
प्रिय कवि
जोशना बैनर्जी आडवानी
१.
एक सहायिका का मरना ….
एक सहायिका का मरना एक प्रेमी के मरने से एकदम भिन्न था
माता पिता के मरने से भी भिन्न
पालतू बिल्ली और तोते के मरने से तो बिल्कुल ही भिन्न
वह सहायिका जो जानती थी मेरा सबसे पसंदीदा रंग, सबसे ज़रूरी दवाई, तलवों की क्रीम और मेरा सबसे पसंदीदा लज़ीज़ नाश्ता, वह मर चुकी है
वह सहायिका जो जानती थी मेरी सबसे मनपसंद शराब का नाम, जो करती थी इतवार को नारियल के तेल से सिर की मालिश,
जानती थी मेरे चश्मे का नंबर, माहवारी की तारीखें, मन खराब होने पर सुनती थी मैं कौन सा राग, वह सहायिका अब मर चुकी है
वह उतना नहीं मरी जितना मर जाया करते हैं प्रेमी और मरने के बाद प्रेम संदेशों, उपहारों और देह पर जमे रहते हैं
माता पिता के मरने जितना भी नहीं मरी जो अनाथ करके चले जाते हैं
वह इतना भयंकर रूप से मरी है कि उसके हाथ के छापे मेरे पर्दों, किताबों, कपड़ों और रसोई के हर डिब्बों पर पड़े हुए हैं
उसकी खाल अभी तक मेरे तकिये पर लिहाफ की तरह चढ़ी है, उसके लंबे केश का अयूर शैंपू किसी मॉल में दिखने पर डर लगता है
वह ऐसे भी नहीं मरी जैसे मरते हैं पालतू बिल्ली और तोते, जिनके जाने के बाद उनके बर्तनों को छिपाकर रखना पड़ता है
वह तो सबकुछ खुला छोड़कर मरी है, खुली रसोई, खुला छत, खुली खिड़कियाँ, खुला द्वार, सबकुछ खुला छोड़ गयी है ताकि उसकी जगह लेने कोई भी दूसरी सहायिका आ सके
उसे मरने का तरीका नहीं आता था
मरते समय अपना मुँह भी खुला रख छोड़ा
पति से छिपाकर जो कुछ रूपये मेरे पास जमा करवाती थी, वह रुपये भी मुझे टिप में देकर मर गयी
मैं उन रुपयों का क्या करूँगी, यह सोच नहीं पा रही
सहायिका नहीं, वह मेरी ‘मैं’ ही थी, मेरे सारे राज़ छिपाते हुए, गिलास में शराब लुढ़काते हुए कहती, दीदी वो पिक्चर लगाओ साहिब बीवी और गुलाम
रोने पर दुनिया पर लानत फेंकती हुई कहती थी
नास जाये, आग लगे उसे जिसने मेरी दीदी को रूलाया
घड़ी के पेण्डुलम की आवाज़ के साथ उसकी गूँजती आवाज़ अब और तेज़ सुनाई देती है
वो जैसे फिल्मों में दिखाते हैं, वैसे ही उसका भूत मेरे घर में घूमता है
दालचीनी पाउडर का डिब्बा न मिलने पर उसका भूत आकर डिब्बा थमा देता है
और वो कहती है अब भूत भूत कहकर भागना नहीं
चिढ़कर बहुत समय कहती थी कल से नहीं आऊँगी, काम खत्म नहीं होता इस घर में
अगली सुबह ठीक समय पर दरवाज़े पर खड़ी मिलती थी
एक सहायिका के मरने से कुछ भी नहीं मरता
जीवन पहले जैसा धीरे धीरे हो ही उठता है
एक सहायिका के मरने से जीवित हो उठती हैं पीड़ाएँ सभी
एक सहायिका के मरने से
शत्रु और चतुर हो जाता है, पीठ दर्द में नहीं करता कोई सरसों के तेल में लहसुन और अजवाइन डालकर मालिश, वस्त्र मैले हो जाते हैं और एकांत में नितांत अकेलापन घुसपैठ करता हुआ कहता है, “आज फँस गयी न अकेली!”
२.
