समकालीन कविता

निहाल सिंह 

 

कृत्या का नवम्बर मास का अंक प्रकाशित है। प्रस्तुत अंक के समकालीन कविता खंड में प्रस्तुत है तीन कवियों की कविताएं

स्वप्न

तुम आती हो रोज
रात को स्वप्न में मेरे
किंतु मैं तुमको छू नही
पाता हूं
तुम छुप जाती हो
मुलायम तकिये की
ओट में

कभी तुम्हे छूने की
कोशिश में हौले से
हाथ बढ़ाता हूं तो
तुम झट से उड़
जाती हो

उड़कर के बैठ
जाती हो पंखें की
चपटी हुई पंखुड़ी
के ऊपर
जहां मेरा हाथ पहुंच
नही पाता है तुम तक

फिर खिड़की से
निकल कर होले से
बैठ जाती हो
कलियों की पंखुड़ियों
के ऊपर

जीवन

जीवन हो परिंदों का
ज्यों नील गगन में
बेखौफ उड़ने वाला

ऊंची -ऊंची शाखों
पर बैठकर
कोयल सा
मधुर -मधुर राग
गुनगुनाने वाला

श्रावण रूत में
मोरनी की तरह
पंखुड़ियों को फैलाकर
वन में देर रात्रि तक
नाचने वाला

पर्वतों की ऊंची -ऊंची
चोटीं पर
बर्फ़ के टुकड़ों सा
बिखरने वाला

बांगो में
फूलों के झुंड पर
भंवरों की तरह
बैठने वाला

किनारे

नदी के दो किनारे
कभी मिल नही
सकते है
किंतु वो देखते
रहते हैं एक-दूसरे
को घण्टों
बिना पलकें मूंदें हुए

बीच बहते हुए
नीर के कानों में
होले से
संदेशा पहुंचाते है
वो एक-दूसरे
के समीप

कभी खगों के
पंखों पर आहिस्ता से
बैठाकर पल्कों से
टपकती हुई
बूंदों को भेजते है
एक-दूसरे की
पलकों पर

फासला

तेरे -मेरे बीच फासला
धरा और गगन के
जितना
तुम क्षितिज की चोटी
के ऊपर बैठी एक
मनोहर अप्सरा हो

और मैं एक
थका हुआ
बेरोजगार युवा
जिसके पास डिग्रियां
तो बैठी है फाइलो
के भीतर किंतु
नौकरी दूर की कौड़ी
बनकर बैठीं है
मेरी असफल तक़दीर
के ऊपरी हिस्से पर

मेरी ख़्वाहिशें भी
चिलचिलाती धूप में
पिंघलकर बिखर
जाती है
बंजर भूमि के
सीने के ऊपर
तुम तक
पहुंचते-पहुंचते

जुबां से निकले हुए
शब्द बह जाते है
बारिश की बूंदों
के संग
नदी की धारा में

-निहाल सिंह
झुंझुनूं, राजस्थान

नाम -निहाल सिंह , गांव – दुधवा , जनपद- झुंझुनूं , ,राज्य – राजस्थान , शिक्षा- बारहंवी तक – कृषि ,गतिविधियां – कई पत्र-पत्रिकाओं एवं वेबसाइटों में रचनाएं प्रकाशित हो चुकी है

 
 
 

ज्योति प्रकाश

 

किसे खेद है?

 

एकांत किसे प्रिय है?
कागज़ पर कुंठित-सी बैठी निद्रा को?
या, दो फूँक में उड़ जाने वाली पहचान को?

अपने माथे पर कई रेखाएँ उगाए,
तारों के झुरमुट में टिमटिमाती अधमरी अड़चनें,
या, घुटनों में सरकारी बोझ लिए,
तर्क-वितर्क करता-सा मकान,
या ज़ोर बाग़ में ज़ोर से चिल्लाते रिक्शे वाले?

किसे खेद है,
कि दफ्तरों की लाल जिल्दों वाली फाइलों ने
निगल ली प्लास्टिक की गुलाबी गेंद?

लड़कपन लटक रहा, बरगद के पेड़ से,
सरकती रस्सी, भीगी-सी साँसें
गलियों में घुल कर जैसे, गुलकंद हो गए।

फूलों की महक किसे मोहित करे?
एकाकी की उंगलियों में दम तोड़ती सांझ को?
या फर्श पर सरकती लयमय साँसें,
जिसे उठाईगिरे ठोकर मारकर,
कराते हैं छिछली नदियाँ पार?

एकांत में ही बाधित क्यों रह जाती है
दूर निलंबित रोशनी,
जैसे भूतल में जड़ित अभिमान!

