कविता के बारे में
बच्चा लाल “उन्मेष”
“जिनके होने से भी कोई फायदा नहीं, उसे बुत ही जानो, इससे ज्यादा नहीं”
कमल मेहता द्वारा प्रस्तुत
स्थापित कवियों/लेखकों में जगह बना पाने के लिए जिस तरह की शब्दावली और शिल्प की आवश्यकता होती है, उसकी चिंता किए बिना केवल लोक में बस जाने वाली कविता कहकर सफल हो जाना और स्थापित मानकों से परे जाकर अपनी जगह बना जाना बच्चा लाल उन्मेष की ताकत है। सार्थक और मुक्तछंद में कविता लिखने की जद्दोजहद अपनी जगह और मायनों में कहीं भी कमतर नही हैं मगर उन्मेष उससे आगे बढ़कर ऐसी रचनाओं का सृजन कर रहे हैं जो विशुद्ध लोकगीतों का असर रखती हैं साथ ही अपनी धार भी बनाये रखती हैं। उन्मेष अपनी पहली ही किताब “कौन जात हो भाई” से चर्चा में चर्चा में आ चुके थे, इसके बाद उन्होंने “बहारो के पतझड़” और “छिछले प्रश्न गहरे उत्तर” नाम से दो पुस्तके और लिखी जो भी काफी चर्चा में रही। उन्मेष बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से पढ़े हैं और अभी अध्यापन के संलग्न हैं। उन्हें प्रसिद्धि जाति के प्रश्न पर अलग दृष्टि से लिखने से मिली, लेकिन ऐसा नही है कि वे केवल एक ही मुद्दे पर लिख रहे हैं। समकालीन सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों के साथ धार्मिक पाखंडों पर खुलकर लिख पाने की हिम्मत उन्हें युवा कवियों की जमात में अलग पहचान दिलाती है।
इस लेख का आरंभ तो जाहिर तौर पर “कौन जात हो भाई” कविता से ही होना चाहिए, यह संवाद रूप में लिखी हुई कविता है, जो दलित-वंचित समुदायों की समाज और व्यवस्था में उनकी वास्तविक “हैसियत” का आईना दिखाती है:-
– क्या खाते हो भाई ?
“जो एक दलित खाता है साब
नही मतलब क्या-क्या खाते हो ?
‘आपसे मार खाता हूं
कर्ज का भार खाता हूं
और तंगी में नून तो कभी आचार
खाता हूं साब।”
नही मुझे लगा कि मुर्गा खाते हो
“खाता हूं न ! पर आपके चुनाव में।”
यह कवितांश सामाजिक स्थिति के साथ- साथ संविधान निर्माताओं और देश की आज़ादी के लिए जान लुटा देने वाले उन लोगो के सपनो पर पानी फेर देने वाली जमीनी हकीकत को भी दिखाता है जहां कुछ समुदायो को केवल वोट देने वाले एक जीवन से बढ़कर कुछ नही समझा जाता।
सामाजिक पदानुक्रम की विभेदकारी रणनीतियों को जायज ठहराए जाने के खिलाफ बच्चा लाल निरंतर लिख रहे हैं। वे शहराती और थोपे गए तथाकथित क्रांतिकारी कवियों की तरह सहानूभूति जुटाने वाली शब्दावली नही लिख रहें हैं बल्कि यथार्थ में घटित होने वाले घटनाक्रम लिख रहे हैं, यह बात और है कि ये घटनाक्रम कहीं दर्ज नही हो रहें हैं। वे कहते है :-
चहुंओर उनके पांव थे, हमारे हिस्से अभाव थे
बस वही मुखिया बने, कहने को हमारे गांव थे।
काठ थे उनकी नज़र में, चीरे गए, फाड़े गए