बीड़ी के बारे में कुछ कहो ….
बीड़ी पीना नहीं था सिगरेट पीने जितना दामी
बीड़ी ऊँगलियों में अटती थी बहुत करीबी दोस्त की तरह
कि अट जाना जैसे उसका परम धर्म हो
हृदयविभा जैसी बीड़ी का धुआँ नक्षत्रों तक पहुँचकर जैसे सितारे ठीक करने का तंत्र हो
पिता की बीड़ी का बंडल छिपाने पर मिल जाते थे दो रूपये
कितने भी उठ जायें डॉलर, उन दो रूपयों से उच्चतर नहीं हो सकेंगे
बीड़ी से नहीं मरे थे पिता, बीड़ी न पीने के लिए मिले तानो से मरे थे
पीड़ा में, घबराहट में, माता पिता की याद में किसने सबने अधिक साथ दिया?
नाखूनों ने,
उन्हें चबाया।
ट्रैफिक जाम में कितनी बार फँसी
उतने बड़े शहर में नहीं रहते हम, पापा के स्कूटर टेढ़ा कर कर के फिर से चलाने के कारण स्कूल में देर से पहुँचते थे हम
और किस तरह ख़ुश्क आवाज़ में मिलाई अपनी आवाज़?
पत्र लिखकर
नाविक की जेब में रखे रूपये कैसे लगते हैं?
जैसे दोस्त के लिए प्रार्थनागीत
थोड़ा सीला, थोड़ा गीला
जलपाखी को देखने पर दिखती हैं कितनी मछलियाँ?
एक गाँव बराबर
मन कहाँ पर आकर ठहरा
निर्जन रात में नदी तट पर जहाँ तस्वीर उतारने वाला कोई न था
पानदान दिख जाने पर क्या होता है?
घर के मुंशी, न्यायाधीश, वैद्य, स्त्रियाँ
सबके साथ में बैठकर हृदय खोल हँसना
मुंडन से मय्यत तक क्या देखा
पुष्प और धूप।
किसने सबसे अधिक पुकारा?
चपरासी ने,
“मैडम जी पाँच बज चुके हैं, उठना नहीं क्या?”
हाथ, पैर, कान, नाक सब ठीक तो काम कर रहे?
हाँ परंतु
भूलने की बीमारी लग गयी है
सबसे प्रिय पंक्ति
ज्या मिशेल बस्कवा की पंक्ति –
“मैं एक प्यारा बच्चा था।”
३.
स्नानघर ….
चेरापूंजी में नहीं, स्नानघर में पाये जाते हैं सबसे अधिक मेघ, नलों से नहीं आँख से झरते हैं
ध्वनिरहित नहीं होता स्नानघर परंतु मुँह बंद करके चीखा वहीं सबसे अधिक जाता है
गर्म पानी भर देता है स्नानघर को धुएँ से
भाप आकार लेता है प्रेमी का
दीवाल पर लगे शीशे पर लिख दिया जाता है अपने सबसे पसंदीदा देश का नाम
स्नानघर में रखी लोहे की बाल्टी में जो समुद्र है, वह इतना गहरा हो गया है कि मंथन करने पर निकाले जा सकते हैं बचपन के सभी मित्र, समाधि की अवस्था में बैठी कुछ मनोकांक्षाएँ, कवि बद्रीनारायण का प्रेत भी यहीं है जो निकाल ले गया था कभी किताब से प्रेमपत्र
बहुत बड़ा गर्भ है स्नानघर परंतु यहाँ नौ मास नहीं, नौ क्षण में एक जन्म है अगले नौ क्षण में एक मृत्यु, प्रिय के कहे कटुवचन के सभी अक्षर अलग अलग होकर स्नानघर के छत से नीचे लटक रहे है जैसे एक साहित्यिक समारोह में देखा था एक बड़े से पेड़ से लटक रहे थे अ, आ, इ, ई
एक मल्लाह खड़ा है मेरी ओर पीठ करके स्नानघर के कोने में, यह जताते हुए कि कमसकम स्नानघर में आत्महत्या तो नहीं करने देगा, धूप नहीं है यहाँ परंतु आँख के सामने वो टीवी की मॉडल की तरह साबुन रखने पर दिखता है एक सुनहरा जंगल है, साबुन मलने पर जंगल का ताप छूता है देह को
एक बरगेलिनी आकर बैठती है सिर पर, कहती है केश अधिक समय तक गीले रहे तो मृत्युरोग होगा
एक तरूणी बैठी है खुले हुए बौछार के नीचे, ऊपर शावर से बहता पानी आँखों के जल के लिए रास्ता बनाते हैं, मल्लाह के तलवों को छूते हैं आँसू, मल्लाह गाता है ओ रे माँझी काँच की गुड़िया ….
