समकालीन कविता
प्रस्तुत अंक में हिन्दी भाषा के तीन समकालीन कवियों की कविताओं को स्थान दिया है। समकाल में हिन्दी कविता की प्रस्तुति में भिन्नता देखी जा सकती है। बेहद प्रसिद्ध नामों के अतिरक्त अधिकतर कविताएं समाज से जुड़ी दिखाई दे रही हैं, सहज रूप में लिखने वाले कवि भी अपने सन्देश को स्पष्ट करने में सक्षम है।
राजिंदर ब्याला
- कविता बोलती रही है
जब भी मौका मिलता है
कविता को ही सूली पर
लटका दिया जाता है…
जब पूरा शहर खामोश होता है
तो कवि लिखता है
अपने घर की बालकनी में बैठ कर
किताबों के पन्ने पलटता
अतीत के गर्भ में जा कर
समुद्र की तरह अतीत से
घोंघे सीप की खोज करता है
कवि चुपचाप लिखता है
और जब वह लिख लेता है
फिर कविता बोलती है
कविता बोल रही है
हर सदी में
हर युग में…
चुप रहने के लिए भी
कोई कारण रहा होगा
ऐसा नहीं हो सकता
कि शहर भरा हुआ हो
भीड़ ही भीड़ हो
रिश्ते के रूप में सभी पास ही
सांस लेते हों
लेकिन चुप हों
कोई नहीं बोले
गलियां और कूचे और रास्ते
सभी इशारों से बात करें
पुराने पेड़ों का क्या हुआ?
जिन्होंने बहुत कुछ होते देखा है
बहुत कुछ पास से निकलते
देखा हो
और बहुत कुछ अपने शरीर पर सहा हो
पेड़ों ने
नदियों को भरते देखा हो
बेमौसम में तटों को
टूटते देखा हो …
आंधियों को चलते देखा हो
अपनी छांव में सब को हंसते
रोते देखा हो
आग को फैलते देखा हो
आदमी की फितरत है कि
वे हाथ जोड़ कर जीने को ही
जीना समझते हैं
अगर बदलाव लाना है तो
बोलना तो पड़ेगा
आप को भी
मुझे भी
सिर्फ़ कविता ही क्यों बोले…।
- कवि की लाश
एक नदी है
और नदी में तैर रही है
एक कवि की लाश!
और कुछ तैर रहें हैं
उसके साथ
अनछपी किताबों के
कुछ अनछपे कागज़
एक झोला
और झोले में
छोटे से पुस्तकालय की चीख पुकार
एक जोड़ी सफ़ेद
कुर्ते पैजामे की
खाली जेबों की
कुछ सिसकती आहें
अपनों की मजबूरियां
औरों की दूरियां
कुछ अनलिखी कविताएं
कुछ अनकहे ख्याल
एक कलम
और कितने सवाल….?
एक नदी है
और नदी में तैर रही है
एक मोहब्बत की लाश
और उसके साथ
कुछ खाई हुई कसमें
कुछ किए करार
और उठ रहे हैं पानी में से
कुछ वफ़ा के बुलबुले
जो कुछ क्षण दिखते हैं
फिर हो जाते हैं आलोप
जैसे आलोप हो जाता है विश्वास..!
एक नदी है
और नदी में तैर रहे हैं
कुछ हरे पत्ते
अपनी शाखाओं के साथ
जो तूफानों की तेज़ धार को
सह न सके
और टूट कर गिर पड़े
नदी के सीने पर
अपनी सभी उम्मीदों के साथ..!
एक नदी है
और उस में तैर रही हैं
कुछ किताबों की लाशें
जो शेल्फों में बंद पड़ी थीं
सालों से
अपने विचारों के साथ
और पड़ी पड़ी सांसें छोड़ गईं
समय उनको
अपने कंधों पर न उठा सका
और किताबें
सोती हुई सो गईं
सदा के लिए
एक कवि के साथ..!
एक नदी है
और नदी में तैर रही है
एक कवि की लाश
कुछ अनछपे कागज़
कुछ अनछपी कविताएं
कुछ अनकहे ख्याल
एक कलम
अनेक सवाल।
- मैं क्यों लिखता हूं?