हम सर्द रातो में , सिर्फ और सिर्फ उनके अलाव थे।
हमारे देश की सामाजिक व्यवस्था में दलित-वंचित वर्गों को हिंदू वर्ण व्यवस्था के साथ लंबा संघर्ष झेलना पड़ा हैं। तथाकथित समानांतर प्रगतिशील धारा ने यह विश्वास कायम करने की कोशिश की हैं कि दलित समाज को हिन्दू व्यवस्था में समान हैसियत दी जाए लेकिन उन्मेष इन दावों के खोखलेपन को समझते हुए अपनी कई रचनाओं में ऐसा ज़िक्र करते हैं।
– मैं हिन्दू वाली फाइल्स में, परिशिष्ट से नथा हूँ
मैं जाति वाला चैप्टर हूँ, उपेक्षित घृणित कथा हूँ।
चमार,खटीक,भंगी,लुहार,अहीर,गड़रिया,बिंद,सुनार
न पूछो इस फ़ाइल में , कितने कोमा दे-दे बंटा हूँ।
हम अपनी साधारण बुद्धि से भी मानव मात्र के लिए शिक्षा की महत्ता को समझ सकते है और वंचित पिछड़े तबको के लिए तो यह और अधिक है। यह न सिर्फ उनके वित्तीय स्थिरता वाले रोज़गार के लिए जरूरी जी वरन उनके अधिकारों की प्राप्ति का औज़ार भी है। शिक्षा को वंचित तबकों ने अनिवार्य रूप से अपनाया भी हैं, इस उम्मीद में कि यह रोज़गार के साथ उन्हें सम्मान भी दिलायेगी मगर शिक्षा इस मामले में भी सामाजिक वर्गीकरण को भेद नही पा रही म उनकी पहचान शिक्षा से ज्यादा उनके सामाजिक पदानुक्रम से ही है ये जाति है कि जाती नही। हाल ही में हंस में प्रकाशित अपनी एक गज़ल में वे लिखते है:-
– हम डिग्रियों से कराते रहे खुद का लाख परिचय
उनका परिचय तो जाति की अकड़ से होता है।
देखा जाए तो उन्मेष के लेखन की ज़मीन खुरदरी है, जो अपने को क्लासिक के दायरे से बाहर ही सहज महसूस करे। उन्हें किसी उपाधि में बांधने की बजाय सीधे तौर पर “जनकवि” ही कहा जाना चाहिए जो समय की जरूरत है। उनकी एक कविता की बानगी देखिए:-
– खेत खा गए मेड़ खा गए, बच्चे, जवान, अधेड़ खा गए
कागज़ पर देश बनाकर, चुपके – चुपके रेत खा गए।
धार्मिक पाखंडो पर लिखते समय वे केवल अतीत के झरोखों में ही नही झांकते, समकालीन खबरों को भी वे अपने तरीके से व्यंग्य में बांधकर सबके सामने रखते है। जब कहीं अखबार में किसी मूर्ति को सर्दी लगने, कोरोना में डॉक्टर को दिखाने जैसी खबरे नज़र में आती हैं तो ऐसे लोगो पर तंज कसने के साथ साथ उनसे सीधे मुखातिब होकर समझाने का प्रयास ज्यादा करते हैं जो इस पाखंडवादी व्यवस्था के पीड़ित हैं:-
– धर्म एक बाज़ार है, गृहस्थ जीवन पर भार है
सन्यासी के आश्रम में, नौ-नौ विलासी कार है।
चमत्कार के नाम पर होता, रोज़ ही बलात्कार है
वो आया मुक्ति मार्ग बताने, जो खुद ही तड़ीपार हैं।
अपनी कविताओं में वे शोषकों से सीधे सवाल करते दिखते है, ईश्वर के नाम पर इंसानों द्वारा बनाई गई शोषण व्यवस्थाओं पर उन्हें जताते हुए कहते है:-
– सबका पेट भरे गर ईश्वर
जो मरे भूख से,कातिल कौन?
