समकालीन कविता

इस अंक में हिन्दी कविताऔं में विविधता देखने को मिलेगी़। यद्यपि यहां अनुवाद की अपेक्षा हिन्दी के मूल कवियों की कविताएं प्रस्तुत हं। हेमा दीक्षित युवा कवि है। अनन्त आलोक दोहा विधा को नए विषयों के साथ लेकर आएंगे़ राहुल खंडेलवाल युद्ध विशेष रूप से फिलीस्तीन और इजराइल में होने वाले युद्ध में सताए जाने वाले जनों की कमजोर आवाज के पक्ष आवाज उठा रहे हैं। स्वदेश नीलम पत्रकार , अनुवादक और राजनीति पर लिखते रहे हैं। आपकी कविताएं विभिन्न विषयों का स्पर्ष कर रही हैं।

आशा है, इस अंक की हिन्दी कविताएं पाठकों को पसन्द आएंगी।- RS

 

हेमा दीक्षित की कविताएं

 

दिन कोई भी हो सकता है .

 

दिन कोई भी और कैसा भी हो,
और हो ही सकता है
उसे तो होना ही है,
अब तक होता ही तो आया है
क्या फर्क पड़ जाएगा
उसके कोई भी दिन या एक दिन होने से
हाँ बस किसी भी दिन सुबह पाँच बजे
भोर के तारे के डूबने के ठीक कुछ ही पहले
सूरज की सतरथिया की
लंबी काली परछाई के नीचे से निकल कर
इस पूरी पृथ्वी के किसी भी चौक के
मटमैले आसमां के
किसी भी और कैसे भी पन्ने के कोने पर या बीच में या फिर हाशिए पर या कहीं पर भी
चूँकि उगना महत्वपूर्ण है
तो बस उग ही आयेगी
नारंगी सूरज सी पैनी और नंगी चुभन वाली औरत …
जो एक और अकेले होते हुए भी या होने पर भी
बहुवचन में उठाएगी
अपने दोनों हाथ विजय मुद्राओं में
और एक कोशिका के काल से ही
विलाप में तब्दील
धरा पर दोहरी पड़ी उसकी देह
आखिरकार उठ ही खड़ी होगी
और अपने दोनों हाथों को जोड़ कर
एक लहर मुद्रा में आ जायेगी
लहर जिसे कि कह सकते है समंदर से उठ खड़ा हुआ समंदर का एक छोटा सा गाँव
उस लहर के विलोम मूलाधार पीठ में बसता होगा एक पूरा खारा समंदर …
तो ठीक … एक पूरे खारे समंदर की तरह
अपने पूरे समूचेपन से
पटक-पटक कर अपनी जबान का कपाल
वह देगी मुँह भर-भर कर ऐसी गालियाँ
जो उससे जुड़े सारे संबंधों की जंघा पर ताल ठोक कर बैठी है …
जिनके जन्मों के गर्भगृह स्त्री के गुणसूत्रों में कभी थे ही नहीं ,
उसके नाम पर, पर उसके लिए वर्जित फल रही शब्दावलियाँ
वह ‘स्त्री’ बकेगी … या कह सकते है कि बहुवचन मे खड़ी वह अकेली स्त्री
पढेगी दुनियाँ की सारी माँ-बहन और बेटियों के नाम पर ,
चुन-चुन कर रची
सारी मादर-जात विरुदावलियाँ ,
आखिर यह गढ़ी हुई माँ, बहन , बेटियाँ और धर्म की पत्नियाँ ही तो खा गई है
एक स्त्री का स्त्री भर होना …

 

2. आसान नहीं है फिर भी .
जाती हो …

 