मैं कई बार सोचता हूं
मैं लिखता क्यों हूं?
जब कि मैं
तेरी आंखों में बसे मौन को
समझ नहीं सकता
तेरी किताबों के गूंगे शब्दों को
अपनी आवाज़ नहीं दे सकता
तेरी ऋतु के रहस्यमई गीतों को
अपने शब्दों में ढाल नहीं सकता…
मैं कई बार सोचता हूं
मैं लिखता क्यों हूं
जबकि तेरी रूह पर
कोई पर्दा नहीं
पर फिर भी समझ से बाहर होते हैं
तेरा हर एक अंग
तेरी आंखों में
कोई दृश्य नहीं
फिर भी
मेरी नज़रों में
अनेक दृश्यों की
उलझन होती है…
तेरे वृक्षों पर
पंछी ही पंछी हैं
आंधियों का उन पर कोई असर नहीं
अंधेरों में जिनकी आंखें
नहीं होती अंधी
नींद में बेखुद नहीं
जो जागते हुए भी
देखते हैं अनेक सपने..
मैं कई बार सोचता हूं
मैं लिखता क्यों हूं
जब कि ज़मीं के अक्षर
सुरक्षित हैं आकाश में
और सुरक्षित हैं आपके शब्द
किताबों में..!
राजिंदर ब्याला
पंजाबी अकादमी दिल्ली द्वारा पुरुस्कृत कवि और अनुवादक राजिंदर ब्याला का जन्म गांव सुल्तान विंड अमृतसर (पंजाब) में हुआ तथा हिंदू कॉलेज, अमृतसर से ग्रेजुएशन किया है। कवि राजिंदर ब्याला पंजाबी, हिन्दी और अंग्रेजी में कविताएं लिखते हैं, तीनों ही भाषाओं में आपके कई-कई कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी मजदूर काव्य पुस्तक पाकिस्तान से प्रकाशित हो चुकी है तथा एक किताब वेदन कहे किस (दिल्ली यूनिवर्सिटी पंजाबी विभाग) के पाठ्यक्रम में सम्मिलित है। राजिंदर ब्याला जी ने देश के कई प्रतिष्ठित कवियों की कविताओं का अनुवाद किया है।
सरिता निर्झरा
1.
एटॉमिक ताकत से लैस
पनडुब्बियों से
देशों की शक्ति का
आंकलन हो रहा है
जंग हुई तो…होगा
किसका कितना आधिपत्य
समुद्र तल में
किसी विशालकाय व्हेल सी
उतरती पनडुब्बियों से
यकीनन रंग बिरंगी
नन्हीं मछलियों के ‘स्कूल’
तरंगों से कम्पित होते होंगे,
दूर एक दिशा में तैरते हुए
वो नाप लेते होंगे
सम्पूर्ण महासागर
बिना ताकत हो जाता होगा
सभी द्वीप, महाद्वीप पर
उनका आधिपत्य
सोचो… अगर प्रेम से
शक्ति का आंकलन होता…
*स्कूल -मछलियों का समूह
2.
कांटों वाली बेर के जंगलों को
काट कर बने है कुछ शहर
आस पास के गांवों को
ढक लिया है
ऊंची ऊंची इमारतों ने
गांव के तबेले और
ताऊ की बैठकों को
धकेल दिया है कहीं पीछे
दिन दोपहर शाम वहां
लगातार रेस होती है
ऊंची से ऊंची मंजिल पर
जाने की रेस
नए शहरों के बनने में
कटे है जंगल
उजड़े हैं घोंसले,
मिट्टी को खोद कर
बोए गए है लोहे के सरिए…
और उन पर उगी है,
पांच बाय चार की
बालकानियों की कतार,
इन बालकानियो में उगते हैं
नफीस पाल्म, एयरोकेरिया के पौधे
बची हुई झरबेरियां…
उचक कर देखती हैं
बीसवीं मंजिल के पाल्म को…
फिर अपने आस-पास
लोहे का शोर सुनते
होने लगती हैं शामिल
झरबेरी से पाल्म बनने की रेस में
3.
