कविता के बारे में

कविता के शाश्वत रंग

 

अनन्द खत्री

 

आर्कीटेक्ट, दार्शनिक, ‌और कवि आनन्द खत्री ने ” इक्कीस मौसम” नामक पुस्तक में कविता के विभिन्न रंग रूपों को व्याख्यायित किया है, हम उन्हें ही प्रस्तुत करेंगे, हर एक रंग चिन्तन की दिशा देता है। कविता की पूर्णता पर विश्वास भी।

 

 

” मेरा तर्क है कि कविता को (पहली बार) पढ़ा नहीं जा सकता, उसे सिर्फ़ दोबारा पढ़ा जा सकता है। मेरे लिये वो पुरातन ग्रंथों की अविराम धारा है, एक ऐसी भाषा जिसको परख और प्रेरणा के लिये पढ़ा जाता है। कवि भविष्यत्कथन की भांति लिखते हैं, और उनका काम हमें सिखाता है कैसे जियें। जब कविताओं की भाषा ढंग से सीख ली जाती हैं, तो हमारी व्यक्तिगत शब्दावली और दुनिया में विचरने का दृष्टिकोण बन जाती हैं।” (परिणी, 2008)

 

बच्चों की पढाई-लिखाई और शिक्षा उन्हें अपने तर्क को अपनी अंतः प्रज्ञाजन्यता से जोड़ना नहीं सिखाती है। ज्ञान का प्रसार परिधियों में बंधे विषयों में ही सीमित रहता है। इन विषयों के संज्ञानात्मक घेरे इनको एक दूसरे में बहने की इजाजत नहीं देते। भाषायें, शैली, विज्ञान, गणित सबके अर्क काव्यात्मक लगते हैं, मगर जहां इनके अध्ययन की सीमा समाप्त होती है, कविता वहीं शुरू होती हैं।

 

कविता का विज्ञान एक अन्वेषित विज्ञान है – विज्ञान की अविदित्ता है, काव्य का गणित है – अनेक गलतियों का गणित, तर्क की कविता-

 

जहां जीवन की तर्कहीनता तर्क की मूल प्रकृति एवं जीवन के रहस्यों को उभार सकती है। ऐसा लगता है कि दुनिया उन गहराईयों की सम्पूर्णता से डरती है जो भौतिक और स्पर्शनीय के पार हैं; बंद कर देती है दुनिया अंतर की छिपी हुई अनेक गहराइयों के पूर्ण संज्ञान के सभी द्वार।

 

असत्य दिखने वाला संसार में छुपा सत्य मानव अवधारणा को सबसे पहले मिला और उद्भूत हुआ कविता में। अबोध्य-रचनात्मक रात में हमें अपने आप को इसलिए खो देना है कि हम दिन के उजियारे की स्पष्टता में काम कर सकें।

 

जब मैंने अपनी पुरानी लिखी कविताएं हाल में दोबारा पढ़ीं, तो मुझे लगा कि मैं खुद से पहली बार मिला। वो एक अलग ही मैं था। फिर और दोबारा पढ़ने और चिंतन करने पर मुझे एक काव्यात्मक उन्नत चेतना के विविध वर्ण दिखे। मेरी कविता और मेरे बीच एक दिव्य-मध्यस्थता खड़ी मिली जो मेरे उस वास्तविक मैं को सतह पर उभार लाई जिसे शायद मैं अब खो चुका महसूस करता हूं। ये मैं मेरे संकीर्ण अहम् भाव से अलग है।

 

शब्दों का वह मेला जो कविता कहलाता है, वह मानो हृदय के भीतर तक एक पुल बना लेता है। रोजमर्रा की भाषाएं भावनाओं की गहराई को नहीं छू पाती हैं। शब्द सिर्फ संकेत मात्र हैं। वैसे ही जैसे परमानंद की आहें और दर्द के विलाप को शब्दों में नहीं अनूदित किया जा सकता, जैसे- पीड़ा की चीखें या आनन्द की कूक भी अधूरी व्यंजनाएं ही हैं, जैसे आमोद का शोर और विपत्ति का विलाप एक प्रभावहीन उक्तियां हैं, ठीक वैसे ही भाषा पूर्ण संचारण के लिये अधूरी है। अपने अंधेपन में कविता राह दिखाती है पर वो भी रूपकालंकारों में छिप जाती है। वो यथार्थ अथवा सटीकता से लजाती है।

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