कहाँ को बहती चली जाती हो …
पत्थरों से टकरा-टकरा कर
चढ़ती हुई साँसों के शोर के साथ
अपनी और उनकी दोनों की देह को छीलते और छीजते हुए
बहती हुई नदी को देखते हुए कहती हूँ मैं जैसे स्वयं से …
लौटो उलटे पाँव अपने पंजों के बल …
और देखो … एडियों को कुछ दूर तक उचकाए ही रखना …
कि कोई भी नहीं चाहता अपने स्वार्थी हितों के
विपरीत दिशा में तुम्हारा लौटना …
कि अपने जहन के तरकशों में भरे
सारे जहर बुझे तीर और कांटे
छोड़ दिए है
बहेलियों और तुम्हारे अपने पुजारियों ने …
बचा कर रखना अपने नीर भरे तलुवे …
अन्यथा यह सोख लेंगे
सोख्ता कागज़ या मरुस्थलों की तरह
तुम्हारा जीवट और तुम्हारे प्राण …
कि अब नहीं रहा वक़्त यूँही
प्रवाहों की ढालू दिशा और समत्व में बहते हुए
इनके बीजे हुए कसैले बीजों को
मोने और अँकुवाने का …
अपने तटों पर इनकी विष बुझी
फसलों को लहलहाने देने का …
देखो अपनी ध्यानस्थ आँखों को ठीक-ठीक खोल कर देखो –
तुम्हारे जने और सेये पोसे विष-पुत्र
तुम्हारी ही कोख के वर्जित देश में
अपने वीर्य के डांडे खे रहे है …
अपनी पीठ और छाती पर
विषपुत्रों की नाव ढोते हुए … तुम थक नहीं गई …
कि क्यों अब भी यूँही पडी दई मारी सी बहती रहोगी …
अपनी उतारी जा रही आरती की
लपलपाती शिखाओं के अट्टहासों में
अपना मुँह जोहती …
व्रतों-वासों में
अभी और कितने कल्पों तक घुलते हुए
अपने ही विसर्जनों में
अपनी ही अष्ट-भुजाओं के
कुंद अस्त्रों की कोर पर
पिता-पुत्रों की मन्नतें और शुभों के
दीपदान सँभालते हुए …
और कब तक ऐसे ही चलती जाओगी …
तुम लौट क्यों नहीं आती
यह जानते हुए भी कि अब तुम्हे लौट आना चाहिए …
… उल्टे पाँव …
प्रवाह से धुर विपरीत …
करने को एक अंतिम पलटवार …
एक भरपूर प्रहार …
और उभर आएगा
इतिहास के पृष्ठों पर
अब तक अनलिखी रही इबारतों के अस्तित्व का
चौकोर सपाट सीनों वाला
सूखा और भुरभुरा रवेदार नमक …

 

3. “सफलता तो स्त्रीलिंग है “.

 

सुनो रे …
होना है अमरलता …
बिना पत्तियों वाली
नग्न डालियों वाली
एक जिद्दी और बहिष्कृत अमरलता …
उस सुबह से ही होने की कोशिश …
बार-बार होती है असफल …
मिला नहीं अब तक कोई भी उपाय …
एक सौ आठ दानों की माला के
एक सौ आठ काष्ठ मनको में
पूरे एक सौ आठ फेरे घूमी है
भर मुठ्ठी असफलताएं …
एक पुरुष के लिंग की
स्थापना के चक्र में
फँसा और धसा हुआ है
योनियों का स्त्री लिंग …
मृत्युंजय महादेव की उस गुफा के कोने से
फिसलती हुई एक आस्थावान नास्तिक मकड़ी के
फेंके हुए अकेले पारदर्शी धागे की सामर्थ्य
पराजयों तक तो होनी पूर्वनियत ही थी ..
उस रोज उस
अपने जैसे एक सौ पच्चीस प्रतिकृतियों और …
एक सौ पच्चीस लिंग वाले मंदिर में, मिले …
उस देवदारु के वृक्ष से लिपट कर
असँख्य बाँहों के अनगिन फेरों में
उस के सर …
फुनगी तक चढ़ जाना है …
वो जो कई सदियों की
झाइयों और रुलाइयों में डूबा हुआ है
फिर भी तना और
जीत में उठे हुए अंगूठों की तरह खड़ा है
वो देवदारू जिसकी देह को
सात अजानबाहु पुरुषों की भुजायें भी
अपने में भर नहीं सकती …
किसी के सपनें में धर नहीं सकती …
सुनो रे … !!! अमरलता रहेगी तो स्त्री ही न …

 

हेमा दीक्षित‍

21जुलाई को कानपुर में जन्म कानपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक एवं विधि स्नातक लेखन एवं अनुवाद में रूचि. विधिनय प्रकाशन कानपुर द्वारा प्रकाशित द्विमासिक पत्रिका विधिनय की सह- संपादिका. कानपुर से प्रकाशित कनपुरियम एवं अंजुरी पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित. हिंदी साहित्य से जुडी विभिन्न ई पत्रिकाओं अनुनाद, नव्या, खरी न्यूज, पहली बार, आपका साथ साथ फूलों का, नई- पुरानी हलचल, कुछ मेरी नजर से, शब्दांकन, एवं फर्गुदिया पर कविताएं प्रकाशित. इसके अतिरिक्त बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित स्त्री विषयक कविताओं के संग्रह स्त्री हो कर सवाल करती है में कविताओं का प्रकाशन. साहित्यक पत्रिकाओं- कथादेश, पहल, पाखी और रचना समय में कविताएं एवं अनुवाद प्रकाशित.मंतव्य में एक कहानी प्रकाशित. लोक भारती प्रकाशन (राजकमल प्रकाशन समूह) से कविता संग्रह ‘यूँ तो सब कुछ पूर्ववत है’ दिसंबर 2023 में प्रकाशित.
वर्तमान में इंदिरा आई.वी.ऍफ़. हास्पिटल प्रा. लि. कानपुर में यूनिट मैनेजर के रूप में कार्यरत.

