कवि अग्रज

“तिल” का ताड़ बनाती हिन्दी फ़ारसी सूफ़ी कविता
(डा. श्याम मनोहर पाण्डेय की पुस्तक “हिन्दी ‌और फ़ारसी सूफ़ी काव्य” से साभार)

साहित्य और सौन्दर्य वर्णन एक दूसरे के पर्याय हैं, किन्तु तुच्छ से दिखने वाले शारीरिक चिन्ह को भी किस तरह से दार्शनिक व श्रेष्ठतर स्तर दिया जा सकता है, यह बात केवल फ़ारसी एवं हिन्दी साहित्य में संभव है। डा. श्याम मनोहर पाण्डेय ने अपनी पुस्तक “हिन्दी ‌और फ़ारसी सूफ़ी काव्य” में तिल के महत्व को दर्शाने वाले काव्य का खूबसूरत वर्णन किया है। प्रस्तुत अंश उनकी पुस्तक में से साभार लिए गए हैं।

मौलाना दाउद कृत चन्द्रायन में (1379 ई.) चन्दा के कपोलों के चित्रण में एक पूर्ण छन्द में तिल का वर्णन है।

नयन सवन बीचु तिलु इकु परा । जानु विरह मसि बिंदुषा परा।।
मुख के सिहाग भएउ तिल संगू । पदुम पहुप सिर बइठ भुजंगू।।
बास लुबुध बइठेउ भल आई। काढि रहा हरि जानु उड़ाई।।
तिल बिरहें बन घुंघुची जरी। आधि कारि आधी रत फरि।।
बिरह दगध हौ (हऊँ) भरन सनेहा। रगत हीन कोइला भइ देहा।।
तिल संजोग बाजुर सिर कीन्हेउ, ओहत भा परु जाई।।
राजा हिये आगि परजारी तिल तिल जरि न बुझाई।।
( पृ. 71-72 )

इस छन्द में तिल के बारे में बताया गया है कि नयन ‌और कान के बीच एक तिल है मानो यह विरह   मसि बिन्दु है, कमल पर भ्रमर की तरह तिल शोभायमान है। तिल के विरह से वन में घुंघुची जल गई, वह इसीलिए आधी काली, आधी लाल है।

इसी परम्परा की दूसरी कृति मृगावती में (सन् 1503) कहा गया है-

तिल बिसहर पातर नहीं मोटे, जहां कपोल कनक वै खोटे।
जनु कौड़ा पारस चिकनाए, कै रे गाज कालहिं लहि लाए।
कै खटपट पाहन बैसावा, धाइ रूप सुनु बकति न लावा।
हउं कपोल धरि रहेउं तवाई, घूमि परेउं तांवर नहिं जाई।
ओहि कपोल पर धरइ कपोला, सुर नर नाग सीस फुनि डोला।
जोगी जंगम तपसी जती सन्यासी सब्ब।
देखि कपोल नारि कै एकहिं रहा न कब्ब।।
(कुतुबन कृत मृगावती, 1968)

मालिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत (1545 ई.) में दो छन्दों में तिल का वर्णन है। एक में कहा गया है कि पद्मावती के बाएं कपोल पर तिल है। जो उसके तिल को देखता है उसके शरीर में तिल-तिल में आग लग जाती है।

तेहि कपोल बाएं तिल परा, जेहिं तिल देख सौ तिल तिल जरा।
जनु घुंघुची वह तिल करमुंहा, बिरह बान सांधा सामुहां।
और
कंपल कपोल ओहि अस छाजे। और न काहु दैयं अस साजे।
पुहुप पंक रस अमिय सँवारे। सुरंग गेंदु नारंग रतनारे।
पुनि कपोल बाये तिल परा। सो तिल विरह चिनिंग कै करा।
जो तिल देख जाइ डहि सोई। बाई दिस्टि काहु जनि होई।
जानहु भंवर पदुम पर टूटा। जीउ दीन्ह औ दिएहुँ न छूटा।
देखत तिल नैनन्ह गा गाड़ी। औरु न सूझै सो तिल छाँड़ी।
तेहि पर अलक मंजरी डोला। छूए सो नागिन सुरंग कपोला।
रख्या करै मंजूर औहि हिरदै ऊपर लोट ।
केहि जुगुति कोई छूइ सकै दुइ परबत की ओट।।
(पद्मावत ‍– पृ. 400)

तिल विरह का बाण है जिसको सीधा ताना गया है। तिल अग्निबाण है, उसके एक कटाक्ष से लाख दो लाख जूझ जाते हैं। वह तिल काल स्वरूप है, और उसे मिटाया नहीं जा सकता। कपोल पर उस तिल को देखकर ध्रुव नक्षत्र आकाश में गड़ा रह जाता है।
मंझन कृत “मधुमालती” में तिल के सम्बन्ध में कहा गया है-
तिल जो परा मुख ऊपर आई। बरनि न गा किछु उपमा लाई।
जाइ कुंवर चखु रूप लोभाने । हिलगे बहुरि न आवहिं आनै।।
तिल न होइ रे नैन कै छाया। जासंऊ सोभ रूप मुख पाया।
अति निरमल मुख मुकुर सरीखा। चखु छाया तामहं तिल दीखा।
स्याम कोंवर लोचन पुत्तरी। मुख निरमल पर तिल होई परी।
अति सरूप मुख निरमल मुकुर समान प्रवान।
तामहं चखु कै छाया दीसै तिल होइ होई परी।।
(पृ.-74)

फ़ारसी के सूफ़ी काव्यों में तिल का चित्रण हुआ है। फ़ारसी के प्रेमाख्यानकार निज़ामी ने अपनी मस्नवियों में अनेक स्थलों पर तिल का चित्रण किया है।

मख़ज़नुल असरार (1176) में कहते हैं।
दर शबे ख़त साख्ता सह्ले हलाल,
बावली गमज़ा व हिन्दवी खाल,
हर नफ़स अज़ गमज़ा व खाले चुनान,
कुश्ता जहान बाबिल व हिंदुस्तान।
(शम्सी हिजरी 1313, पृ.64)

उसके काले ख़त में जादू मिला हुआ था। उसके जादू भरे नख़रे और काला तिल। उसके नख़रे और ऐसे तिल से हर व्यक्ति मारा गया। सारा संसार बाबिल और हिन्दुस्तान (मारा गया)।

लैला मजनूं (1180) में एक चित्रण इस प्रकार है।

“बर रिश्ता (रिस्ता) जिल्फ अक्दे खालश,
अफ़ जुदा जवाहर जमालश
दर हर दिले अज़ हवास मैले
गेसुवश चू लैल नाम लैले”
उसके छूटे हुए ज़ुल्फ ‌‌और उसका तिल प्रकट है। इससे उसके सौन्दर्य के जौहर में वृद्धि हो गई है। हर दिल में उसके लिये अपने आप आंकाक्षा उत्पन्न हो जाती है। उसके केश रात की तरह हैं ‌और उसका नाम लैला है।
खुसरो शीरी में निज़ामी ने कहा है
मह अज़ खूबी यशख़दरू खाल खान्दा।
शब अज़ खालश किताबे फाल खांदा।

उसके तिल सौन्दर्य को देखकर चांद कहता है, यह तिल मेरा है और रात इस तिल के लिये शुभ शकुन की पुस्तक पढ़ रही है।
तिल जैसे नन्हें से चिन्ह के लिए जितने उपमान साहित्य में दिए गए हैं, जितनी कल्पना की गई है वह साहित्यिक ही नहीं पाठकीय दृष्टि से अनुपम है।

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