कितना अवमूल्यित करना होता है स्वयं को स्नानघर में,
स्मृति में आती है पिता की कही बात कि जिस प्रकार चंद्रमा चांडाल के घर से अपनी चाँदनी को नहीं हटाता, उसी प्रकार दुष्ट प्राणियों पर सदैव दया करना
और फिर क्षमा कर देता है मन प्रत्येक को जिस जिस ने भी प्रहार किया मन पर
और क्षमा माँग लेता है उस प्रत्येक कीट, पक्षी, श्वान, पुष्प और पात से जिसे जाने अनजाने कष्ट पहुँचाया हो
स्नानघर में ही बंद मुठ्ठी खुलती है, खुल जाते हैं केश, सबसे मनपसंद पोशाक के लिए सबसे महत्वहीन जगह पर मन गाता है वह गीत जो संकोच में सबके समक्ष नहीं गा पाता
स्नानघर में ही सबसे अधिक प्रण लिए, सबसे अधिक बहे अश्रु, सबसे अधिक गर्व किया देह पर, सबसे अधिक स्मृतियाँ यहीं खुली
तैंतीस करोड़ देवी देवताओं को मंदिर में नहीं स्नानघर में ही कही मन की बात
ऊपर से बहता रहा पानी, मन करता रहा टप्प, टप्प टप्प।
४.
अर्थान्तरन्यास में प्रयाग शुक्ल ….
अड़तालीस ब्रशिस और असंख्य सफेद कागज़ों के मध्य संधिवार्ता कराने के बाद
किटकिटाहट भरी हवा के स्पर्श से
कागज़ की त्वचा के नीचे की एक और त्वचा सूख रही है
रंगों की स्वीकृति में लपेटकर एक चुप्पी को ब्याह दिया तुमने कागज़ों से
कन्यादान में दे आये अपनी कुछेक कविताएँ
अर्थान्तरन्यास में प्रयाग शुक्ल, ये कैसे किया तुमने
तुमने अपने कितने रतजगों से काजल पहनाया है अपनी कविताओं की नायिकाओं को
कागज़ बन उठता है एक प्रसिद्ध संगीतज्ञ
और उस कागज़ को देखने वाली प्रत्येक आँख में उभर आता है एक प्रेमी
अर्थान्तरन्यास में प्रयाग शुक्ल, अंततः ये कैसे किया तुमने
एक लापरवाह कँधे की उचक है तुम्हारी ऊँगलियाँ
परंतु फिर भी तुम पर सिर टिकाने आ जाते हैं देश कई
एक शराबी दोस्त के टैंट्रम्स की मानिंद दुःख आता है और पूछता है कहाँ है मेरा स्थान तुम्हारे संसार में
तुम दुःखों पर छिड़क देते हो तीन रंग
दुःखों का हो जाता है नामकरण
ठीक वैसे ही जैसे
लिखे होते हैं जैसे दुर्घटनाओं पर अंगों के नाम, ठोकर पर दीन का नाम, क्रोधी के मस्तक पर उसी के रिश्तेदारों का नाम,
पुरस्कारों पर गुटों के नाम और अँधकार पर लिखा है उसपर आघात करने वाले उजाले का नाम
तुम संसार के समस्त नामों का कर देते हो अनुवाद
हाथ आ लगती है एक किताब
अर्थान्तरन्यास में प्रयाग शुक्ल, अब कहो, कैसे संभव हुआ यह
तुम्हारी मीठी जिह्वा से पियानिस्ट पियानो बजाना सीखते हैं
तुम्हारी हँसी से घूम उठती हैं बच्चों की पवनचक्कियाँ
सरसों तुमसे पूछ रही है कि छिपकर फरवरी में फूल किसने दिया था तुम्हें
वसंत पीछे से धीमे से पूछ रहा है कैसे कथावाचकों को गूंथा तुमने मौसमों से
