कविता के बारे में

कृत्या टीम के सदस्य संतोष जी अनुवाद तो करते ही हैं, कविता की पड़ताल भी अच्छी करते हैं। अनुवाद के दौरान उन्हें कवि को समझने का मौका मिलाम यहीं से कविता की पड़ताल आरंभ हुई। उनके अध्ययन से पायक कुछ नया जानेंगे, आशा है।

 

दमिश्क के आसमान का टुकड़ा- राएद वाहेश(Raed Wahesh) 

 

संतोष कुमार ‘सिद्धार्थ

 

अभी पिछले दिनों मुझे राएद वाहेश (Raed Wahesh) की कविताएं अनुवाद करने का सुंदर मौका मिला। अनुवाद करते समय कवि के बारे में और भी जानने की इच्छा हुई, हूक उठी इनके जीवन और लिखित रचनाओं से सम्बंधित मन की जिज्ञासा शांत की जाए…कुछ और जानकारी मिले। थोड़ा इन्टरनेट से तो कुछ और महत्वपूर्ण बातें मुख्य संपादिका रति सक्सेना जी से हासिल हुईं।

 

विश्व के प्राचीनतम देशों में से एक सीरिया के दमिश्क शहर में राएद वाहेश का जन्म 1981 में हुआ, वह एक फिलिस्तीनी-सीरियाई लेखक, कवि और पत्रकार हैं। वाहेश अपने लेखन में सीरियाई क्रांति का समर्थन करते रहे हैं। वाहेश 2013 में जर्मनी चले गए और अब हैम्बर्ग में रहते हैं।

किसी भी लेखक/कवि के रचनाओं की आधारशिला उसका मन होती है, मन विचारों की नींव भी है और विचारों को संश्लेषित और परिष्कृत करने की प्रयोगशाला भी। विचार क्या होते हैं…जिये हुए अनुभव, बचपन/युवावस्था में परिवार/समाज से मिले संस्कार और झेली हुई स्थितियों से सिंचित अनुभव । इन्ही अनुभवों से सीखकर संघर्ष करने की क्षमता…जिजीविषा, चुने हुए पक्ष/विपक्ष का विद्रोह या समर्थन की भावना कि हमने कैसे जिया, कैसे जीने की कोशिश की और भविष्य को संवारने में अपने हिस्से की भरसक कोशिश भी हमारे विचार रूपी वृक्ष में जड़ से पत्तियों के स्तर तक विद्यमान हो सकती है, और यही विचार हमारे कार्य और लेखन में भी प्रतिबिंबित होते हैं! शायद मनोविज्ञान भी मेरे इन विचारों का समर्थन करता हो। वाहेश के लेखन में युद्ध की विभीषिका और लम्बे आपातकाल की पीड़ा के साथ-साथ निर्वासन का असहनीय दुःख भी है।

 

दक्षिण-पश्चिम एशिया के देश सीरिया का इतिहास बहुत से परिवर्तनों और राजनैतिक उथल-पुथल का साक्षी रहा है, वर्तमान सीरिया वर्षों के ओटोमन शासन के बाद 1923 से 1946 तक फ्रांस के अधीन रहा, अप्रैल 1946 में फ्रांस से आजादी मिलने के बाद यहां के शासन में बाथ पार्टी का प्रभुत्व रहा है। 1963 से 2011 तक आपातकाल लागू रहा है। जुलाई 2011 के बाद से यह देश अन्य देशों की वजह से गृह-युद्ध की स्थिति भी झेलता रहा है। इस देश में कई वर्षों तक एक ही परिवार की राज-सत्ता, तानाशाही भी रही है, कई बार पड़ोसी देशों के साथ और उनके विरुद्ध युद्ध में सहभागिता भी। इस तरह की स्थिति में सरकार जन सामान्य के प्रति उदासीन होती है। दुनिया के अल्प विकसित, अस्थिर और कमजोर देशों में रैंक चिंतनीय है, यह पत्रकारों के लिए सबसे खतरनाक देशों में से एक है। प्रेस की आजादी यहां काफी सीमित है, इस विषय पर दुनिया के सबसे बुरे देशों में इसका स्थान द्वितीय है। इस देश में भ्रष्टाचार चरम पर है। नशीली दवाओं का कारोबार फैला हुआ है । इस देश के गृह युद्ध में 6 लाख से ज्यादा लोग मारे गए, यहां शरणार्थी संकट भी गंभीर स्थिति में है, लाखों लोगों को पलायन करना पड़ा, आप इस देश की सही जनसंख्या का अंदाजा लगा ही नहीं सकते। युद्ध ने इस देश की आर्थिक स्थिति को चौपट कर रखा है, आज के समय 90% आबादी गरीबी में है और 80% आबादी को सही से खाना-पीना मयस्सर नहीं।

 