हक मारा है जिसने इतना
तुम नही तो आखिर कौन।
उन्मेष धर्म पर बात करते समय केवल जमीनी स्तर पर ही चोट नही करते, बल्कि सत्ता और धर्म ले तालमेल को टटोलते हुए शीर्ष स्तरीय घटनाक्रमों पर अपनी नज़र गड़ाते हैं। हम जानते हैं कि आज़ाद भारत की कल्पना इसी रूप में की गई थी कि यहां सभी धर्मों को समान आदर दिया जाकर, सत्ता अपने को धर्म से दूर रखेगी मगर आज का दौर तो धर्म की राजनीति करने का आ गया है। लाशें बिछती रहीं, उन्हें सीढियां बनाकर लोग संसद में पहुंचते रहे, झूठे आंसू बहाते रहे। उन्मेष धर्मों की इस झूठी लड़ाई को यूं लिखते है :-
– गिद्ध अब गाय नही खाते
गिद्ध अब सूअर नही लाते।
छोड़ आते है टुकड़े बस
मंदिर मस्ज़िद के अहाते।
फिर बैठ कर धर्म ध्वजा पर
गिद्ध युद्ध का बिगुल बजाते।
वे राजनैतिक सत्ताओ की खुराफातें बखूबी समझते है और उन पर तीखा प्रहार करते है, इस कड़ी में उनकी उपमाओं का प्रयोग उनकी रचनाओं को और उभार से साथ सामने लाता है। उनकी एक कविता का शीर्षक है ‘पंचवर्षीय अकाल’ , यह अपने आप मे ध्यान खींचने लायक शीर्षक है। वे इस कविता में नेताओ को साम-दाम-दंड-भेद की नीतियों को यूं दिखाते है :-
– चुनाव का दौर तो
महज़ संधिकाल होता है
जहां बर्बर शेर भी
मेमने के साथ होता हैं।
आज के दौर में यह पंक्तियां कितनी सटीक और प्रासंगिक हैं इसे समझाने के लिए मुझे विशेष प्रयास की आवश्यकता नही हैं।
वे अपनी कविताओं में समाज और राजनीति के बहाने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर के गिरते स्तर पर भी जोरदार तरीके से कटाक्ष करते है। कभी- कभी उनकी रचनाओं का कोई हिस्सा पढ़कर पाठक यह भ्रम पाल सकते हैz कि उन्होंने उनकी रचना का सारतत्व पकड़ लिया है मगर उन्मेष अगले ही हिस्से में किसी और सामाजिक कुप्रथा पर प्रहार करते दिख जाएंगे। मीडिया की गिरती साख पर इससे तीखा व्यंग्य और क्या होगा:-
– शाम तक रद्दी और कबाड़ हो चले
तुम भी आखिर, अखबार हो चले।
बच्चा लाल उन्मेष अपने रचनाकर्म के माध्यम से एक और जरूरी काम बेहतर तरीके से कर रहे हैं, वो है अपने पुरखों, आदर्शो को अपने रचनाकर्म के माध्यम से जनता के सामने लाना। वे बुद्ध, कबीर, रैदास, पेरियार, गाडगे, ज्योतिबा-सावित्री फुले, फातिमा शेख, अम्बेडकर, रमाबाई जैसे महापुरुषों पर वे लगातार लिख रहे हैं। उनके जीवनक्रम को आकर्षक तरीके से नई पीढ़ी के सामने रख रहे हैं। सत्ताएं इतिहास के पन्नो में कई बार ऐसे लोगो को सही जगह नही देती, जिससे उनका जीवनवृत्त पीढ़ियों के सामने आदर्श रूप में नही आ पाता। उन्मेष इस दिशा में अच्छा प्रयास किया कर रहे है। संत गाडगे जो महात्मा गांधी से भी ज्यादा स्वच्छता का महत्व बताते रहे, उन पर उन्मेष की एक रचना की बानगी देखिए:-
– अखिल भारतीय कार्य भी
जाति के मोटे चर्म से ढंक दिया जाता है
फिर किसी गांधी के मोटे चश्मे पर
बड़े महीन अक्षरों में
स्वच्छ भारत लिख दिया जाता है।
वे जानते है हमारी सामाजिक व्यवस्था अपना हीरो सामाजिक पदानुक्रम के ऊपरी पायदानों से ही चुनेगी। इस बहाने वे दलित वंचित समुदायो की नई पीढ़ियों तक इन महापुरुषों के योगदान को पहुंचा रहे हैं साथ ही उनकी सिखलाई मानते हुए उन्हें सही प्राथमिकताओं को चुनने की सलाह भी दे रहे हैं :-
– जिनके होने से भी कोई फायदा नहीं
उसे बुत ही जानो, इससे ज्यादा नहीं
जो इंसान का दर्जा भी दे न सका
हम उस खुदा को आखिर क्यूँ ढूंढते हैं?