 

अनन्त आलोक के दोहे

 

बिल्ली रस्ता काटती, होती है बदनाम |
मुझको अपना काम है, उसको अपना काम |1|

 

हिंदी की चौपाल पर, बैठे चार चिराग |
तय था देंगे रौशनी, लगा रहे हैं आग |2|

 

लेखक तो लेखक हुआ, बेशक झोलाछाप |
पुस्तक तेरी जेब में,जितनी मर्जी छाप|3|

 

आया है बाजार में, नुस्खा ये नायाब |
रख दो नंगी जांघ पर, बिकने लगे किताब |4|

 

आफत में राहत मिली,मिलकर हुई डकार|
आधी नेता खा गये, आधी ठेकेदार|5|

 

कलयुग में कल-बैल की, पड़ी पेट पर मार |
हीरा-मोती घूमते, सड़कों पर बेकार |6 |

 

उम्र गंवाई खेत में, फिर भी रहे रखैल |
गायें थी तो जिम गई, कौन जमाता बैल |7 |

 

नदियाँ नाले भर गए , भरे समंदर ताल |
शुष्क धरा की पीठ पर , उग आये हैं बाल | 8|

 

होरी सोया खेत में , खड़े किये हैं कान |
मकई की मेड़ पर , जाग रहा है श्वान |9|

 

बादल बिजली मिल करे , धरा गगन में शोर |
झूम झूम कर नाचता , बलखाता है मोर | 10|

 

रिश्तों के बाजार में, खड़ी हो गई खाट |
बेटा शहरी हो गया, भूला घर की बाट |11|

 

सच्चाई कड़वी लगे, कहता ये नाचीज़ |
बच्चों को चुभने लगे, रिश्तों के ताबीज़ |12|

 

बेरी जी झाड़ी कहे, आओ चुन लो बेर |
ग्वाल बाल खाने लगे, जर्दा और कुबेर |13|

 

कौन दूध हो पूछते, और कौन सा रक्त |
छांट छांट कर कंजकें, पूज रहे हैं भक्त |14|

 

अम्मा को लिख भेज दो, थोड़ी दुआ सलाम |
उसके तन –मन को लगे, ज्यों केसर बादाम |15|

 

मोटे चावल में मिला, दिया जरा सा नीर |
माँ के हाथों से बनी, बिना दूध की खीर |16|

 

अम्मा जल्दी उठ गई, आँगन रही बुहार |
बीन बीन कर रख लिया, सब बच्चों का प्यार |17|

एक पढ़े दो घर पढ़े, दो-दो मिलकर चार |
बेटी को पढ़वाइए, पढ़े सकल संसार |18|

 

बेटा घर की शान तो, बेटी घर का मान |
बेट-बेटी एक है , कर दो ये ऐलान |19|

 

यह तन गेह कुबेर का, यही अयोध्या धाम |
श्रम बल से धन लक्ष्मी, मर्यादा से राम |20|

 

आलस आकर घुस गया, घर में चारों ओर |
मन के आँगन में पड़ा, मरा हुआ मन मोर |21 |

 

जब जब हम मिलते रहे, बातें होतीं खूब |
मैं उसका महबूब हूँ, वो मेरा महबूब |22 ||

 

अंग्रेजी हँसती रही, होती रही प्रयोग।
हिन्दी गौरव पा गए, अंग्रेजी के लोग।23।

 

तेरी जड़ तेरी जमीं, उसके सिर पर ताज़ |
हिंदी तेरे देश में, अंग्रेजी का राज |24 |

 

काली झिलमिल ओढ़नी, मुखड़े पर है धूप।
जग सारा मोहित हुआ, तेरा रूप अनूप ।25।

धीरे धीरे हो गए, ह

म सब भी अखबार।
हम उतरे बाज़ार में, फिर हम में बाज़ार।26|

 

अनन्त आलोक


हिन्दी के लेखक , कवि है्, आपकी पुस्तकें हैं ‍तलाश (काव्य संग्रह), यादो रे दिवे (सिरमौरी में हाइकु अनुवाद), मिस 420 ऑडियो उपन्यास | स्कैंडल पॉइंट और अन्य कहानियां ।
2023
हंस, कथा क्रम, वागर्थ, वीणा, लहक, बया, विपाशा, आदि अनेक पत्रिकाओं में प्रकाशन।
अन्तरराष्ट्रीय कवि सम्मेलन जनकपुर -नेपाल में प्रस्तुति एवं विशिष्ट प्रतिभा
सम्मान |
संपर्क : साहित्यालोक बायरी डाकघर एवं तहसील ददाहू जिला सिरमौर हिमाचल प्रदेश 173022 

