मेरी बात

पिछले तीन महिने मेरे दैहिक पीड़ा से रूबरू होने वाले दिन थे। इन दिनों जब मैं ICU में अहसाय सी पड़ी थी, तब मैंने अनुभूत किया कि दीमाग को जैसे ही पता चलता है कि उसके पास अधिक काम नहीं है तो वह अपने पर्दे बन्द करना शुरु करता है। देह अपने आप अपने को सिकोड़ने लगती है। यह क्रिया संभवतया स्वाभाविक रूप से होती होगी। तीन महिने बाद जब नार्मल होने की कोशिश की तो वास्तव में काफी कुछ भुला चुका था।
यह क्रिया तो वैश्विक होती होगी। यानी कि सब विषय पर लागू होती होगी। पहले हम किताबें बहुत पढ़ते थे, मोबाइल के बाद हमने पढ़ना बहुत कम कर दिया। इस वक्त हमारे पास सूचनाओं का जखीरा है, लेकिन वे ज्ञान तो दूर की बात, जानकारियां तक नहीं हैं। कारण बस यही कि हम पढ़ना भूलते जा रहे हैं। मोबाइल से प्राप्त जानकारियां कभी सही होती हैं तो कभी गलत, लेकिन पूरी सही बहुत कम होती हैं। यानी कि हमने दीमाग का इस क्षेत्र में उपयोग करना बन्द सा कर दिया है, जिसका खामियाजा हमें भुगतना पड़ेगा।

पढ़ना‍ लिखना रचना एक आदत भी है, जिसे बनाये रखना पड़ता है। कृत्या यही सोच कर पूरे बीस साल से कविताओं की प्रस्तुति कर रही है. आशा है कुछ लोग तो पढ़ते होंगे।
इस अंक में कवि अग्रज के रूप में भाई वीर सिंह को प्रस्तुत कर रहे हैं, जिन्होंने स्वतन्त्रता से पहले सुधारवादी आन्दोलन में भाग लिया था। इस प्रस्तुति को कृत्या दूसरी बार कर रही है, अनुवादक हैं डा शशि सहगल।

प्रिय कवि के रूप में रूसी कवि बेल्ला अख्मादूलिना (Bella Akhmadulina)जिनका अनुवाद वरयाम सिंह जी ने किया है। कविता के बारे सेक्शन में फिलीस्तीन के निर्वासित कवि राएद वाहेश (Raed Wahesh) पत्रकार की कविता पर संतोष कुमार सिद्धार्थ कवि, अनुवादक और प्रूफ रीडर ने विचार प्रकट किए हैं।
समकालीन कविता के खंड में प्रदुम्न कुमार यादव, रणजीत सरपाल, विजय राही और देवेन्द्र कुमार पाठक की कविताएं प्रस्तुत हैं।

 

आशा है यह अंक पठनीय लगेगा, कृपया अपनी प्रतिक्रिया से अवगत करवाएं।

रति सक्सेना

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