 

जो पाश हो गई

 

अधरों पर दृढ़ता का संकल्प लिए,
छोटी-छोटी बातों की रोटी बनाकर
आँखों के पानी में डुबोकर खा जाती है
प्रेम में पड़ी स्त्री।
सूखे पत्तों पर उगल देती है अपने भीतर की आग,
जंगल बोल उठता है,
सारे पेड़ पीले पड़ जाते हैं,
झरनों की मछलियाँ किस्मत के काले पानी से युद्ध छेड़ देती हैं।
और प्रेम में पड़ी स्त्री
अपनी साड़ी के कोने में बाँध लेती है
समस्त संसार, देखती जाती है घुप्प अँधेरा
जैसे बोतलों में फँसी सैकड़ों जान।
उन्हें पलटकर वो आज़ाद कर देना चाहती है
प्रेम में पड़ी स्त्री।
चाँद-तारों से छंद नहीं चुराती,
दुनिया भर की आँखों से बचकर कहीं लुप्त हो जाना चाहती है
वो प्रेम में पड़ी स्त्री।
अपने व्यक्तित्व को एक सुराही में रखकर
आसमान की ओर उछाल देना चाहती है।
मुस्कुराती है, दिन की छिछली रोशनी में,
सूर्य को ढक देती है
प्रेम में पड़ी स्त्री।
रात की संगिनी बन जाती है
और जागती है, एक बैरागी की तरह,
जिसे कुछ नहीं दिखता सिवाय अपने प्रेम के।
फिर सच ही तो है,
प्रेम में पड़ी स्त्री
अपने प्रेमी के नाम से लिप्त, दुनिया से विलुप्त हो जाती है।
प्रेम में पड़ी स्त्री वही है, जो पाश हो गई।

 

तेज़ाबी ख़्वाब

 

बाहों को टांग दूं,
इक नुकीली कील पर।
अपने मस्तिष्क को सिंकने दूं,
सड़क पर स्थित किसी तंदूर में।
विध्वंश कर दूं किरकिरी पहचान को,
मद, मदिरा, सिगरेट का धुआं,
इतना नहीं छलनी कर सकता,
जितना नाखूनों की मार।
मेरी ज़मीन पर है संघर्ष के निशान,
एक युद्ध, जीत एक भी नहीं,
बस गड्ढे हैं, मांस के जालों से उलझे हुए,
लग रहा है ख़ून के छींटें डाल के
अपनी आँखें जला लूं।
आह! ये तेजाबी ख़्वाब अब भी क्यों जगाते हैं मुझे?

 

प्रतिशोध

 

प्रेम में प्रतिशोध सबसे दुर्बल होता है,
काठ की उंगलियां जब किसी तपते बदन पर फिरती हैं,
तो कई दाग़ धुलते हैं,
हिसाब-किताब इतना मद्धिम चलता है,
कि नाभि में बसी पृथ्वी छुअन से ताराबोर हो जाती है।
छीटें मारकर भी जगाना चाहे तो,
घर की ओर नहीं लौटती।
दूर पैदल, किसी दुराही के गर्दन,
पर चढ़ बैठती हैं।
रात के तबे पर आक्रोश सिकता है।
कटे होठ मजबूरी में हंसते हैं,
अन्न-जल की चिंता के बिना दो प्रेमियों की भूख किसी बिस्तर से सरक,
आकाश में एक छेद करती है।
बिना रस्सी, सांसे चढ़ती हैं।
इतनी फ़ुरसत के साथ, की ज्वलित होकर भी
आत्मदाह नहीं कर पाते।
लिपट कर रोते हैं प्यास के प्रसंग में,
पर इतने क्षुब्ध कि, एक दूसरे को ताक नहीं सकते।
प्रेम में संसार बहुत छोटा पड़ जाता है,
और आपका ‘आप’ स्वयं की सीमाएं लांघते जाता है।
विलीन होना, फ़िर भी मिल जाना, चौंककर प्रेम के कुएँ में हर बार गिरने जैसा ही तो है।

 

बूंदों का घर

 

पांवों को छूती लहरों ने मुझे धीरे से उनकी ओर देखने का इशारा किया। और आखिरकार, मैं पहुंच ही गई सागर तक। उस सागर तक, जहां मैं अब तक बस एक बूंद को तरसती रही थी, और आज वही पूरा समुद्र अपनी खुली बाहों में मुझे अपने अस्तित्व का यक़ीन दिला रहा था।

 

मुझे सभी सुर तो नहीं आते, लेकिन उस पल मन के भीतर अनेकों तरह के संगीत बज उठे थे। यह अनुभूति मुझे पहले भी हुई है ,जब प्रेम ने मुझे अपने होने पर भरोसा दिलाया था, और मेरे कच्चे विश्वास की पतली डोर मुझे बेहद दूर तक खींच ले गई थी।

 

