प्रिय कवि

शहंशाह आलम की कविताओं को आज के वक्त में रेखांकित करना इसलिए भी जरूरी है कि उनकी आवाज हाशिये में ढकेले जाते जन की आवाज बनती जा रही है। वे समकाल के स्थापित कवि हैं। वे लगातार लिख रहे हैं, और समय में अपनी स्पेस बना रहे हैं। उनकी कविताएं काफी कुछ कह जाती हैं। RS

 

शहंशाह आलम की कविताएं

 

 

1. चुप्पी

 

चुप्पी कहां नहीं थी समय के इस खंड पर पसरी हुई

 

कुएं के भीतर झांको तो चुप्पी ही बैठी दिखाई देती थी
पूरी तरह शांत पूरी तरह भयहीन पूरी तरह तरोताज़ा

 

शब्द में वाक्य में व्याकरण में ध्वनि में अलंकार में
धूप में चट्टान में घुन में दीमक में तिलचट्टे में
एक बेचैन कर देने वाली गहरी चुप्पी ही थी
जो ललकार रही थी मुझे भी अपना हिस्सा बनाने के लिए

 

पुल के नीचे छिपकर बजा रहे उस लड़के की शहनाई में
नदी में रह रहे कच्छप में नीले शंख में मछलियों में घास में
रेगिस्तान के ऊंट में ऊंटनी में चींटे-चींटी में छिपकली में
स्टेशन के एकांत में पड़े रेल के डिब्बे में पटरी में
एक बस चुप्पी ही थी जो उछल-कूद मचा रही थी
आदमियों का मुंह चिढ़ाती आदमियों के मुंह लगती हुई

 

यह भी सच है कि यह चुप्पी खटक रही थी अनगिन बार

अंतत: मैं ही अकेला पुकारता हूं अपनी पसंद का नाम
भांय- भांय सांय-सांय सन्नाटे से घिरी इस गहरी खाई में

 

अंतत: मैं ही अंधे कुएं के ठहरे हुए पानी में उच्चारता हूं
उच्चारता ही जाता हूं एक जादू भरी भाषा एक जादू भरा शब्द
और तोड़ता हूं इस कालखंड की चुप्पी को पूरी तरह बोलकर।

 

2. हारने के बारे में एक वर्णन

 

एक रोकर तो दूजा चुप रहकर व्यक्त करता है
अपने हार रहे समय को ख़ुद से बुहारते

 

यह अवांछित हार जाती कहां है उनके जीवन से
उनके हाथों लाखों बार बुहारे जाने के बावजूद

 

हार की कितनी परतें होती हैं कितनी क़िस्में
वे गिन नहीं पाते जबकि वे गिनते रहे थे
सूरजमुखी के फूल की परतें और क़िस्में

 

सच यही है हार उनके जीवन की एक अनवरत प्रार्थना थी
जैसे जीत आपकी प्रार्थना हुआ करती रही है प्रत्येक क्षण

 

तभी तो सारे हारे हुए करते हैं आत्मसमर्पण आप ही के समक्ष
यह कहते हुए – आप जो चाहें कर लें हमारे साथ हमारी माँ-बहनों के साथ
बस बदले में जीत लेने दें हमें जिस तरह आप जीतते आए हैं समय को

 

उन हारे हुओं को आपके संगमरमर जैसे चेहरे के पीछे छिपी
आपकी निरंतर हार की परछाईं के बारे में मालूम नहीं रहता
तभी सारे हारे हुए लोगबाग आते हैं आपकी हमदर्दी पाने

 

जबकि आप भी जीते कहां होते हैं रणक्षेत्र में कभी सचमुच
बस अपनी हार को बचा रहे होते हैं झूठी जीत की ख़ुशी मनाकर।

 

3. उनके भाषाहीन होने के बारे में

 

भाषा के मंच पर बैठा हर आदमी एक सभ्य भाषा से परिपूर्ण नहीं होता
जो थोड़ा-बहुत होता है वह धोखा दे रहा होता है कम जानने वालों के बीच
भाषा के हर आदमी को एक मंच चाहिए होता है भाषा को बिगाड़ने के लिए