 

स्वदेश नीलम की कविताएं

 

दिल्ली की बारिश

 

क्या लीला जोसेफ को नहीं
भाती दिल्ली की बारिश?
टिप-टिप गिरती, बूँदों के बीच
तेज़ भागती हुई,उससे मैंने कहा
आज बहुत अच्छी,हो रही है बारिश
वह ठिठक कर रुक जाती है।
यह भी क्या बारिश है?
क्या तुमने नहीं देखी,केरल की बारिश?
लगता है पानी की नन्ही-नन्ही,
बूँदों के बीच कुछ खारा पानी,
तिर आया उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में,
क्यों उसे बहुत याद आती है,
इन बारिशों के मौसम में,
अपने बिछड़े देश की।
वह खो गई कहीं,समुद के ऊपर होती,
उन शानदार यादों बारिशों की यादों में,
लाइट हाउस की जलती-बुझती बत्तियाँ
दूर कहीं बरसते पानी में,
किसी जहाज की आवाज़ें,
और वो रोशनियों का मंजर,
बचपन में त्रिवेन्दम की गलियों में,
बरसते पानी में पीली फ्राक पहनकर नहाना
और भीगते हुए संडे को चर्च जाना।
कभी-कभी सोते-सोते चौंक कर जाग जाती है,
अरे! यह तो केवल एक स्वप्न था,
क्या सपने भी कहीं सच होते हैं?
शायद वह फ़िर कभी नहीं,
लौट पाएगी अपने देश।
एकाएक वह मुस्कुरा देती है,
उसका दर्द बड़ा नहीं है,
अस्पताल में इंतजार कर रहे उसके मरीज़ों से,
सिस्टर क्या तुम उदास हो आज,
क्या अपने घर और मम्मी-पापा की,
याद आ रही है मेरी तरह,
बेड पर लेटा छोटा सा निखिल पूछता है,
वह हँस देती है निश्छल परियों सी,
नहीं! तुमको देखकर सब कुछ भूल जाती हूँ,
एक बार फ़िर चमक उठता है,
उसका चेहरा माँ मरियम की तरह।

 

लड़की की हँसी

 

लड़की जब छोटी थी, खूब हँसती थी,
उसकी हँसी मोहल्ले में गूँजती थी,
लोग कहते थे, कितनी हँसमुख है, कॉलेज में भी उसकी मधुर हँसी,
बहुत मोहक थी।
लेकिन जब वह आईने के सामने,
खड़ी होकर मुस्कुराने लगी,
सबने कहा,यह बड़ी हो गई है,
जल्दी से हाथ पीले करके मुक्ति पाओ।
फ़िर माँ कहने लगी, क्या हमेशा
दाँत दिखाकर खी-खीकर हँसती है?
ससुराल में नाक कंपाएगी।
एक दिन वह सबको छोड़कर
चली गई पति के घर,
उसका सुखी खुशहाल परिवार है,
लेकिन अब वह बिलकुल नहीं हँसती,
माँ-बाप की नाक कटाने से बच गई।

औरत

औरत चुपचाप हर वक़्त कुछ बिनती है,
गुनती है, कुछ न कुछ करती है,
कब सोती है,जागती है,किसी को पता नहीं
बच्चे को खिलाती है,पिलाती है,
सबके खाने के बाद खाती है,
सबको दवा देती है,पर किसी को भी नहीं पता,
उसे भी किसी दवा की ज़रूरत है।
एक दिन तीज के निराजल व्रत में,
बेहोश होकर गिर गई,
बहुत देर बाद अस्पताल पहुँची।
डॉक्टर ने कहा, “एनेमिक’ है,
शरीर में खून की कमी है,
व्रत उसके लिए बहुत ख़तरनाक है,
जान भी जा सकती है।”
पति ने कहा, “उसकी लम्बी उम्र के लिए है व्रत,
तोड़ नहीं सकती,
लगेगा ईश्वर का शाप
और वह चली गई चुपचाप।
सभी ने कहा, “धन्य है!
पति की गोद में दम तोड़ा है,
सुहागिन स्वर्ग जाएगी।”
कुछ ही दिनों में भुला दी जाती है,
उसकी तस्वीर कहीं घर के कोने में,
डाल दी गई धूल खाने के लिए,
कुछ दिनों बाद एक दूसरी औरत,
आ गई स्वर्ग जाने के लिए।

 

भारतीय मुसलमान

 

