समकालीन कविता
विशाखा मुलमुले
पूना, महाराष्ट्र से कवयित्री व लेखिका विशाखा मुलमुले के अब तक ‘पानी का पुल’ एवं ‘अनकहा कहा’ दो काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी कुछ कविताओं का मराठी, पंजाबी, नेपाली, कन्नड़ व अंग्रेजी भाषा में अनुवाद हुआ है। विशाखा लेखन के साथ-साथ कविताओं के अनुवाद (मराठी से हिंदी , हिंदी से मराठी) भी कर रही हैं, आपकी कविताएं सात साझा संकलनों में प्रकाशित हुई हैं एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में हो रही हैं।
1 अनिर्बन्ध
मैंने गंधराज को तस्वीर में बांधा
उसकी सुगन्ध को नहीं
पक्षी को चित्र में उतारा
उसकी उड़ान को नहीं
नदी में पैर डाले
उसके बहाव को रोकने के लिए नहीं
समय को टिक – टिक में खींचा
उसके मुताबिक चलने के लिए नहीं
प्रिय के मन से मन जुड़ा
बन्धन कहीं नहीं
प्रेम
सुगंध, उड़ान, बहाव और समय में
बंधता भी नहीं!
आओ! श्वेतवसना
दूधी के हलवे का भोग लगाया है
पीले चावल बनाये हैं
वसंत पंचमी का दिन है
आओ और दुग्ध धवल करो अंतर्मन!
2 यह कैसा समय
काश! समय
हिरणों के कुलांचो – सा आता
या तितली के कोमल पंखों पर सवार होता
न हो तो नदी – सा बहता रहता निर्बाध
पर कलयुग में नदियां ही न रही अबाध तो समय की क्या बिसात
समय चला आ रहा है हाथियों के पग संग
रौंदता हुआ इतिहास व वर्तमान
हस्ती वाहन लिए आता सावन में
तो भर ही जाते सारे जलस्रोत
गजगामिनी – सी होती इसकी चाल
तो संगत में बज भी सकता था त्रिताल
धा धिन् धिन् धा। धा धिन् धिन् धा।
धा तिन् तिन् ता। ता धिन् धिन् धा।
फ़िदा हुसैन जीवित रहते तो
कैनवास में भी जगह बना लेता यह समय
और तो और
गजगामिनी के होने से यह भी विश्वास चलता संग
कि वह संततियों व झुंड के उदर भरण को ही है प्रतिबद्ध
वह तलाश में है जल स्त्रोतों के
करुणा रूपी मनुष्यों के
महावीर के, बुद्ध के
यीशु के, पैगम्बर के
नानक के, साईं के
पर नहीं
यह महावतविहीन निरंकुश समय
बढ़ा चला आ रहा है
अमानवीय ऊसर धरा पर
विडंबना यह कि
संकेतों की भाषा में चल रहा यह समय पर
बुद्ध के पुनर्जन्म के नहीं मिल रहे कोई संकेत ….
3 होना न होना
दाहिने उभार के दाहिने हिस्से में
जाने कब उभर आया एक लाल तिल
और मुझे ख़बर नहीं!
जैसे वह हो मेरी देह का दक्षिणी ध्रुव
या हो वह चंद्रमा का अंधेरा हिस्सा
उजाले में ख़ुद को देखूं इस बात की सहूलियत नहीं
स्नानगृह में शीशा नहीं
उसने भी जब देखा अंधेरे में देखा
नीम बेहोशी में देखा
धुंधली नज़र से देखा
फिर,
तिल के होने से कोई दर्द उपजता नहीं
जैसे चोट के लगने पर
जैसे सिर के दुखने पर
जैसे दिल के टूटने पर
तो वह बना तो बना
बस एक जगह त्वचा सिकुड़ गई
बस एक जगह को प्रकाश न मिला
बस एक जगह रंग भेद हुआ
बस एक जगह अदेखी रही
किसे फुर्सत कि धीमें बदलाव को चीन्हे
अंधेरे कोने में झांके, ढूंढे!