तुम समझना चाहो स्त्री को
तो उसकी गहरी, पनीली
काली गंडक सी नदी समेटे
आंखो में मत झांको,
उसकी देह को मानक माप पर
देखकर भालकर,
या फिर छू कर जहां तहां मत तौलो…
उसे समझने के लिए
उसके पितृपक्ष मातृपक्ष को मत खंगालो
उसकी सखी को इमली के पेड़ के पास खड़े देख
उसकी पसंद नापसंद भी मत आंको
किसी को देख नज़र फेर ले वो
तो प्रेम तिरस्कार कुछ मत समझो
किंचित देख लिया हो उसने
दूसरी तरफ शिउली के फूलों को बिखरे हुए…
उसे समझने के लिए उसके पास
बहुत पास हो कर भारी होती सांस मत गिनो
मध्यरात्रि अकारण उससे ज्ञान मोक्ष विछोह
या कि प्रेम के स्पंदन की कोई बात न करो
किंचित दिन भर की थकान से
बिना सुने समझे वो मूंद ले आंखें,
तुम समझना चाहो स्त्री को तो
उसके कहे, उसके लिखे पर भी
भले तुम ध्यान मत दो
किन्तु उसकी पढ़ी हुई किताबों के
मुड़े हुए पन्नो पर लिखी हुई बातें,
दिल को छूती कोई पंक्ति
किसी किरदार पर भरी एक लंबी श्वास
किसी बोझिल शाम पढ़ी कोई कविता
कोई दर्द उकेरती पंक्ति
कोई विदाई गीत,
कहीं कोई झूला, कजरी, सावन की फुहार
कोई अभिसार का क्षण
किसी माथे पर चिन्हित
प्रेम चुम्बन
कहीं…सहेजे प्रेम पत्र
इन पर खींची पेंसिल के रेखाओं को मापो…
तुम स्त्री को समझना चाहो तो
चलो ….
उसकी खींची रेखाओं पर।
सरिता निर्झरा
सरिता निर्झरा एक उभरती हुई कवियत्री लेखिका एवं सामजिक कार्यकर्ता हैं। शिक्षा एवं स्त्री अधिकारों के क्षेत्र में काम करते हुए, हिंदी साहित्य के प्रति इनका रुझान इन्हें लेखन के क्षेत्र में ले आया। सामाजिक मुद्दों पर लिखे इनके लेख विभिन्न वेबसाइट पर अत्यधिक चर्चा में रहे तथा लाडली अवार्ड्स के लिए नामांकित भी हुए। निर्झरा की लिखी कहानियां भावप्रधान व नारी चरित्र के इर्द गिर्द बुनी हुई होती हैं। बोधि प्रकाशन के राम कुमार ओझा पाण्डुलिपि योजना में चयनित कहानियों का संग्रह – ‘चांद ज़मीन और औरतें’ उनका पहला संग्रह हैं। ‘हरी आंखों वाली लड़की’ उनका पहला एकल काव्य संग्रह है।
नए कलमकारों को प्रोत्साहित करने के लिए इन्होंने कलामंथन नामक लेखन मंच की स्थापना की जिसमें नए कलमकारों को दिशा देने श्रेय जाता है। इसके साथ हिन्दी साहित्य जगत की कई जानी मानी हस्तियों ने कलामंथन द्वारा किये कार्यों को सराहा व अपना सहयोग दिया। लखनऊ शहर में मंथन साहित्य उत्सव के चतुर्थ संस्करण के साथ इनकी टीम ने एक वृहद एवं सार्थक आयोजन किया।
राजेन्द्र बोध
- मजदूर की सुबह नहीं होती
वो हल्का सा झुलस गया था
पर जला था कहना बेमानी होगा
जलने और झुलसने में फर्क होता है
वो चीख़ा नहीं, बस दांत पीस लिए
जीवन मृत्यु के बीच का अंतरनिनाद
एक रोज़ भरी दुपहरी तफरीह सूझी
भूख गले तक आ पहुंची थी
माथे पर पसीनाई बूंदें आपस में लडने लगीं
पेट पिचक कर कहने लगा, मौजां ही मौजां
कर्ज सुप्त हृदय में द्वंद खेलने लगा
स्वस्फूर्त लाश हमेशा ही आवेग में रही
झुलसना अर्थ देता है, जलना बे मायने
जीवन को आग चाहिए
आग को संकेत
संकेत को क्रिया, क्रिया को ताकत
ताकत को चाहिए वचन
वचन एक भारी क्रिया है
आवेग में नहीं किया जाता
वो झुलस गया था, गहरे रंग गहरे अर्थों में
उसका वचन भी गहरा था, झुलसा हुआ
पसीनाई गंध लिए
सुबह दोपहर शाम से रात तक
रात को थोड़ी शराब पी ली
सुबह उठकर दोपहर की तफरीह ली
किसी मज़दूर की सुबह नहीं होती
मज़दूरों की हमेशा दोपहर होती है
उनके सरों पर हर पहर धूप चिलचिलाती है …..