वे मंगोल, तुर्क और उज़्बेक नहीं थे
वे फारस और समरकंद से भी नहीं आए थे
इसलिए मुग़ल भी नहीं थे,
उनके पूर्वज कौन थे, उन्हें नहीं पता
उन्हें इतिहास में कोई रुचि भी नहीं
इसलिए कि वे मुसलमान हैं,
भारतीय मुसलमान।
उन्हें सिर्फ़ इतना मालूम है
उनके पुरखे यहीं दफ्न हैं,इसी ज़मीन में,
उनकी भी तमन्ना है
उनकी कब्र हो यहीं घने नहीं नीम तले,
वे अवधी, भोजपुरी,मैथिली, कोंकणी बोलते हैं
तमिल, मलयाली और तेलगु भी बोलते हैं
वे उर्दू नहीं बोलते,
कोई कहता ,- अरे! ई तो राजा-महाराजा की बोली है,
उन्हें अरबी-फ़ारसी भी नहीं पता
वे कहते हैं,ये तो धरम की ज़ुबान है,
इसलिए कि वे मुसलमान हैं,
भारतीय मुसलमान।
वे ताजमहल,कुतुबमीनार, लालक़िले,
और दक्षिण भारत के विशाल मंदिरों के कारीगर हैं,
वे अलीगढ़ के ताले,ढाका की मलमल और मुरादाबाद के बरतन हैं
चुनार की कालीन और लखनऊ के चिकन के कपड़े हैं,
वे मुसलमान हैं,
भारतीय मुसलमान।
वे खेतों में खटते हैं
दोपहर को उनको दे जाती हैं रोटियांँ
कभी राधा कभी रेशमा,
कभी-कभी नमक से भी खा लेते हैं
और ठंडा पानी पीकर ख़ुदा को याद करते हैं,
नमाज़-रोज़ा उतना ही करते हैं
जितनी ज़रूरत है,
मौलाना की इस बात पर हँसते हैं,
कि धरम खतरे में है
वे हँसते हैं,कि धरम कहीं खतरे में पड़ता है,
खतरे में तो पड़ता है इन्सान,
वे कहते हैं,मौलवी साहब यह अनाज लो
ख़ुद चैन से रहो और हमें भी रहने दो,
क्योंकि वे मुसलमान हैं,
भारतीय मुसलमान।
हवाओं का रुख़ बदल रहा है
उन्हें पता ही नहीं,
लोग कहते हैं,तुम पाकिस्तान चले जाओ
वे सोचते हैं,कैसा है पाकिस्तान
क्या वहाँ लोग दिनभर नमाज़ ही पढ़ते हैं
या उनकी कबाब हमारे लखनऊ
और बिरयानी हैदराबाद से भी लज़ीज़ है
वे इसके आगे सोच ही नहीं पाते,
फिर ठहाके लगाकर हँसते हैं
हम काहे जाएँ पाकिस्तान
का हम मोजाहिर हैं,
वे मुसलमान हैं,
भारत के मुसलमान।
उन्हें राम से डर नहीं लगता
लेकिन अब वे जय श्रीराम से डरते हैं,
उन्हें तो पता था,सिर्फ़ राम-सीता की मुस्कुराती मोहक छवि
जिनके चरणों हनुमान की शान्त छवि,
लेकिन अब वे राम-हनुमान की रौद्र छवि
पर चकित होते हैं,
यह तो वे राम-हनुमान नहीं हैं
जिन्हें वे बचपन में देखते थे रामलीला में,
उन्हें पता है,अब हवा बदल रही है
लेकिन वे नहीं बदले,
अभी भी अब्दुल-रहमान के बच्चे खेलते हैं
गलियों में राम-श्याम के बच्चों के साथ,
अभी भी वे हिन्दुओं के साथ मनाते हैं
होली, दीवाली और ईद,
दिलों में दीवारें डाली जा रही हैं
उन्हें पता है,
लेकिन अभी भी वे खुलकर हँसते हैं
अपनी अपार जिजीविषा के साथ,
क्योंकि वे मुसलमान हैं,
भारतीय मुसलमान।

 

पीली आंखों वाली लड़की

 