अजय दुर्ज्ञेय
युवा कवि अजय दुर्ज्ञेय सीहपुर, सतौरा, कन्नौज (उत्तर-प्रदेश) से हैं। अजय दुर्ज्ञेय परास्नातक हैं तथा स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। कवि अजय का लेखन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहा है।
1
तुम्हारी गली से गुजरा
मगर तुम्हारे घर की ओर नहीं देख पाया।
मैं जानता था तुम खिड़की से ताक रहे होगे मेरी राह
मगर अफसोस! मैं नहीं उठा पाया अपना चेहरा,
मेरी जलमग्न आंखें ताकती रहीं मेरे पैर। वही पैर,
जिनसे कहते हैं कि मेरा जन्म हुआ…
मेरा जन्म क्यों हुआ सोनरूपा?
मैं जानता हूं कि कल तुम्हें पीटा गया है,
तुम्हारी आत्मा पर गालियों के नील हैं प्रिय।
गांव के दक्षिणी छोर मेरे आंगन में भी सुनाई दे रही थी
तुम्हारे चाचा की गुस्से से कांपती आवाज-
“साली रंडी कुतिया छिनाल। चमरवा से इश्क़ करेगी”
(ऐसा कहते हुए वे भूल जाते हैं कि
रात को दीवाल फांद,
वे जिस फुलिया ताई के यहां रात बिताते हैं
वे भी एक चमार ही हैं)
मगर तुम बहादुर हो सोनरूपा!
इतनी यातना सहने के बाद आज फिर खिड़की पर आई हो
और मैं उतना ही कायर। कायर या समझदार?
कायर इसलिए कि अभी भी नीची है मेरी नजर और
समझदार इसलिए कि जो अभी उठा लूं अपनी नजर तो
क्या खिड़की छोड़, देहरी फांद आ सकोगी मेरे साथ?
एक चमार के साथ?
देखो सोनरूपा!
मेरे पास न तो रूप है और न ही सोना…
मेरे पास तो प्यार है और प्यार तो खुद चमार है।
क्या है ना कि दिल्लगी अलग बात है मगर
सच तो यही है कि प्यार और चमार के साथ नहीं ब्याही जाती कोई सोनरूपा!
सच तो यह भी है कि मैं नजर इसलिए भी नहीं उठाता
ताकि तुम्हें फिर से यह न सुनना पड़े-
“साली रंडी कुतिया छिनाल। चमरवा से इश्क करेगी”
2
दृश्य हूं,
दृष्टा हो रहा हूं मगर
दृष्टि पर रुक जा रहा हूं और
दर्शकों के लिए चिंतित हूं
चीखकर बोलता हूं –
सामने जो है दृश्य,
बिल्कुल नहीं दृष्टव्य। आप ‘अंतर’ देखो…
मगर अफ़सोस! दर्शक अंतर कर लेते हैं
मुझे कोई विदूषक समझ लेते हैं।
समझें…मैं बस इतना कहता हूं
कि दृश्य में क्या रखा है? कठपुतलियों का मजमा रखा है
मैं भी एक कठपुतली हूं मगर भीड़ से निकली हूं
और इसलिए कहती हूं कि यहां से निकल जाइये
आप को देखिए, पहचानिए और आप में धंस जाइए
लेकिन लोग आसक्त हैं
दृश्य पर अनुरक्त हैं। इतने अनुरक्त कि
अब मैं स्वयं उनके लिए अस्पृश्य हूं –
ऐसा अभागा दृश्य हूं।
3
मेरी मक्के की फ़सल
जिसे बोये बमुश्किल-अभी आठ दिन भी
नहीं हुए हैं,
उसमें कीड़े लग गए हैं
ठीक इसी समय
एक साक्षात्कार में चीख रहा है राज्यपाल-बौरा गया है,
वैसे भी यह बौर आने का मौसम है, कहता है-
सैनिकों की शहादत एक साज़िशी नाक़ामयाबी थी,
ताकि उसी तवे पर पकाई जा सके उन्नीस किलो की रोटी
ठीक इसी समय
एक विज्ञापन में कूद रहे हैं खिलाड़ी, अभिनेता-
कहते हैं-सट्टा लगाओ, पैसा कमाओ और
देखते ही देखते लगभग पूरी युवा पीढ़ी
पूंजी के इस त्यौहार में अपनी आहुति देने लगती है
ठीक इसी समय
कुछ युवा बदलते हैं अपना भेष, अपना रूप,
(क्या लगता है? किससे सीखा होगा भेष बदलना?)
