प्रिय कवि

बेल्ला अख्मादूलिना ()

अनुवाद – वरयाम सिंह

 

बेल्ला अख्मादूलिना का वास्तविक नाम है इजाबेल्ला। आपका जन्म मास्को में इतालवी एवं तातर मूल के परिवार मे जन्म हुआ। आपकी आरम्भिक कृतियां तत्कालीन सोवियत जीवन के प्रति एक नये दृष्टिकोण को व्यक्त करने के लिए चर्चाओं के केन्द्र में रही थीं।
आपकी कविताओं में समकालीन काव्य- भाषा के साथ- साथ प्राचीन रूसी शब्दों का नये सन्दर्भों में मौलिक प्रयोग है। प्रस्तुत कविताएं साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‍- तनी हुई प्रत्यंचा (बीसवीं सदी की रूसी कविताएं)से साभार ली गई हैं, इनका अनुवाद रूसी भाषा के विशेषज्ञ वरयाम सिंह ने किया है।

 

गूंगापन

 

किसमें थी इतनी शक्ति और विवेक?
कौन छीन ले गया मेरे गले की आवाज?
रो नहीं पाते उसके लिए
मेरे गले के स्याह जख्म।

 

ओ मार्च ! सम्मानोचित है तुम्हारी प्रशंसा, तुम्हारा प्रेम,
सरल, सहज है तुम्हारी हर रचना
पर तोड़ चुकी है दम मेरे शब्दों की बुलबुल
अब शब्दकोश ही एकमात्र उद्यान है।
बर्फ, पहाड़ और झाड़ियां
चाहती है कि मैं गाती रहूं, उन्हें।
कोशश करती हूं कुछ बोलने की
पर होंठों को घेर लेता है गूंगापन।

 

गूंगे मन का हर क्षण
होता है अधिक प्रेरणाप्रद
उन्हें चाहते हैं सहेज कर रखना
जब तक सम्भव हों मेरे शब्द।

 

घोंट डालूंगी गला, मर जाऊंगी, कहूंगी झूठ
कि अब किसी के नहीं रहेंगे मुझ पर अहसान
पर बर्फ से झुके पेड़ों के सौन्दर्य का तो अभी तक
हो नहीं पाया है मुझसे बखान।

 

बस, कैसे भी राहत मिले
तनी हुई मेरी इन नसों को
सब कुछ रट डालूंगी मैं
जिसे गाने का आग्रह किया जायेगा मुझसे।

 

इसलिए कि गूंगी थी मैं
और पसन्द थे मुझे शब्दों के नाम
और अचानक थक गयी, मर गयी मैं
अब तुम स्वयं गाते रहोगे मुझे।

 

ज्वालामुखी

 

चुप बैठे हैं ज्वालामुखी,
राख गिर रही है उनके गह्वर में।
आराम फरमा रहे हैं दैत्य
कुकर्म कर लेने के बाद।

 

उल्लासहीन पड़ गई हैं उनकी सम्पतियां
और अधिक भारी लग रही हैं वे उनके कंधों को
बार- बार प्रेतात्माएं
प्रकट होती हैं उनकी रेतों में

 

सपनों में उन्हे दिखते है वह अभिशप्त नगर
ज्ञात नहीं जिसे अपनी ही नियति
दिखाई देते हैं स्तम्भ और उद्यान
लावे से घिर आते हुए।

 

वहां लड़कियां हा्थों में लेती हैं फूल
जो खिलकर कब के मुरझा चुके हैं
वहां संकेत देते हैं सुरा के प्रेमी
सुरापान कर रहे पुरुषों को।

 

आरम्भ हो जाता है सुरापान का दौर
अश्लील हो जाती है भाषा
गरमी आ जाती है वातावरण में और विवेकहीनता भी
ओ राजकुमारी, ओ दासकन्या, ओ मेरी बिटिया पम्पेई!

 

अपनी सुखद नियति की कैद में
किसके विषय में सोच रही थी तू
जब इतने साहस के साथ झुक आई थी तू
जब इतने साहस के साथ झुक आई थी तू
वीसूवियस पर अपनी कुहनियों के बल?

 

खो गई थी तू उसकी कहानियों में
फैला दी थी तूने अपनी पुतलियां
सहन न हो सकी तुझसे
असंयत प्रेम की गड़गड़ाहट।

 

दिन बीतते ही
अपने बुद्धिमान ललाट के बल
वह गिर पड़ा तेरे मृत पैरों पर
चिल्लाता हुआ: “क्षमा करना मुझे!”

 

जी रही थी मैं

 

जी रही थी मैं अमिट कलंक में
फिर भी मन मेरा निर्मल रहा
एक महासागर था और वह मैं थी
और कोई नहीं

 

ओ तुम डरे हुए
शायद ही स्वयं तैर पाते तुम
यह तो मैं कोमल सुकुमार लहर की तरह
तुमको निकाल ले आयी किनारे तक

 

दया कर बैठी हूं मैं अपने साथ
कैसे भूल गयीं मैं विपत्ति के उन क्षणों में
नीली मछली बन सकते थे
मेरे बैंजनी जल में तुम

 

मेरे साथ सिसकते
विलाप कर रहे हैं समुद्र
ओ मेरे अभागे शिशु
क्षमा करना मुझे तुम!

 

किसे मालूम

 

किसे मालूम-कब तक
एक क्षण या अनन्त तक
भटकते रहना है मुझे इस संसार में।
इस क्षण और उस अनन्त के लिए
धन्यवाद देती हूं मैं इस संसार को।

 

कुछ भी हो, अभिशाप नहीं
बल्कि दूंगी आशिर्वाद इस सहजता को
तुम्हारे दुखों की क्षणिकता
और अपने अन्त की
इस खामोशी को।

 

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