आंखें बंद कर मैंने एक ऐसी दुनिया देखी थी जो समुद्र से भी ज्यादा सफ़ेद थी। लहरें, चंचल बच्चों की तरह, आंख-मिचौली खेलती जा रही थीं, और मैं अपने ही मन के भीतर बसे समुद्र की सूरत याद कर रही थी।

 

कुछ कंकड़, रेत और खर-पतवार पार करते-करते मैं एक और शाम तक पहुंची। वहां मैंने एक नाव देखी ,जिसमें पहिए लगे थे। वक्त तेजी से भाग रहा था, पानी की भी अपनी चीखें थीं, जिन्हें सुनने वाला कोई नहीं था। हर मुलाकात पहली सी लगती थी, और हर रुखसत किसी छोटे-से अंत जैसी।आते-जाते कई हवाई जहाज़ आकाश से पुकारते …“पानी नहीं रोता, क्यों नहीं उड़ जाती?” लेकिन मैंने उन्हें अनसुना कर दिया। पानी का शोर मेरे भीतर की शांति को पहले ही बुलावा दे चुका था, और मैंने लहरों में खुद को डुबोना ज़रूरी समझा।

 

रात में, आकाश से एक बूंद उधार लेकर, मैं उड़ने लगी। कभी किसी रंगमंच तक पहुंच जाती, तो कभी भूख को चीरते हुए एक बाज़ार में उतर आती। पदयात्रियों के चेहरे पढ़ती, और फिर आत्मनिर्माताओं की तरह उनकी जीवनियां समझने की कोशिश करती। कभी किसी मिठाई में कड़वाहट घोलकर खा लेती, तो कभी तेज़ विमान में बैठकर घर लौट आती।

 

घर? इस समुद्री दुनिया में लोग घर कैसे बनाते होंगे, यह सवाल मैंने कई बार खुद से किया है। ज़मीन पर बसे इस आसमान में, मैंने लोगों को जीते देखा …कुछ जीत गए, कुछ हार गए, लेकिन कोई खोया नहीं।

 

मैं अब भी ज़मीन के ऊपर वाले आसमान से बातें करती हूं, वहां उधार ली हुई सांस की सवारी करती हूं। लेकिन मन चाहता है कि समुद्र मुझे भी अपने घर में एक कोना दे दे। मुझे भी लहरों की तरह भिगो दे, खोए हुए शिल्पियों और शिल्पकारों की दुनिया में मुझे पानी सा तराशा जाए।

इस किनारे बैठे मैं अपने ख्यालों को छींटे मारकर जगा रही हूं। यहां की नावों में पहिए नहीं, यहां का पानी चीखता नहीं। मैं बस थोड़ी देर अपने इन चंद लम्हों के घर को निहार लेना चाहती हूं … इससे पहले कि कोई मुझे आसमान से आकर जगा दे।

 

परिचय – ज्योति प्रकाश कविताओं की दुनियां में एक छोटा सा कोना ढूंढ रहीं हैं। लिखने पढ़ने के अलावा इन्हें दिल्ली में उड़ रहे कबूतरों को निहारने का भी शौक है।

 

देवांश दीक्षित

 

पतंगा

 

बहुत पहले हम पतंगे,
तनिक से, सीधे पतंगे,
चाँद के शीशे के पीछे,
दूर उन तारों के पीछे,
बंडियाते से थे मालिक।
बहुत पहले हम पतंगे।

 

जब से इस इंसान ने ये,
रोशनी के नाम पर ये,
मौत का धंधा है खोला,
आग में जलते हैं मालिक,
सिर पटकते रोशनी पर,
फड़फड़ाते, गिर हैं जाते।
हम तो हैं पागल पतंगे।

 

बंडियाना बंद है अब ।
रोज़ मरना तय सा है अब।
या तो आँखें ले लो मेरी
या तो इनसे रोशनी तुम,
या इन्हें समझा दो मालिक,
तुम ज़रा सा डाँट कर ये,
रोशनी है फिर भी क्यों तू
घुप अंधेरे में बसा है?
रोशनी से क्यों अंधेरा
तू बढ़ाता है बता तो?
मारता है क्यों तू साले?
बंडियाने दे तू इनको,
ये बहुत नाज़ुक पतंगे।

 

तुम तो पर गूँगे हो मालिक।
मुझको तुम अंधे भी लगते।
क्या मगर बेहरे भी हो तुम?
या बहुत ऊँचा हो सुनते ?
चीखता तो हूँ मैं मालिक,
चीख कर रोता भी हूँ मैं,
रो सके जितना पतंगा।
तनिक सा, नाजुक पतंगा।

 

डकैतन

 