 

असली सच्चाई यही है कि आज लोगों से भाषा को शुद्ध करने की कला
फ़िसलती जा रही है दूर होती चली जा रही है नाराज़ होकर

 

जो भाषाहीन हैं हमारे समय में वही कुशल भाषाकार बनकर प्रकट होते हैं
हमारे भीतर बच रही थोड़ी-सी भाषा चुरा ले जाते हैं मरी हुई भाषा सौंपकर

 

वे ही घोषित करते हैं स्वयं को सूफ़ी ब्रह्मज्ञानी
अध्यात्मवादी तसव्वुफ़ के अनुयायी
वे ही बन जाते हैं किसी धर्म से बैर नहीं रखने वाले
जबकि वे सबको एक आंख से देखने वाले क़तई नहीं होते
न सूफ़ियों जैसे होते हैं सबको प्रेम करने वाले

 

ऐसे व्यक्तियों को जो किसी भाषा के नहीं होते
उन्हें सूफ़ियों वाले मंच कैसे दे दिए जाते हैं
क्या सिर्फ़ इसलिए कि वे महामात्य होते हैं
या राष्ट्राध्यक्ष होते हैं या गाली बकने वाले होते हैं
इसीलिए किन्हीं सूफ़ी के साथ
किन्हीं भाषाकार के साथ खड़ा होने
या उनकी बग़ल में बैठने का
उनके सान्निध्य का हक़ मिल जाता है

 

इस समय हर तरफ़ हत्यारे ही हत्यारे दिखाई दे रहे हैं
भाषा के प्रेम के स्वच्छात्मा के सूफ़ी लोगों के
ऐसे में कहना कठिन है कि मेरी आपकी भाषा बची रह जाएगी
मारे जाने से उन भाषाहीनों के बीच
जो आधी सुबह आधे दिन को आधी सांझ आधी रात को
अपने बलात्कारी मन की बात करते हैं
और हम बिछे चले जाते हैं उन्हीं का बीजारोपण करते हुए
अपने बीजांकुर को मारते हुए उन्हीं के लिए।

 

4. विलगाव

 

मेरे घर की गंध थोड़ी अलग लगी उन्हें
मेरे बदन की बरतनों की मोज़ों की
धूल की भी गंध अलग लगी

 

मैंने घर की खिड़कियां खोलीं
मोज़ों को धोया धूल साफ़ की
बरतनों को रगड़-रगड़कर मांजा
नहाया मल्टीनैशनल साबुन से

 

तब भी उनका पूरी तसल्ली से दिया बयान
आ गया बहुत जल्द रेडियो पर टीवी पर
अख़बारों में सोशल मीडिया पर
कि उनके जैसा मैं कभी हो नहीं सकता

 

न उन्हें मेरे मत की ज़रूरत लगी
न अभिमत की न सम्मत की

 

मैं बासी पानी की तरह रहा
अपने राजा के लिए
उनकी नैतिकता में उनके न्याय में
इस लोकतांत्रिक कहे जाने वाले युग में।

 

5. लोहा

 

आज मैं लोहार के घर गया
यह जानते हुए कि लोहार को
किसी वैज्ञानिक किसी गणितज्ञ की तरह
महान नहीं माना गया किसी सभ्यता में

 

क्या किसी लोहार का काम
किसी वैज्ञानिक से किसी गणितज्ञ से
कम महान हुआ है कभी

मुझे मालूम है आप अपनी शान बघारते कहेंगे
लोहार शब्द से किसी छोटी जाति की बू आती रही है
वैज्ञानिक शब्द से गणितज्ञ शब्द से महान जाति का आभास

 

आप जनाब लोग आप साहब लोग कितने शातिर होते हैं
जिस लोहार का लोहा डाल-डालकर आप अपने विज्ञान का
आप अपने हिसाब-किताब का चमत्कार दिखाते रहे हैं
मुझ जैसे जाहिल मुझ जैसे काहिल मुझ जैसे अधकचरे को