रायद वाहेश की मातृभूमि सीरिया के बारे में इतना इसलिए बताना आवश्यक था कि आप लेखक के मन की स्थिति का कुछ अंदाजा लगा सकें, यही वो वजहें हैं कि वाहेश ने सीरिया की क्रांति का समर्थन किया होगा। वाहेश की कविताओं में युद्ध की विभीषिका और जन-साधारण पर युद्ध और तानाशाही के असर स्पष्ट रुप से देखे जा सकते हैं।

 

वाहेश ने विभिन्न अरबी भाषा के समाचार पत्रों और वेबसाइटों के लिए सांस्कृतिक संपादक के रूप में काम किया है। उन्होंने कविता के चार खंड प्रकाशित किए हैं। उनकी 2015 की गद्य यात्रा “ए मिसिंग पीस ऑफ दमस्कस’ स्काइ” (A Missing Piece of Damascus’ Sky) क्रांति के दौरान उनके अनुभवों पर आधारित है। उनके सबसे हालिया लेख निर्वासन, निष्कासन और बेदखली के मुद्दों से बखूबी निपटते हैं।
प्रकाशित कविता खंड :

 

1. व्हाइट ब्लड, दमिश्क 2005
2. नोबडी ड्रीम्स लाइक एनीबडी एल्स, दमिश्क 2008
3. व्हेन द वार हेज नॉट बिगन, अम्मान 2012
4. वाकिंग वी मीट, वाकिंग वी पार्ट, मिलान 2016
5. बुक ऑफ पासिंग, मिलान 2021

 

आज भी दुनिया में युद्ध जारी हैं, चाहे आप युक्रेन और रूस की बातें करें या फिर इजराइल – फिलिस्तीन के आस-पास के देश। युद्ध सिर्फ दो देशों का नहीं होता, इसमें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुप से लाखों-करोड़ों लोगों की जिंदगी और उनके बच्चों के भविष्य जुड़े होते हैं। युद्ध के इस मुश्किल दौर में यह जरूरी है कि हम उनकी आवाज बनें …उनकी आवाज को रेखांकित करें, जो इस आपदा से गुजरे हों। लेखक राएद वाहेश (Raed Wahesh) इसके जीते-जागते उदाहरण भी हैं और हस्ताक्षर भी। राएद वाहेश (Raed Wahesh) ने दो बार निर्वासन का दुःख झेला है, एक बार फिलीस्तीन से, दूसरी बार सीरिया से।

 

उनके शब्दों में क्रांति भी है और क्षोभ भी, कुछ रचनाओं की पंक्तियां तो ऐसी हैं कि वो सीधे युद्ध के विध्वंस स्थल से रूबरू कराती हैं ; निम्नलिखित पंक्तियों में घोर अनिश्चितता का भाव दर्शाया गया है एक निर्वासित व्यक्ति के द्वारा जो युद्ध के बाद वापस अपनी मातृभूमि की परिस्थितियों का अवलोकन करता है, ऐसी मनोदशा जिसमें आप हकीकत को देखकर भी अस्वीकार करने की भरसक कोशिश करते हैं, जो सच प्रस्तुत है…साक्षी बन खड़ा है उसे झुठलाने का असमंजस, ऐसी हृदय-विदारक स्थिति।

 

 

निर्वासित की गलियां (गली न० 1)

 

मैं जानता हूं सुबह का 10 बजा है
जानता हूं जून की 8वीं तारीख है
लेकिन मैं निश्चित नहीं हूं कि इन दोनों तथ्यों में कोई सही भी है

 

मैं आश्वस्त नहीं
अगर ये बगीचा है!
और मैं नहीं जानता कि फूलों में बारूद की गंध क्यों है!
और वो खिड़कियां हैं क्या
या कि मृतकों की आंखे ?
क्या यह बरसात है या किसी की यातना रिस रहीं बूंदों सी ?
और वह जो तेजी से आसमां को जाती हुई चीज है
काली वज्रपात सी
कोई पक्षी है या किसी की चीत्कार?

 

मैं जानता हूं यह 10 है
यह आज की हो या पिछले कल की सुबह
या साल भर पुरानी कोई सुबह
पर वास्तव में यह सुबह है ही नहीं
कि जब सूरज ही अपहृत हो
और बाकी बची रौशनी
अक्षम हो.. असहाय हो
चुकाने में फिरौती उन बादलों को

 

मैंने जान लिया है यह 10 है
कई घंटों से या दिनों से
लेकिन पता नहीं मैं कहां हूं
कि न तो कल बीतता है
और न ही वर्तमान नज़र आता है
अस्तित्व में यह सिर्फ सुबह का 10 है

 