बहुत याद आती है,
पीले कपड़े और पीली आँखों वाली लड़की।
दुबली पतली,लबालब आत्मविश्वास से भरी।
पहली बार जब देखा था गली के मोड़ पर,
हवा में घुल गई थी थोड़ी नमी, नमक और सुगंध।
अद्भुत आँखों को देखकर हो गया था चकित और विस्मृत।
पीले घिसे हुए कपड़े में दमक -चमक रही थी,
जैसे बाढ़ के दिनों में नदी में चमकती है बिजुरी,
सरसों के फूलों से लदे खेत में दौड़ती है अलसाई हवा।
उसके चेहरे पर थी उसके हौसले की आभा अपनी बहनों की तरह।
मैंने देखा उसे लड़ते हुए
सामंती पिता से आजादी के अहसास के लिए,
बेहतर दुनिया के लिए निरंकुश कालेज प्रिसिंपल से।
मुझे याद है लड़ गई थी अपने पिता से
रात्रि की मीटिंग में जाने के लिए,
बनाने के लिए दहकते शब्दों वाले पोस्टर,
गाने के लिए उम्मीद और इंकलाब के तराने।
उसके अपार हौसले से पीछे हट गए थे असफलताओं से घिरे थके पिता
हम पीते हुए चाय, खाते हुए तीखे कबाब,
कालेज के बाहर धुंधलाती हुई चाय की दुकान पर,
जीवन के सौन्दर्य के बारे में सोचते हुए,देखते हुए स्वप्न,
बहुत खूबसूरत थे दिन और ठहरा हुआ समय तुम्हारी आँखों में।
मुझे ठीक से पता है,
उसने बचपन में भी नहीं देखे होंगे,
सपने खिलौने, तितलियों और फूलों के।
आज भी उसके सपनों में नहीं आता होगा राजकुमार।
शायद वह देखती होगी,बेहतर दुनिया के सपने,
और प्यार भरा परिवार,बहुत प्यार करने वाला
पति और बच्चे
पर एक मधुर कविता,
जिंदगी से बड़ी नहीं होती और हर जिन्दगी कविता नहीं होती।
कॉलेज से लौटते हुए एक दिन अचानक उसने कहा
मैं विवाह करने जा रही हूँ,
मैं लम्बे स्वप्न से अकबकाया और जागा,
“शादी और तुम! किससे?”
उसने कहा,“वहीं जो रोज आता है,बैठा रहता है,
देखते हुए मुझे बीमारी में भी।
अच्छा भला है,सरकारी नौकरी भी है।”
लेकिन क्या तुम उससे प्रेम करती हो? मैंने पूछा,
वह हँसी “हर चाहत ज़रूरी नहीं कि वह पूरी हो,
प्रेम छलावा है।” उसने कहा,
तो क्या प्रेम जिदंगी भर एक टीस नहीं देता?
वह चुप रही अजीब सी निगाहों से देखती हुई।
मैं देखना चाहता था चमक
उसकी पीली आंखों में चमक,
यह पूरा नहीं हुआ,जैसे बहुत सारे पूरे नहीं हुए ख्वाब।
अकसर अकेले सोचता हूँ,
क्या वह भूल गई होगी,अपने पीछे छूटे शहर को,
गलियों में खेलते बच्चों और आँगन में खिलते फूलों को।
वर्षों बाद वह एक बार फिर मिली वह,
पुस्तक मेले में पुकारते हुए मेरा नाम।
देखा जीन्स टाप पहने उसी पुरानी हँसी में कह रही थी
“अरे! मैं वही हूँ,गोरखपुर वाली तुम्हारी।”
अन्दर-बाहर के कोलाहल में,डूब गए थे आखिरी शब्द।
कई बार ऐसा होता है ज़ुबान तालू में चिपक जाती है
होठ सिर्फ़ थरथराते हैं और हम हो जाते हैं निशब्द।
हम तलाशते हैं,दशकों पुराने को,
जो न दिखता है,न मिलता है।
एकाएक उसने कहा, “खो गये कहाँ
चलो पीते हैं काफी किसी रेस्टोरेंट में।”
वह हँसी, “मुझे अब,चाय नहीं है पसंद
मैं तो पीती हूँ,केवल अब काफी ही।”
मैं याद दिलाना चाहता था कि कैसे कालेज के सामने
चाय की दुकान पर पीते हुए,चाय बैंच से तुम गिर गई थी।
गिरने के डर से क्या बदल दिया, स्वाद,चाय और दिशा।
मैंने पूछा अभी भी पसंद हैं तुम्हें किताबें
वह ठहाका लगा कर हँसी,
नहीं यार,अब बन गई हूँ दादी और
अपने प्यारे पोते के लिए,खोज रही हूँ कुछ किताबें!
अरे! तुम दादी भी बन गयी और अभी मैं पिता भी नहीं बना।
वह शायद चौंकी,“तुम्हारी भी तो हो गई शादी।
बुलाया नहीं मुझे।”,मैं कहता क्या?
कुछ पते अकसर गायब हो जाते हैं,
इन पतों पर चिट्ठी अकसर नहीं पहुँचती,
फोन के नंबर बदल जाते हैं,
और दूर से कहीं आवाज गूँजती है,
यह नंबर स्थायी रूप से बंद हो गया है।
फिर भी भूल गए दोस्तों की याद तो आती ही है।
अब वह राजकुमारी से रानी बन गयी है।
मुझे याद आता है,ट्यूशन के पैसों से खरीदी लाल साइकिल,
जिसे चलाती थी हमेशा उसकी छोटी बहन।
वह कहती,“मुझे अच्छा लगता है पैदल चलना।”
मुस्करा कर कहती,“तुम भी तो चलते हो साथ-साथ पैदल।” और इस तरह छुपा लेती
अपनी पीड़ा और थकान।
अब तुम बहुत खुश हो मैंने कहा
प्यार करने वाला पति,दो बच्चे और एक पोता।
अब कार से चलती हूँ फर्राटे से
और क्या चाहिए जीवन में।
छोटे की शादी में आना नहीं चलेगा कोई बहाना।
मैंने देखा,अब उसे नहीं याद है अभावों से भरी पुरानी दुनिया।
देश और विदेशों में घुमते हुए खूबसरत दुनिया में।
बदलते मौसम और मिजाज में,
क्यों कोई बाँध के रखे हमेशा कपार पर,
भयावह अभाव की गठरी।
उसने टोका,“अपने में ही डूब जाने की आदत,
गई नहीं तुम्हारी।
आना ज़रूर मेरे शहर आना।
बच्चे होंगे खुश। मम्मी के फ्रैंड आए हैं।”