तुम्हारी कविताएँ एक टेलिफोन रिसिवर में फँसी हुआ प्रेमिका है
अर्थान्तरन्यास में प्रयाग शुक्ल, जिस अँधकार की नहीं कर सके तुम निर्मम हत्या, वह अँधकार तुम्हारे लिए एक तारापथ बना रहा है
तुम्हारी काठचम्पा अब बूढ़ी हो गयी है, एक बार जाकर उसपर एक टैटू ही बना आओ
तुम्हारी कविताओं के गुमशुदा बच्चों के लिए एक रेफ्यूजी कैम्प बनाया था तुम्हारी जीवनसंगिनी ने
उसके दीवाल भी अब रंग माँगते हैं
जिस ओवरकोट की जेब में डाले थे तुमने हाथ, उस ओवरकोट की जेब में पड़े चालीस वर्ष अब युवा हो गये हैं
और वो कविता जिसमें जाने किसके लिए लिख आये थे तुम कि, ‘लगता है हमारा मिलना तय है’
ऐसी एक कोई तयशुदा जैसी चीज़ मुझे मिलती ही नहीं अब
वो जो शमशेर के लिए लिखी थी एक बार कविता तुमने, उसी की धूप छनकर तुम्हारे लिए एक धूपघर बना रही है
शीत में सारे कवि आयेंगे तुमतक तुम्हारा जयघोष करते हुए प्रयाग शुक्ल
अर्थान्तरन्यास में प्रयाग शुक्ल, आओ न मिलकर एक कप चाय पीते हैं, अपने अपने सरदर्द कप में छोड़कर आगे बढ़ते हैं।
५.
गमछा ….
अभद्र होने पर गमछा पटकते हुए उठते थे पिता
हाथपंखा न मिलने पर गमछा ही बना पंखा हमारा
जाते थे हम शहर, तो साथ चलता था गमछा
मेरी स्मृतियों के गमछों में पूरा परिवार बसा है मेरा
रोज़ बरता जाता, धुलता, सूखता गमछा एक भद्र और अनुशासन प्रिय बच्चे की तरह साथ देता रहा
बेलूर के घर घर में टंगे थे गमछे
जितने लोग उतने गमछे
शीत में स्नान के बाद गमछे ने ही देह का पानी सुखाया
सूत पर लाल, सफेद चौकोर
और दोनों कोनों पर लटके धागे,
यह मात्र इतना ही नहीं था
यह उतना था जितना कि एक प्रणयनिवेदन,
एक खेत, एक धान, एक मौलश्री,
पूरी बाड़ी, जंगला, चौखट सब था गमछा
कितना विस्तृत था एक गमछा
इतना ही कि गमछे से पसीना पोंछते पोंछते पिता माँ को बता देते अपनी दिनचर्या
कितना सिकुड़ा था गमछा
उतना कि गमछे का देर तक मोलभाव करते दो प्रेमी एक दूसरे को देर तक देखते रहे।
नवविवाहिता के सामान में गमछा एक शगुन की तरह बना रहा
ग्राम में दाई ने सर्वप्रथम प्रसव के बाद गमछे में ही शिशु को लपेटा
पोखर की ओर जाती रही स्त्रियाँ कांधे पर गमछा टांगे
तपती दोपहरी में गमछा बिछा कर ही कुली को सोते देखा
दुग्गा पूजा में माँ को साड़ी के साथ चढ़ते रहे गमछे
पितृपक्ष में बाटें गये अनेकों गमछे
गमछे में चावल बाँध कर दिया गया भिक्षुकों को
गमछा सिर पर बाँधे बोया धान
रसोई में रखा रहा बारह मास एक गमछा
तबले के पास माँ रख देती थी एक गमछा
गुरूजी उसीसे कभी तबला पोंछते, कभी अपना पसीना
गीले केश पर गमछा बांधे माँ को देखकर होती थी सुबह
कठचंदन हाथ में और कंधे पर गमछा लिए पिता को देखकर होती थी संध्या