जो बदल देता है अन्य सभी को महज अटकलों में।

इन पंक्तियों में एक तरफ उम्मीद के भाव हैं तो दूसरे ही पल उन उम्मीदों के नाउम्मीदी में बदल जाने के अहसास, युद्ध अर्थात पल-पल बदलता मौसम जिसमें न आप सामान्य जीवन की कल्पना कर सकते हैं न ही सुनहरे भविष्य की सुखद कल्पना, योजनायें बस स्वप्न के भाव हैं। कवि लिखते हैं

 

कुछ अंश कविता – गली न० 2 (जाहेर अब्दुल बाकी के लिए) से

 

जब हम सभी आश्वस्त थे
कि अब तो रौशनी रहेगी ही चांदनी की
तभी बादलों ने रंग भरा और गाया
भावपूर्ण गीत अर–रायेब का
और यह सब
रात की जली चिट्ठियों का पृष्ठ बन कर रह गया
मैंने…और मेरे दोस्त ने महसूस किया
कि उस अंतहीन पथ पर
जब हमने दफन किया था अर–रायेब को
उसने भी हमें दफन किया था उसी भावगीत में।

 

आगे की पंक्तियों में कवि ने युद्ध के कमांडरों और सैनिकों की क्रूर मानसिकता को दर्शाया है, यह क्रूरता इतनी रच-बस गयी कि इस मानसिकता का असर मृत्यु के बाद भी प्रेत योनि में होने पर भी यही भाव उनके दिमाग पर काबिज है I यह दिखलाता है कि जिस देश की जनता इतना लंबा युद्ध, गृह युद्ध का जीवन जीती है तो मनुष्यों का वास्तविक स्वभाव किस हद तक बदल जाता है और यह परिलक्षित होते है उनके अस्तित्वा में चाहे वे स्थूल रुप में हों या सूक्ष्म रुप में! यही फिर आगे की पीढियों में भी अग्रसारित हो सकते हैं, न जाने कितनी पीढियों तक, न जाने कितनी योनियों तक I

 

गली न० 3
(कमांडर का प्रेत) :

 

“काट डालो उनके वक्षस्थल
चाकूओं से गोद डालो और करो हजार घाव
उनके शरीर में

और भेजो इनकी तस्वीर
उनके बहादुर भाइयों को”
(सैनिक का प्रेत):

“मेरे मालिक,
पर इन मृतकों की तस्वीर हम उन्हें कैसे दिखायें
उन्हें जो पहले से ही मर कर दफन हैं”
(कमांडर का प्रेत)”
खोद दो ये तस्वीरें
उनकी कब्र के यादगारी पत्थरों में !”

 

आखिरी दो पंक्तियां सैनिकों के मन की क्रूरता और प्रतिशोध की भावना के उच्चतम स्तर को दर्शाती हैं।

 

गली न० 4

 

मेरी मां गयी थी
मेरे ही कैफे पर
वह वैसे ही बैठीं जैसे नियमित ग्राहक हों
चाय मंगवाई
बहुत धीरे – धीरे से चाय की चुस्कियां ली
पर उस दौरान उनकी आंखें ढूंढ रहीं थी
मेरे प्रेत को !

 

यह कविता युद्ध की विभीषिका के बाद जिंदगी के शून्य को दर्शाने में सक्षम है, इतने लोग मारे गए कि कोई भी परिवार पूर्ण नहीं बचा शायद! बहन है तो भाई नहीं, बच्चे हैं तो माता-पिता नहीं और मां हैं बच्चे नहीं। जो भी नहीं दिख रहा उसे ‘मृत’ मान लिया जा रहा….जैसे उसके मृत होने की प्रबल संभावना ही शेष बची हो।

 

गली न० 5

 

वह रोज-रोज खोता जाता है
अपनी सहनशीलता
जब वह देखता है गली का छोर
वह छोर जो अब नहीं जाता पर्वतों तक
एक मिनट बाद
उसे याद आता है कि वह तो छोड़ चुका वह शहर
जिसकी सारी गलियां पर्वतों तक जाती थीं

 

वह खो देता है अपना दिशा-सूचक यंत्र
और सीख लेता है
कि जिसने भी खो दिया है पर्वत
वह स्वयं को भी खो चुका है
वह मान लेता है उस “श्राप” को
कि अपने पर्वतों (उच्च आदर्श) को खोने वाले
जिन्दा रहते तो हैं मगर पर्वतों पर नहीं
बल्कि पर्वतों की मृगतृष्णा में।

 