 

रीयल्टी शो के बच्चे

 

रीयल्टी शो के बच्चे बिलकुल रीयल हैं,
कोरियोग्राफर के इशारों पर गाते हैं,
रबर की तरह शरीर को छोड़ते-मरोड़ते हैं,
हँसते हैं,रोते हैं हक़ीक़त में,
लेकिन उनके आँसुओं के भी मोल हैं,
चैनल को मिलती है टीआरपी
और वे मालामाल हो जाते हैं।

रीयल्टी शो के बच्चे स्कूल भी जाते हैं,
जहाँ वे विशिष्ट हैं,खेल नहीं पाते हैं साथियों के संग,
वे डरते हैं,कहीं चोट न लग जाए,
कल ही तो है उसकी रिकॉर्डिंग,
घर लौटते ही फ़िर जुट जाना है रिहर्सल में,
वे एक बार देख लेते हैं,आह भरकर खेल के मैदान को,

 

माँ-बाप के लिए,वे पैसे कमाने की मशीन हैं,
इसलिए बचपन से सुन्दर बनाए जाते हैं,
केमिकल और हार्मोन्स से फुलाए जाते हैं,
उनके गाल और होंठ,
इस तरह वे जीते हैं,एक नकली जीवन,
और अकसर ढेरों माइकल जैक्सन की तरह,
दम तोड़ देते हैं,अपनी जवानी में ही,
माँ-बाप जितना रोते हैं,
बच्चों की सफलता-असफलता पर,
उतनी ही टीआरपी मिलती है चैनल को।

 

एक कोई राजकुमारी रोती है,
उसे छोटे भाई का कराना है,इलाज़ कैंसर का
उसके आँखों से छलकते,आँसू बिलकुल असली हैं।
कार्यक्रम को होस्ट भी,आँखों में आँसू भरकर,
वादा करते हैं,इलाज़ कराएँगे उसके भाई का,
ख़त्म होते ही,उन्हें मिल जाता है चेक,
और वे भूल जाते हैं,राजकुमारी के आँसुओं को,
उन्हें दूसरे चैनल के शो में भी तो जाना है,
आख़िर किस-किसको वे याद रखें,
वे बुद्ध की सोचते हैं,
यह दुनिया ही दु:खों से भरी है।

 

कभी याद आती है,नन्ही मीना कुमारी,
वह फिल्म के सेट पर,बेहोश हो गई थी भूख से
उसे नहीं मिला प्रेम,बचपन और जवानी में भी,
उसकी मौत हो गई,
अकेलेपन और जीवन की रिक्तता में,
क्या विज्ञापनों और रीयल्टी शो बच्चों की,
यही नियति है?

 

● ‘रियल्टी शो’(टीवी पर प्रसारित होने वाले लाइव प्रोग्राम)

 

स्वदेश कुमार सिन्हा -लेखक,कवि,अनुवादक और सम्पादक

लम्बे समय तक कई समाचारपत्रों में नौकरी करने के पश्चात वर्तमान समय में स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य में रत। विभिन्न न्यूज़ पोर्टलों,समाचारपत्रों तथा पत्रिकाओं में कला,साहित्य संस्कृति,राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति,बहुजन विमर्श पर ढेरों लेख तथा कविताएं प्रकाशित। विभिन्न लेखकों और कवियों की कुछ पुस्तकों का सम्पादन। प्रकाशित पुस्तक ‘धर्म,समय और संस्कृति का राजनीतिक अर्थशास्त्र’ न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से प्रकाशित।

 

राहुल खंडेलवाल

 

(1) अनसुनी गुहार जिसे सुनकर, नज़रंदाज़ कर देने की हमें आदत हो गई है।

 