एक डकैतन घुस आयी मेरे घर।
खैर मैंने ही दरवाज़ा खोल रखा था।
मेरा बिल्कुल खाली घर देखकर
डकैतन ज़ोर से हँसी,
और फिर चुप हो गई।
मुझको, मेरे घर के 
हताश, मेरी तरह।बीचों-बीच,
डकैतन ने कुर्सी से बाँध दिया।
और ढूँढने लगी चुराने को थोड़ा कुछ।
उसे मिली बहुत सारी नीरसता, और आलस।
बहुत ढूँढने पर, किसी बिल में छिपे बेकार चुटकुले।
डकैतन हार कर जब जाने लगी,
मैंने, शर्म से लथपथ, उसे पुकारा,
“डकैतन जी, मेरे पास कुछ किताबें हैं।”
जो मैं आज तक नहीं पढ़ पाया।
डकैतन वो किताबें पढ़ चुकी थी।
मैंने मेरी कुछ बची-खुची कलमें,
कम स्याही वाली,
ले जाने को बोला।
डकैतन के पास बेहतर कलमों का जत्था था।
फिर एक आखिरी कोशिश में मैंने
डकैतन को,
जिसको मैंने खुद दरवाज़ा खोलकर घर बुलाया था,
कविता लिखकर देनी चाही।
डकैतन मेरी घड़ी चुराकर ले गयी।

 

बहुत गहरी नींद

 

स्कूल में पढ़ाया गया था
धरती के ध्रुवों परलंच भर मैं खाता रहा परांठे,
छह महीने रहती है रात।
और मुझे खाता रहा ये सवाल,
“क्या वहाँ के लोग
लगातार छह महीने सोते रहते होंगे?”

मेरे मन के भीतरजो धरती के ध्रुव हैं,
वहाँ रहने वाले जो लोग हैं,
वे जाग जाते हैं तुरंत,
जैसे ही छह महीने बाद
उग जाता है सूरज।

मगर मेरे मन के बाहर
पुतलों से भरा ये देश
सो रहा है सालों से।
जाता जा रहा है
और गहरी नींद में।

 

इन लगभग मृत पुतलों को
सूरज की आग तो दूर,
वो धधकती आग तक नहीं जगा पाई
जो कर रही है राख
इनके खुद के घर-मुहल्ले।
नहीं जगा पाए
आत्मदाह करते किसान,
जिन्होंने दिया सलाई जलाई थी
इसी उम्मीद में
कि ये जागेंगे।
यहाँ तक, इन्हें नहीं जगा पाएगी
वह आग भी,
जो लगाई गई
इनके खुद के शरीर में
हत्या की मंशा से।

 

छुट्टियाँ

 

छुट्टियों में मम्मी ने
मुझसे कोई काम नहीं करवाया।
हालाँकि,
छुट्टियों के पहले
मुझसे रोज़ कहा जाता था,
“घर पर बहुत काम पड़ा है,
जल्दी आ।”
छुट्टियों के आखिरी दिन,
बस के आने से
ठीक छह घंटे पहले,
मुझे डाँट-डाँट कर बताया गया
कि मैंने घर का
कोई काम नहीं करा,
और मुझे और रुकना पड़ेगा।

 

चिड़िया

 

मेरे घर की छत पर
एक चिड़िया रहने लगी है,
जिसे शायद उड़ना नहीं आता है।
शुरू के दिनों में
चिड़िया फुदकती रहती थी पूरी छत पर ।
बहुत चहकती थी।
मानो सबूत दे रही हो
अपने होने का।मगर ना छत को फर्क पड़ता
ना होने ना होने के फ़ालतू सवाल को ।

 

अब कुछ दिनों से
चिड़िया एक कोने में चुप-चाप पड़ी रहती है।
और मुझे ना जाने क्यों
उसकी पथरीली चोंच में,
जो हिल नहीं सकती,
एक हल्की मुस्कान दिखती है।
कभी-कभी मैं चुपके से झाँक कर
चिड़िया की तरफ देखता हूँ,
तो वह अपने टूटे, नालायक पंखों को
ज़ोर से फड़फड़ा रही होती है,
मानो उड़ रही हो आसमान के सबसे ऊँचे बिंदु पर ।
मगर ना उस बिंदु को फर्क पड़ता है,
ना उस हवा को जो सब उड़ा देती है।

 
 
मेरा नाम देवांश दीक्षित है। कलमकारों की धरती उन्नाव के कस्बे बांगरमऊ में जन्म हुआ और वर्तमान में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक कर रहा हूँ। हिंदी मातृभाषा होने के कारण हिंदी में बेहतर(कथित रूप से) कविता कर पाता हूँ। विनोद कुमार शुक्ल और केदारनाथ अग्रवाल से स्तंभित, नयी विधा में त्रुटीपूर्ण तरीके से लिखता हूँ।
 

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