वे मजदूर-किसान-मेहनतकश तबके के लिए निरंतर लिखते हैं। वे उनके दर्द को साझा करते हैं, उस दर्द से गुज़रते हुए वे लिखते हैं:-
– “बापू! ये बैनर वाला किसान
इतना खुश कैसे रहता है ?
बेटा! यह बैनरो में ही खुश रहता है
हमारी तरह खेतो में नही।
यहां वे सरकारों के किसानों की खुशहाली के भौंडे प्रदर्शनों को भी व्यंग्यात्मक लहज़े से दिखाते हैं साथ मे किसान कौम के अटूट ज़ज़्बे को भी। मज़दूरों के लिए अपनी कविताओं में वे मज़दूर होने की मजबूरी को भी दिखाते है जहां वे दिखाते है मजदूर-किसान के रूप में जीवन कितना दूभर है लेकिन वे मजदूर होने की सार्थकता को भी दिखाते है। एक कवितांश देखिए:-
– मैं मज़दूर हूँ।
कभी मौका मिला तो
बनाकर मज़दूर भेजूंगा
कहूंगा खुद ही बना लो
अपने मंदिर और मस्जिद
शायद समझ पाओ
दुनिया बनाना आसान है
दुनिया बसाने से कहीं…
अब तक लिखे हुए से यह तो समझ आ ही जाता है कि उन्मेष हिंदी ग़ज़ल में निरंतर प्रयोग कर रहे हैं, वे काफी कुछ तो गेय रूप में लिख रहे हैं जो सुनने में आकर्षक लगने के साथ अपना उद्देश्य पूरा करने भी सक्षम है। उनकी कविताओं में सामंती तत्वों पर कटाक्ष आसानी से देखे जा सकते हैं, वे सामन्तवाद को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं, जो हमारे समाजो में विभिन्न स्तरों पर समा चुका हैं, जिसके रेशे आपस मे ऐसे गूँथ चुके है कि हम उससे जाने अनजाने में सहज हो अपना चुके है। इसे वे समकालीन परिप्रेक्ष्य के साथ जोड़कर देखते है जहां कई अप्रत्यक्ष उपक्रम है जो सामंती व्यवस्थाओं को स्थापित करने में लगे हैं। उनकी गज़लों में प्रयोग के साथ पढ़िए :-
– किसके घर में पैदा होगा, पलेगा कहाँ
अब का भगत विकलांग है, चलेगा कहां?
चलन नये झूठो का है, अब का सच हैं
सच पुराना नोट है, अब चलेगा कहाँ ?
ऐसे कई प्रयोग उन्मेष की लेखनी की ख़ासियत है, ज़ाहिर है यही उनकी लोकप्रियता की वजह भी है। लोकप्रिय होने के साथ इतना प्रासंगिक हो जाना बहुत आसान नही रहा है इसमें कोई दोराय नही है। उन्मेष कड़े शब्दों में समाज के खोखलेपन को लिखते हैं। वे सहानूभूति लायक शब्दो के इस्तेमाल से बचते ही नज़र आते हैं। एकदम कड़े होकर जैसे चुनौती देते दिखाई पड़ते हैं:-
– लाओ तुम्हारे गंगाजल को छूकर
अपवित्र कदूंर
तुमने ही तो बख्शी है शक्तियां
मजबूत और टिकाऊ
गंगा से भी कहीं ज्यादा कड़क
छू लो तो गंगा भी गंगा नहाए
और तुम्हारे दैविक मंत्र भी
उसके काम न आए
जैसे काम नही आए अब तक हमारे..
समग्र रूप में यह कहा जा सकता है कि वे सामाजिक-राजनीतिक विकृतियों के खिलाफ योद्धा की भूमिका लिए लिख रहे हैं। समकालीन कवियों में जब प्रतिरोध को शब्द देने वालो का ज़िक्र किया जाएगा तो बच्चा लाल “उन्मेष” का नाम अग्रिम पंक्ति में लिया जाना उचित होगा। वे अपने तेवर बनाये रखेंगें और हिंदी के संसार को समृद्ध करते रहेंगें ऐसी हमारी आशा है।
महिपाल सिंह राजपुरोहित
अतिसुंदर
मुसाफिर बैठा
बहुत सही टिप्पणी।