- मृगमरीचिका
वो लगातार दौड़ती रहती है उसे पाने के लिए
वो उसकी ज़िद उसके अंतस प्रेम है
सुबह दिन दोपहर शाम रात
हर पहर के निनाद में करवट की चौकन्नी मुद्रा
ये कविता तमाम शब्दकोशों की पत्नियों की है
ये कविता उन प्रेमिकाओं की है,
जिनके प्रेमी कहीं खो गये किताबों सेमिनारों गोष्ठियों में
उन्हें यकीन है वो लौटेगा एक रोज़
यथार्थ से प्रेम की ओर
उसको पूरा यकीन है
कवि अपनी कविता से हाथ छुड़ा
लौट आएगा वहां कि जहां उसे छटपटाहट न हो
कवि और लेखक की पत्नी बड़ी विभोर होती है
सुबह से शाम काम में तल्लीन
स्वादिष्ट बनाऊं, कुछ कहूं कि सुने वो
एक रोज़ किसी एक पल
उनके मन में जगह पाऊं
एक रोज़ एक पल को ही सही
बेकल मन मिलें,
जहां ना हो दुनिया जहान का अपशिष्ट
कोई धुन लगातार तड़पने की
बेचारगी के अनंत तक जाना है
कि प्रेम कहां है ?
मेरी बांहों में
कि प्रेम कहां है
तेरी बांहों में
मृगमरीचिका …..
- एक रोज़ कविता
आज अनायास ही कविता का मन हुआ
सुबह सुबह के अपने हर नित्य से परे,
ऐसा मन होना भी दुर्लभ पर अच्छा होता है
कविता में पत्नी को निहारा
वो गहरी नींद में थी, जगाने का मन नहीं हुआ
निहारता रहा,
एक कविता तो यही हो गयी
बाहर बिटिया हड़बड़ी में टकरा गयी
और मुझे ही डांटकर चली गयी
मैं मुस्कुराता खुद में कुछ महसूस रहा था
एक कविता और छलक गयी
अपनी ख़ाली हो चुकी अंगूर की बेल पर नज़र गयी
उसमें अब भी एक गुच्छा महक रहा था
आंगन के दूसरे छोर पर गौरैया उसे ही देख रही थी
तो वो कविता अधूरी छोड़ दी,
अधूरी कविताएं पककर और मीठी हो जाती हैं
ऑटो में एक वृद्ध महिला आंखे चुरा फटा नोट दे रही थी
मैंने भी उसी तेज़ी से आंखे चुराई और नोट लपक लिया
अगले मोड़ पर पूरी दबंगई से नोट पम्प पर चलाया
विद्रोही कविताएं भी अस्तित्व रखती हैं
सारा दिन सवारियां आती जाती गपियाती रहती हैं
दिन सराबोर रहेगा, रोज़ की तरह …..
अभी लम्बा दिन है
ख़ूब कविताएं छलकेंगी
राजेन्द्र बोध
हिमाचल के शीत मरुस्थल लाहौल स्पीति के यूरनाथ गांव में जन्में राजेन्द्र बोध ने दसवीं तक पढाई करने के बाद स्कूली पढाई से तौबा कर ली। कुछ समय देश दुनिया में कपड़े, शालें आदि बेचने के लिए फेरियां लगाई। राजेन्द्र बोध का मानना है कि उन्होंने पंख संभालकर रखे हुए हैं, एक रोज़ उड़ान भरने को निकालेंगे। वह फिलहाल कुल्लू में ऑटो चलाने का रोज़गार कर रहे हैं और वहीं आशियाना भी बनाया हुआ है।