 

और वाहवाही लूटते रहे हैं इस ओर से उस छोर चमत्कारिक

 

तो जनाब लोग साहब लोग
आपके मुखौटे का
दिप-दिप यह कायदा दिव्य यह कवायद
हमें कब तक भरमाता रहेगा
हमारे बुरे दिनों में आपके अच्छे दिनों-सा

 

किसी लोहार को लेकर
अथवा लोहार जैसों को लेकर
आप विद्वानों के जो भी गुप्त मत रहे हों
उनके लोहे से बने औज़ारों को लेकर
मेरा खुला मत यही है
जिस दिन ये औज़ार
आपकी देह पर पड़ेंगे
इतने भारी पड़ेंगे
आप अपनी टुच्ची सभ्यता में
भागते नज़र आएंगे किसी टुच्चे की तरह

 

हम पर हुकूमत करने वाले
जनाब लोग और साहब लोग
आपको तो मालूम है सदियों-सदियों से
कि विज्ञान विज्ञान होता है गणित गणित होता है
तो लोहा भी किसी शास्त्र से कम नहीं होता रहा है
हम लोहार की सभ्य सभ्यता में।

 

 

शहंशाह आलम

मुंगेर, बिहार में जन्में कवि, संपादक और आलोचक शहंशाह आलम ने एम. ए. (हिन्दी), विद्यावाचस्पति (मानद) की शिक्षा को पूर्ण किया तथा वर्तमान में बिहार विधान परिषद् के प्रकाशन विभाग में कार्यरत हैं। आपके अब तक दस कविता-संग्रहों के प्रकाशन अतिरिक्त न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन की ख़ास प्रस्तुति ‘समकाल की आवाज़’ सीरिज़ में आपकी चयनित कविताओं का भी प्रकाशन हुआ है। आलोचना की तीन किताबें ‘कवि का आलोचक’, ‘कविता की प्रार्थनासभा’ एवं ‘कविता का धागा’ आ चुकी हैं। कवि शहंशाह आलम ने ‘आकाश की सीढ़ी है बारिश’ बारिश विषयक कविताओं का संपादन किया है तथा ‘बारिश की भाषा’ साझा कविता-संकलन के अतिथि संपादक भी रहे। बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा ‘गर दादी की कोई ख़बर आए’ कविता-संग्रह को पुरस्कृत किया गया है। ‘स्वर-एकादश’ कविता-संकलन में कविताएं संकलित। ‘वितान’ (कविता-संग्रह) पर पंजाबी विश्वविद्यालय की छात्रा जसलीन कौर द्वारा शोध-कार्य। दूरदर्शन बातचीत पटना दूरदर्शन के लिए आलोचक खगेंद्र ठाकुर, उपन्यासकार अब्दुस्समद, कथाकार शौकत हयात, साहित्यकार उद्भ्रांत, कवि प्रभात सरसिज, कवि मुकेश प्रत्यूष, कवि विमलेश त्रिपाठी आदि से बातचीत के कार्यक्रम प्रसारित हुए हैं। आपकी कविताएं उर्दू, मैथिली, बांग्ला, पंजाबी, असमिया, अंग्रेज़ी आदि भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं। कवि शहंशाह आलम को बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा राष्ट्रभाषा परिषद पुरस्कार के अतिरिक्त ‘नई धारा रचना सम्मान’, ‘कवि कन्हैया स्मृति सम्मान’, ‘सव्यसाची सम्मान’, ‘हिंदी सेवी सम्मान’, ‘कोलकाता हिंदी मेला सम्मान’ सहित दर्जन भर से अधिक महत्वपूर्ण पुरस्कार/सम्मानों से सम्मानित किया जा चुका है।

7 Comments

  • शहंशाह आलम
    June 1, 2024

    मेरी कविताओं के लिए आभार कृत्या

  • राजेंद्र नागदेव
    June 1, 2024

    शहंशाहजी, बहुत अच्छी कविताएं हैं। इन कविताओं में भाषा, भाव, कथ्य, अभिव्यंजना सभी में नयापन है। बधाई!

