आदि लेखन। हिन्दी में एक कविता संग्रह-अंधेरे का उत्तराधिकारी।
मो 9829831299
मीता दास
आज के लिए
अँधेरे में रहते हुए
बाहर देखने पर रोशनी का कोई निशान नहीं दिखता।
लेकिन क्या हमेशा अंधेरे में ही रहेंगे ? ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकाश कहीं से आ रहा है ?
पर
क्या इस रोशनी में देश चलेगा ?
अब मुझमें ऐसी कोई और रोशनी नहीं,
क्या तुम्हारी रूह में है ?
चल उड़ जा रे गिद्ध
मैंने कहा, देश में दहशत फैल रही है!
हाँ सुना , इंसान इंसान को मार रही है!
जरा ये बताओ हमें तो कूच कर जाना चाहिए यहां गुजारा मुश्किल है!
जली हुई लाश भी पहुंचा देते हैं पोस्टमार्टम को
हम खाएं क्या कुलबुलाती आतों का गुजारा मुश्किल है!
चलो ये देश हुआ बेगाना ||
सोचने पर
मुझे वहां से थोड़ी सी रोशनी दे दो
तो मैं जीवित हो उठूंगा, मेरुदंड लिए !
मुझे उठकर खड़े हुए बहुत लंबा समय हो गया है।
क्या इसके लिए सिर्फ मैं ही जिम्मेदार हूं ?
या कोई और भी हैँ ?
वरिष्ठ कवि और अनुवादक, हिन्दी बंगला दोनों में लिखती हैं।
रचना श्रीवास्तव
पीछा करती मैं
मैंने पीछा किया
बहुत दूर तक पीछा किया
उन भागते हुए पैरों का
जो पानी में
छपाक- छपाक की आवाज़ के साथ
भाग रहे थे
उनसे उठते छींटों से मैं सराबोर हो रही थी
फिर भी पीछा कर रही थी
वह पैर कहीं भी निशान नहीं छोड़ रहे थे
मैं बस आवाज़ के सहारे उनका पीछा कर रही थी
कहते हैं आवाज़ कभी मरती नहीं
ब्रह्माण्ड में गूँजती रहती है
न जाने किसने की है यह खोज
पर फिर भी इस बात को सभी मानते हैं
मैं भी मानती हूँ
सोचती हूँ कि
कभी उन आवाज़ों को यदि पकड़ा जा सके
तो न जाने कितने केस सुलझ जाएँगे
वो आवाज़ें खुद गवाही देने आ जाएँगी अपनी मौत की
अब सभी
उन आवाज़ों को खोजने के लिए
उनके पीछे भाग रहे हैं
हालाँकि उन आवाज़ों ने भी अपने क़दमों का
कोई निशान नहीं छोड़ा है
फिर भी सभी पीछा कर रहे हैं
वो भाग ही इसलिए रहे हैं
कि उनका पीछा किया जाए
मैं भी पीछा कर रही थी उन भागते पैरों का
पर न जाने कब आवाज़ों के पीछे भागने लगी
शायद सभी भाग रहे थे इसलिए
इस भागने में
हाथ कुछ भी नहीं आया
न वो पैर, न आवाज़ें, और न मैं ख़ुद।
डूब जाना
डूबना एक शब्द है
एक ऐसा शब्द
जिसको जो चाहे ,जैसे चाहे प्रयोग कर रहा है।
डूबना भी कई तरह का होता है।
कोई क़र्ज़ में डूबा है
तो कोई फाइलों के ढेर में डूबा है
डूबा तो वो भी है
जो किसी के प्रेम में डूबा है।
कविता शब्दों के तालाब में उतरती है
और भावों में डूब जाती है
मधुशाला की मधु के नशे में
तो लगभग सारी दुनिया ही डूबी है
दौलत का नशा मधु के नशे से कहाँ कम है
इसमें डूबा व्यक्ति
खुद को भगवान समझने में देरी नहीं करता
लोग तो चुल्लू भर पानी में भी डूबने को कह देते हैं
ये बात अलग है कोई चुल्लू भर पानी में डूबता नहीं है
क्योंकि शर्म ही कहाँ बची है लोगों में
कोई खुद डूब रहा है
कोई किसी को डुबो रहा।
इस तरह डूब तो हर व्यक्ति रहा है
हर कोई इसको ,
अपने हिसाब से प्रयोग किये जा रहा है
किसी ने इस शब्द की मर्जी जानने का
प्रयास ही नहीं किया
कि इस का कब और कहाँ उपयोग में आने का मन है
या फिर मन है भी की नहीं
डूबना शब्द पर दुनिया का बहुत भार है
धीरे धीरे यह शब्द खुद ही डूबता जा रहा है
आँखों से ओझल होने तक डूबता जा रहा है।
कवि, अनुवादक, अध्यपन में रत, अमेरिका वासी