कंधे पर लटके गमछे कभी कभी गमछे नहीं लगते थे, वे लगते थे हमारी अनुकांक्षाएँ
प्रत्येक अनुकांक्षा में लिपटा एक गमछा
प्रत्येक गमछे में लिपटी एक अनुकांक्षा
बूंद बूंद पसीने को सोखता गमछा
सांस सांस प्रतीक्षा को घाटता गमछा
तुम भी गमछा
मैं भी गमछा
बाल्यकाल भर माता पिता के कांधे पर एक गमछे की तरह लटके रहे हम
अब हमारे कांधों पर लटका है गमछे की तरह बच्चा हमारा
दिख ही जाता है हर जगह गमछा
किसी की स्मृतियों में घर का गमछा
किसी के खटने में संघर्ष का गमछा
बेलूर के जच्चा बच्चा केंद्र के बाहर खड़े सभी पिताओं का साथी गमछा
विद्यालय से लौटते बच्चों का तोड़े हुए अमरूदों की पोटली वाला गमछा
शमशान से लौटते पुत्रों के अश्रुओं को सुखाता गमछा
गाड़ीवान की गाड़ी के साथ उड़ता गमछा
बीतते हुए को देखने पर शामियाना बना गमछा
प्रार्थना करना सीखा तदोपरांत
प्रथम गमछा इस्तेमाल करना ही सीखा
रूमाल, चादर, चटाई में सर्वोपरि रहा गमछा
मातृभाषा जितना ही आवश्यक था गमछा।
मेरे घर आओगे तो उपहार में मिलेगा एक लाल सफेद गमछा।
६.
भीजना ….
पिता भीजते रहे जीवनपर्यन्त अपने से कई गुना बड़े आकार के बादल के नीचे, चिड़िया भीजती रही आकाश से कई गुना छोटे अपने घोंसले में मुँह छिपाये, लड़की के दाग-धब्बे नहीं भीज सके, भीज रही हैं उसकी हथेलियाँ, सोये हुए बच्चे की आँख में भीज रहा है आस का ईश्वर,
पूर्णत्व के कंधे पर एक ठीक-ठाक संतुलन भीज रहा है
भीज रही हैं स्त्रियों की अशुद्धियाँ, शुद्ध पुरुष बैठे हैं हाथ में सूखे वेद लिए
भीज रहा है पचास पार आदमी का पानी, पचास पार औरतों की देह पर सूखा पड़ा है
मानसून में चेरापूँजी ही नहीं भीज रहा केवल , भीज रहा है एक एक तंतु, मृत्यु से पहले ही मृत्यु स्नान भीज रहा है।
– जोशना बैनर्जी आडवानी
वर्तमान में सेंट ज़ेवियर्स, आगरा में प्रधानाचार्या पद पर कार्यरत।शिक्षा – एम.ए (अंग्रेज़ी), बी.एड, पीएचडी (अंग्रेज़ी)दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं – सुधानपूर्णा (बोधि प्रकाशन) और अंबुधि में पसरा है आकाश (वाणी प्रकाशन,कथकगुरू शंभू महाराज जी की जीवनी प्रकाशित ‘अद्यावधि’। एक डायरी ‘वंचनावध’ प्रकाशित।
सीबीएसई किताबों का संपादन।
दीपक अरोड़ा स्मृति सम्मान- २०१९, सीहोर साहित्य सम्मान – २०२१ तथा रज़ा फेलोशिप – २०२१ से सम्मानित (कथकगुरू शंभू महाराज जी पर विस्तृत कार्य।)
२०२४ में अखिल भारतीय डॉ. सावित्री मदन डागा साहित्य सम्मान।
अंग्रेज़ी, मराठी, पंजाबी, मैथिली, तेलगु, बांग्ला, गुजराती और नेपाली भाषाओं में कविताओं का अनुवाद।
कथक में प्रभाकर।
संपर्क – jyotsnaadwani33@gmail.com