अपराधियों को सुना देते हैं सजा-अदालतें मौन हैं,
मीडिया लहालोट है और राजा ‘कार्यवाई’ कर रहा है
मैंने कहा ना यह बौराने का मौसम है
और ठीक इसी समय
मैं चिंतित हूं कि मेरी फ़सल में कीड़े लग गए हैं।
मगर मेरी चिंता इससे कहीं ज़्यादा गहरी है-
खेत में दवा डालकर फ़सल तो बचा लूंगा मैं,
देश कैसे बचाऊंगा? मेरे देश को भी कीड़े लग गए हैं
4
इन दिनों चौबीसों घंटों, तीन सौ पैंसठ दिन
मेरे देश की संसद के भीतर से आवाजें आ रही हैं।
एक अजीब, अनचीन्ही, अर्थहीन आवाजें-
ऐसी आवाजें कि जिन्हें शोर कहा जाना चाहिए
सत्ता कहती है कि यह देशहित में काम करने की आवाज है,
विपक्ष कहता है कि यह हक़ की लड़ाई लड़ने की आवाज है,
मीडिया कहती है कि यह लोकतंत्र को चलाने की आवाज है,
प्रधानमंत्री कहता है कि यह विकास की आवाज है,
प्रधानमंत्री का दोस्त कहता है कि यह प्रधानमंत्री के जूतों की आवाज है
मगर कवि अलग है। वह कहता है-ध्यान से सुनो!
तुम्हें सुनाईं देंगी चप-चप की आवाजें…
जैसे कोई चटखारे ले रहा हो। इसलिए ध्यान से सुनो!
यह देश को खाने की आवाजें हैं-महाभोज चल रहा है।
सौरभ राय
बेंगलुरु निवासी सौरभ राय कवि, अनुवादक और पत्रकार हैं। झारखण्ड में बचपन और प्रारंभिक शिक्षा। बेंगलुरु में इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद अलग-अलग जगहों पर बतौर प्रोग्रामर, पत्रकार, और संपादक नौकरियां की। इसके अलावा अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय और निफ्ट में पढ़ाने का काम किया। फिलहाल ये एक स्थानीय स्कूल में हिंदी पढ़ाते हैं। सौरभ की प्रमुख कृतियाँ : काल बैसाखी (कविता-संग्रह); कर्णकविता – बैंगलोर वासियों की कविताएँ, तीन नाटक – अभिषेक मजुमदार (संपादन); सोहो में मार्क्स और अन्य नाटक – हॉवार्ड ज़िन, ओस की पृथ्वी – तीन जापानी हाइकु कवि (अनुवाद)।
सिर्फ इसलिए
कि मछली
नदी के भीतर
एक और नदी है
और चिड़िया
आकाश में फड़कता
एक और आकाश
या इसलिए कि तुम हंस रही हो
और दूर पहाड़ों की छन्नी पर
छन रहा है कोहरा
मैं पेड़ और घाटी की चुप्पी के साथ
तुमसे बात कर रहा हूं
मैं मेघ हूं यहां वहां रोशनी कम बेशी करता हुआ
तुम पानी में चिरकाल से हिलती धूप
हम एक ही दृश्य के दो बिम्ब हैं
तुम मेरी हथेली पर बुन रही हो मकड़ी का जाला
मैं तुम्हारी काट से जब्त
चमकते रेशों के बीच चमकता
इस इंतज़ार में बौराया कि तुम्हें भूख लगे
और तुम मुझे खाओ।
लुका छुपी
कैसा ईन पीन सेफ्टी पीन गिनती थी बुनु
कि हर बार मैं ही चोर बन जाता था
और सौ गिनने के बाद भरा-पूरा मोहल्ला
दीखने लगता था कैसा खाली
किसी जगह की आंतरिकता समझनी है
तो वहां लुका छिपी खेलिए
कौन सा पेड़ कितना ऊंचा है
किसकी स्कूटर कहां खड़ी रहती है
कई बार तो मोज़े के पीछे कोई छिपा मिलता
फिर उड़ जाता चिड़िया की आड़ में
कोई पीछे छप्पर से टपकने लगता
कहीं किसी की चप्पल चटकती
पहुंचो तो सन्नाटा