  • नीलम शर्मा 'अंशु '
    June 1, 2024

    बेहतरीन प्रस्तुति। शहंशाह आलम निरंतर सृजनरत हैं और वे आज के एक उल्लेखनीय रचनाकार हैं। सार्थक अभिव्यक्ति कविताओं में। कलम की यह रवानगी बनी रहे। बधाई और शुभकामनाएं!

    • शहंशाह आलम
      September 27, 2024

      जी शुक्रिया।

  • तोड़ता हूँ इस कालखंड की चुप्पी को पूरी तरह बोलकर, सभी कविताएँ इस तेवर के साथ। शानदार शहंशाह।

  • Shahnawaz
    June 3, 2024

    यह कविता समय और चुप्पी के बीच के रिश्ते का गहन और संवेदनशील चित्रण प्रस्तुत करती है। कविता के विभिन्न अंशों में चुप्पी के विभिन्न पहलुओं को उकेरा गया है, जो कवि के आंतरिक और बाह्य जगत की अवस्थाओं को प्रकट करती है।

    ### समीक्षा:

    1. **चुप्पी का व्यापक चित्रण**:
    – कविता की शुरुआत में ही चुप्पी की सर्वव्यापकता को दिखाया गया है। कवि ने कुएं के भीतर झांकने पर चुप्पी को पाया, जो शांत, भयहीन और तरोताज़ा है। इससे यह संकेत मिलता है कि चुप्पी अपने आप में एक सजीव और सजीवता से भरी अवस्था हो सकती है।

    2. **चुप्पी की विभिन्न अवस्थाएं**:
    – शब्द, वाक्य, व्याकरण, ध्वनि, अलंकार जैसी भाषाई इकाइयों से लेकर धूप, चट्टान, घुन, दीमक, तिलचट्टे जैसे प्राकृतिक तत्वों तक, चुप्पी हर जगह व्याप्त है। यह चुप्पी बेचैन करने वाली और गहरी है, जो कवि को अपना हिस्सा बनाने के लिए ललकार रही है।

    3. **सामाजिक और प्राकृतिक परिवेश में चुप्पी**:
    – पुल के नीचे शहनाई बजाने वाले लड़के, नदी के कच्छप, मछलियाँ, रेगिस्तान के ऊंट, चींटी-छिपकली, स्टेशन के एकांत में रेल के डिब्बे आदि में भी चुप्पी का अनुभव किया गया है। यह चुप्पी एक खेल-कूद करती हुई और आदमियों का मुंह चिढ़ाती हुई प्रतीत होती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि चुप्पी न केवल स्थिरता, बल्कि क्रियाशीलता भी धारण कर सकती है।

    4. **चुप्पी का अंत और उसका तोड़ना**:
    – कविता के अंत में, कवि चुप्पी से परेशान होकर अपनी पसंद का नाम पुकारता है और अंधे कुएं के ठहरे हुए पानी में जादू भरी भाषा का उच्चारण करता है। यह क्रिया चुप्पी को तोड़ने का प्रतीक है, जिससे स्पष्ट होता है कि कवि अंततः संवाद और अभिव्यक्ति के माध्यम से चुप्पी पर विजय प्राप्त करता है।

    ### निष्कर्ष:
    यह कविता चुप्पी की गहराई और उसके विभिन्न रूपों का सूक्ष्म अध्ययन प्रस्तुत करती है। कवि ने चुप्पी को एक जीवंत और क्रियाशील तत्व के रूप में दर्शाया है, जो कहीं न कहीं संवाद और अभिव्यक्ति की आवश्यकता को भी उजागर करता है। चुप्पी का यह चित्रण हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि कभी-कभी न बोलना भी बहुत कुछ कह जाता है। इस कविता की भाषा, बिंब और प्रतीकात्मकता इसे और भी प्रभावशाली और चिंतनशील बनाती है।

  • सीमा सिन्हा
    June 4, 2024

    बहुत अच्छी जानकारी दी है आपने

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