यह कविता दर्शाती है कि हम युद्ध में क्या-क्या खो देते हैं, युद्ध सिर्फ जान-माल की तबाही का द्योतक भर नहीं। लेखक कहते हैं कि मानव सभ्यता के विकास-स्तंभों की सबसे अनमोल चीज “संस्कृति, मानवता और नैतिक मूल्य” की अनमोल और अति महत्वपूर्ण थाती भी हम खो बैठते है जिन्हें बनाने-संवारने में न जाने कितनी पीढियों का योगदान रहा हो। युद्ध हमें सभ्यता के विकास के ग्राफ पर ऋणात्मक संयोजन के साथ धीरे-धीरे आदिम युग की तरफ धकेलता रहता है। हमारे सारे सिद्धांत और आदर्श की मजबूत नींव और स्तम्भ ढह जाते हैं और हम मजबूर होते है उस स्थिति में जीने को जहां एक बारीक लकीर भर बची होती है जो हमें जानवरों की जिंदगी से अलग करती है।

 

(संतोष कुमार ‘सिद्धार्थ’)

 

 

 

Raed Wahesh  (1981) फिलीस्तीनी लेखक पत्रकार हैं, जो नई पीढ़ी के अरबी लेखकों में महत्वपुर्ण स्थान रखते है। उन्होंने चार किताबें कविता की रचीं हे। वे निर्वासित कवि हैं इसलिए उनकी दृष्टि अलग है। सीरिया से २०१३ में वे जर्मनी में आ गए। आजकल वहां रह रहे हैं।

 

 

Raed Wahesh (born in Damascus in 1981) is a Palestinian-Syrian writer and journalist and one of the major Arabic poets of his generation. To date he has published four volumes of verse. Wahesh has developed over the years into a political writer who addresses social issues and makes a theme of war and destruction in his homeland. He has been supporting the Syrian revolution with his writing from the very beginning as a defender of freedom of opinion and of freedom of the word.

Wahesh has worked as a cultural editor for various Arabic-language newspapers and websites. His 2015 prose volume A Missing Piece of Damascus’ Sky is based on his experiences during the revolution. His most recent texts deal with issues of exile. expulsion and deracination. Raed Wahesh fled Syria in 2013 and came to Germany, where he was initially a guest in the Heinrich Böll House. He now lives in Hamburg.

 

Santosh Kumar Siddharth

साहित्य से लगाव और सेवा-भाव की वजह से संतोष कुमार सिद्धार्थ कवि, अनुवादक और प्रूफ रीडर के किरदार में हैं, वह Kritya की टीम के साथ फ़रवरी 2024 से जुड़े हैं I ‘सिद्धार्थ’ उनका पेन नाम हैI पेशे के तौर पर वह निजी कार्यालय में शिक्षक और काउंसिलर का काम करते हैंI छात्रों की समस्यायें सुलझाना, शिक्षण में दिलचस्पी बढ़ाना और जीवन के विभिन्न मुद्दों पर व्यावहारिक परामर्श और सलाह देना दिनचर्या का अभिन्न अंग है I वह मूलतः मुजफ्फरपुर, बिहार के निवासी हैं, पर चीनी मिलों में सेवा के दौरान उन्होंने 25 वर्ष का लंबा समय उत्तर प्रदेश में बिताया है I

किशोरावस्था से ही साहित्यिक पुस्तकें पढ़ना उन्हें प्रिय था, शुरुआत में बच्चों की पत्रिकाओं के लिए लिखा I युवावस्था में आजीविका की चिंता उन्हें सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग और कम्पूटर अनुप्रयोग की दुनिया में खीँच ले गयी I वह 1995 से 2020 तक बिहार और उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों में कंप्यूटर प्रोग्रामिंग और सूचना तकनीक प्रबंधन के कार्य से जुड़े रहे I 2011 से ब्लॉग, पत्रिका और अख़बार के लिए कवितायेँ और क्षणिकाएँ लिखना शुरु किया जो समय के साथ आगे बढ़ता गया I 2020 में कार्य क्षेत्र में रचनात्मकता के अभाव और उबन से उन्होंने स्वेच्छा से चीनी मिल की नौकरी छोड़ दी I अपने शहर मुजफ्फरपुर लौटकर शिक्षण एवं परामर्श का निजी व्यवसाय शुरु किया, साथ ही अब उन्होंने नियमित लेखन (कविता, जीवनी और अनुवाद) के लिए समय देना शुरु किया I

ब्लोगिंग के दौरान ही वर्ष 2011 में साझा संग्रह ‘शब्दों के अरण्य में’ छपी थी I अभी पिछ्ले वर्ष (2023) में निजी कविता संग्रह “कुछ कहना था …” प्रकाशित हुआ, वर्ष 2024 में दूसरा संग्रह “वो कौन …The Third Person” को Amazon Kindle पर प्रकाशित किया I इसी वर्ष साझा-संग्रह ‘अंतस के स्वर’ में भी उनकी कवितायेँ छपीं और प्रशंसनीय रहीं I अब वह जीवनी लेखन और कविता-अनुवाद में भी कदम बढ़ा रहे हैं I जीवन की चुनौतियां और मानव मन उन्हें हमेशा से प्रेरित करते रहे हैं I

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