मेरी बात

 

 

 

 

 

 

 

 

यूं तो प्रत्येक काल के लिए हमारे पास तर्क होते हैं कि यह वक्त खराब क्यों है, हालांकि हम अभी अभी बेहद बुरे समय से गुजर कर आए हैं, लेकिन आदमी की खासियत यह होती है कि वह न तो बुरे वक्त से कुछ सीखता है, न ही उसे याद रखता है। उक्रेन और रूस के युद्ध को चलते हुए वक्त बीतता जा रहा है। अन्य देशों में भी युद्ध भावना सिर उठाने लगी है।

युद्ध करने के लिए आगे बढ़ती है राजनैतिक आकांक्षाएं, लेकिन भूगतते हैं, बच्चे और स्त्रियां, पुरुष नहीं भुगतते, यह मैं नहीं कहूंगी़।

इन युद्धों से हम जो महसूस कर रहे हैं, वह है, पुनः पुनः जमीन से उखड़ने की बेदना। युद्ध शुरु होता है, परिवार कामना करते हैं कि सब कुछ खत्म हो जाएगा, फिर से शांति छा जाएगी, लेकिन कुछ वक्त बा द उन्हें सब कुछ खो कर, छोड़ कर लौटना पड़ता है।

कभी कभी तो यह खोना या छोड़ना जिन्दगी में कई दफे होता है। ऐसी पीड़ा को शब्द देने से भाव ही पिरा जाते हैं।

फिर किसी काल को चिह्नित करती कविता सिर्फ पीड़ा की बात क्यों करती है, यह भी सवाल उठता है।

दरअसल पीड़ा में सारे भाव होते हैं, प्रेम भी, लेकिन प्रेम के रस में कसैलापन होता है, लिसलिसापन।

बस यही बात प्रेम कविताओं के सामने सवाल उठाती है। अन्यथा प्रेम तो मूल भाव है ही।

कुछ ऐसे ही सवालों के साथ कृत्या के नए अंक के साथ प्रस्तुत हैं

स्वागत

रति सक्सेना

 

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