उसका इतिहास, राजनीति, भूगोल, धर्म और समाज,
उसके अपने, और नज़दीक के दस मकानों तक सीमित है।

 

जहां उसने, अपने और औरों के साथ,
प्रेम, आदर और सहज भाव से रहना सीखा है।

 

इस उम्र में भी, वो अपने “इस छोटे-से देश” में,
जिस किसी को जानता(ती) है,
हर किसी के प्रति ज़िम्मेदारी का भाव रखता(ती) है।

 

वो अपने समर्पण को, मोल-भाव कर,
तराज़ू में नहीं तोलता(ती), व्यसकों की तरह।

 

उसे नहीं मालूम था कि उसके अनुसार परिभाषित देश को,
और उसमें रहने वाले उसके बेकसूर अपनों को,
युद्ध के दौरान, जाने या अनजाने में तबाह किया जा सकता है।

 

और जब वो अनेक लाशों के बीच,
अपनी मां, पिता, भाई, बहन और दादी के,
ना होने का कारण पूछता(ती) है,
तो जवाब में, थमा दिया जाता है उसके हाथ में,
देश का इतिहास, राजनीति, भूगोल, धर्म और समाज।

 

(3) क्या ख़ुद में होते हुए, इस बदलाव को देखकर भी, तुम्हें ख़ुद से डर नहीं लगता?

 

अब उन सभी की आंखों ने,
आंसू बहाना बंद कर दिया है।
यह सब कितना असामान्य है,
कि हार रही मनुष्यता को देख,
सभी चैन की नींद कैसे सो पाते है?

 

क्या तुम सो पाओगे चैन से,
गर तुमको जान पड़े कि,
कई माएं खो चुकी है,
अपनी बेकसूर संतानों को?

 

और यह सब जान कर भी,
अब तुम्हारी ख़ुद की आंखों ने भी,
आंसू बहाना बंद कर दिया है।
जवाब दो, क्या ख़ुद में होते हुए,
इस बदलाव को देखकर भी,

 

तुम्हें ख़ुद से डर नहीं लगता?

क्या तुम्हें डर नहीं लगता यह सब सोच कर भी,
कि ख़ुद के सामने तुम देख रहे हो,
असामान्य को सामान्य में तब्दील होते हुए?

 

बोलो, इतने बेबस और बुज़दिल कैसे हुए तुम?
जवाब दो।

 

(2) हम खो रहे है हर दिन, अंतःकरण से आने वाली आवाज़ को सुनने की क्षमता।

 

हिंद रजब का डरना प्राकृतिक था,
उस हर एक दूसरे व्यक्ति की तरह ही,
जो गर उन परिस्थितियों में होता,
तो डर का ही चुनाव करता बिना झिझके।

 

उसकी मदद से भरी गुहार और आवाज़ को सुनने के बावजूद,
अपने हित के खो जाने के डर की वजह से मदद ना करना,
चारों ओर गूंजती पुकार को अनसुना कर फिरसे डरना,
किसी भी रूप में प्राकृतिक तो नहीं था।

 

हम खो रहे है हर दिन,
अंतःकरण से आने वाली आवाज़ को सुनने की क्षमता।
कि घटनाओं के पीछे छिपे संदर्भ असल है या नकली,
और कौनसे कारक प्राकृतिक है और कौनसे कृत्रिम,
इन्हें पहचानने की दृष्टि अब हममें शेष नहीं।

 

मौजूदा समय की स्थियियां इस बात की गवाह है,
कि इंसान गुज़रते हुए समय के साथ बुज़दिल हो रहा है।

 

कि उसके लिए अब सही और गलत का निर्णय,
सिर्फ उसके हित और अहित पर निर्भर करता है।
असल में क्या सही है और क्या गलत,
क्या सत्य है और क्या असत्य, इस पर नहीं।।

 

राकेश खंडेलवाल, साहित्यिक परिचय
राहुल खंडेलवाल (पी.एच.डी. शोधार्थी, इतिहास और संस्कृति विभाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया)
स्नातक के समय किरोड़ी मल कॉलेज, दिल्ली विश्विद्यालय के न्यूज़लेटर में रचनात्मक लेखक के रूप में कार्य किया है, तत्कालीन न्यूज़लेटर में कुछ लेखन प्रकाशित हुए। “अक्षर” नामक अपने निजी ब्लॉग पर पिछले काफी समय से लगातार लिख रहे हैं। अभी जामिया मिल्लिया इस्लामिया के “इतिहास और संस्कृति विभाग” में शोधार्थी हैं  । हिंदी साहित्य पढ़ने का शौक रखते हैं, साथ ही साथ अन्य भाषाओं का अनुदित साहित्य भी पढ़ते हैं।

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