एक बार सब पकड़े गए थे
बचे थे सिर्फ संजय और सपना
दोनों ने सीढ़ियों में छुपकर कपड़े बदल लिए
मैं संजय को देखकर चिल्लाया सपना
और दोबारा चोर बना
एक बार मैं छिपा रह गया था पानी-टंकी के नीचे
और सब मुझे भूलकर लौट गए थे घर।
फिर लुका-छिपी बहाना बनने लगा
कुछ और नहीं खेलने का
कभी कोई पीछे से निकल जाता
दूसरे मोहल्ले जाकर पढ़ता कॉमिक्स
तो कभी चोर के ट्यूशन सर आ जाते
मैं और बुनु घर लौटकर विडियो-गेम खेलते
संजय सपना बैठे रहते सीढ़ियों पर साथ
फिर वो भी बंद।
अगले साल संजय धनबाद सपना पटने चली गई
दो साल बाद मैं भी रांची
अब तो पता भी नहीं कौन कहां है
दशकों बाद मैं ये बातें लिख रहा हूं
सामने बच्चे लुका-छिपी खेल रहे हैं।
यावर
याद है यावर –
तुम मुझे चाय पर बुलाने आए थे
मैं कुछ लिख रहा था और बरस पड़ा था तुम पर
सोचा था तुम भी वापस लड़ोगे
मगर तुम रो दिये थे
‘कोई मुझे मरा हुआ सांप दे
तो नहीं लेने का फैसला मेरा है।
जो आदमी अपनी भड़ास अपनों पर निकालता है
वो सबसे कमज़ोर आदमी होता है।’
चार साल हम हॉस्टल में अगल-बगल रहे
हम साथ खाना खाते रात को सड़कों पर साथ भटकते
कॉलेज में भी मिलते तो अदब से सलाम-वालेकुम ठोंकते
तुम धार्मिक थे मैं नास्तिक
फिर भी मेरे धर्म के प्रति तुममें
मुझसे अधिक आस्था थी
मैं कर्बला अली हदीस के बारे में कुछ नहीं जानता था
लेकिन जब कभी मैं राम या कृष्ण का कोई किस्सा सुनाता
तुम्हें पहले से पता होता उसका अंत
जब आखिरी बार मिले थे हम
तुम ऑफिस के बाहर खड़े थे
और हमने सिर्फ हाथ मिलाया था
फिर हम साथ गए तुम्हारे लिए घर खोजने
कोई नाम सुनकर पलट गया तो कोई शाकाहार बोलकर
एक से शुरू से अंत तक मैंने बात की
और जब भाड़ा डिपॉजिट तय हो जाने के बाद
तुमने अपना परिचय दिया
तब उसकी सूरत याद कर
हम देर तक हंसते हुए लौटे थे
तुम्हारे लिए कुछ भी नया नहीं था
कई शहरों में रह चुके थे तुम
शायद इसीलिए मौका मिलते ही
सोचने लगे परदेस जाने की
‘जब किसी क़ौम का बुरा वक़्त आता है तो हर जगह आता है।’
‘ऐसा नहीं है। पूरी दुनिया नीचे जा रही है।’
‘क्या दुनिया कभी बेहतर थी?’
‘अगर लड़ नहीं सकते तो कम से कम अपनी बात कहो।’
‘बहस से सिर्फ विचार का सर ऊंचा होता है।’
आज मैं बिलकुल अकेला हूं यावर
तुम दुबई जाओ या जकार्ता
कौन मानेगा तुम्हें अपना!
दो मास्क
(कोरोना काल की कविता)
घर लौटकर उतारे हुए
टेबल पर आमने-सामने रक्खे
सांस खींचकर ताकते हैं एक दूसरे की ओर
बाहर थे तो कर रहे थे अपना कर्तव्य निर्वाह
अगल-बगल चलते मुस्कुरा रहे थे
अब इनमें कोई तनाव नहीं धागे निस्पंद बातें बंद हैं
पुरुष जा चुका है नहाने स्त्री झुक गई है फ़ोन पर मौत की ख़बरें पढ़ने
इसे लिपस्टिक की गंध से चक्कर आता है उसे सिगरेट की स्मेल से उलटी
गलती की कोई गुंजाइश नहीं जिसने जहां उतारे हैं
वहीं से उठाए जाएंगे उन्हीं-उन्हीं हाथों द्वारा
बीच में सैनिटाइज़र का पहाड़।