प्रिय कवि

अजंता देव

 

 कविता श्रृंखला ‘ताँत की साड़ी’ से कुछ कविताएं

 

I.

मैं नहीं हूँ सिन्थेटिक साड़ी
क़स्बे की दुकान के बाहर लटकता
अधरंग छह मीटर कपड़ा
मैं सूत हूँ करघे से उतरी
मेरे रेशे चुभते हैं थोड़े खुरदरे
मुझमें बुनावट है
जुलाहे की इच्छा उभरी होती है मुझमें
शरीर पर लपेटने भर से नहीं सम्भाला जाएगा मुझे
मुझे पहनने के क़ायदे अलग से सीखने पड़ते हैं।

 

II.

मेरे ताने बाने पर उँगलियों के निशान होते हैं
जुलाहा कोई दस्ताने नहीं पहने होता
कहने वाले कहते रहें मुझे कोरा
लेकिन मेरी स्मृति कोरी नहीं
मुझे तो कपास बीनने वाला भी याद है

 

कोरी तो सिन्थेटिक साड़ी होती है ।

 

III.

मेरे बाज़ार की भाषा अलग है
बेचने के लिए नहीं कहा जाता
‘ले लीजिए बहुत चल रही है आज कल’

 

मेरे लिए कहा जाएगा हमेशा
‘ऐसी दूसरी नहीं मिलेगी’

 

IV.

मुझे खींचना पड़ता है देह से
साफ़ तौर पर दर्ज करना होता है अभिप्राय
तुम्हारी सुविधा के लिए अपने आप नहीं सरकने वाली मैं
मुझे बुना गया है कामकाजी कारणों से
कमर पर ठीक से बँधने के लिए
धोखा मेरी फ़ितरत नहीं
बस में चढ़ते समय मैं पैर में फँस कर भी अडिग रहूँगी
मुझे सम्हालने को नहीं चाहिए अतिरिक्त ध्यान

याद रहे अँगोछा मेरा ही छोटा भाई है ।

 

V.

दुनिया में जो इतने युद्ध इतनी मारामारी है
इन्हें सुनते देखते दुख जाती होंगी तुम्हारी आँखें
तुम क्या करते हो बहते आँसुओं का ?
कैसे देखोगे अपना संसार फिर से समतल
जबकि आँखों में आता जा रहा होगा पानी लगातार

लो मैं याद दिलाती हूँ
मेरे कोने अब भी मौजूद हैं
स्त्रियों के कंधों के पीछे
दौड़ो और पोंछ लो आँसू
मेरे पल्लू ऐसे ही बुने जाते हैं
जाने कितनी पलकों के बाल अब भी अटके हैं
मेरे गीले किनारों पर

 

अन्य कविताएं–

 

अपराध का मज़दूर

 

कितना बोझ था उस पर
अफसोस से सर हिलाया गुंडे की मां ने
सिर्फ़ देखने में ही तगड़ा था जनाब
दांतों तक में थे कीड़े
मैं आलू का सबसे पतला झोल बनाती थी उनके लिए
गुंडे की शोकमग्न बीबी की आंखों में आंसू चमकने लगे
बच्चों ने कहा हकलाते हुए
पापा को नहीं आता था फेसबुक प्रोफाइल पिक बदलना
गब्बू ने ही लगाई थी उनकी वो मूंछों वाली जब्बर फोटो
मोहल्ले के नाई को पता था गुंडे के झड़ते बालों का
दवा की दुकान में अब भी बाक़ी है पिछली दवाओं की उधारी
कोरोना में गुज़रे पिता की तस्वीर पर माला बदलते हुए
चुपके से रोता था गुंडा जिसे देखा था उसकी छोटी बेटी ने कई बार
गुंडे का एक नाम भी था निरीह सा जो नगरनिगम के रिकार्ड के
अलावा कहीं नहीं दिखता
पुलिस वाले भी उसे जानते थे दुनाली के लोकप्रिय नाम से
वह अपराध का मज़दूर था जो निकला था काम पर और
आ गया चपेट में उस बड़ी मशीन के जो मालिक ने करोड़ों में लगवाई थी अपनी फैक्ट्री में

 

 मानवी

 

क्या पृथ्वी की चोटों के निशान
छुप सकते हैं
जैसे छुप जाते हैं स्त्री के चेहरे पर नीले बैंगनी रंग कंसीलर से
क्या छुपा कर हँस सकती है पृथ्वी
जैसे हँसती है स्त्री दो घंटे बाद पार्टी में
पृथ्वी नहीं सहती आघात
पृथ्वी नहीं करती ढोंग
पृथ्वी को नहीं है आदत त्याग की
पृथ्वी रोती नहीं रुलाती है
अब हमें बंद करना चाहिए स्त्री को पृथ्वी कहना
हमें देखना होगा स्त्री को
डरी हुई
स्वार्थी
और उलझी हुई
जैसे मनुष्य।

 

नष्ट

 

नष्ट करो मुझे पूरा
आधा नष्ट अपमान है निर्माण का
मेरा पुनर्निर्माण मत करना
मत करना मेरे कंगूरों पर चूना
आधे उड़े रंग वाले भित्तिचित्र ध्वस्त करना
ले जाने देना चरवाहे को मेरी अंतिम ईंट
मत बताना उसे वह किस शताब्दी की थी
मेरे झूलते दरवाजों पर रख देना दीमक से भरी लकड़ी
मकड़ियों के जालों से एहतियात बरतना
आखिर में मेरे साथ पूरे खिले फूलों सा बर्ताव करना
मुझे हरियाली के हवाले कर पलट कर मत देखना।

 

**

सारी सीढियां अधूरी हैं कि कभी कोई रुकता नहीं उन पर।
सीढियां सिर्फ़ चढ़ाती नहीं उतारती भी हैं,बाज़ दफे गिरा भी देती हैं।
सीढियों के साथ रेलिंग ना हो तो नज़रें झुका कर चलो।
सीढ़ी कुछ नहीं कर सकती,पांव चाहिए चढ़ने उतरने को।
सीढ़ी से क्या होगा अगर दरवाज़ा बन्द हो।
सीढ़ी मत तोड़ो हर दरवाज़े पर स्वागतम नहीं लिखा।
और
सीढ़ी से ही सीढ़ी का काम लो,मनुष्य इससे बेहतर काम के लिए है।

कवयित्री अजंता देव–जोधपुर (राजस्थान) के एक प्रवासी बंगाल परिवार में जन्मीं कवयित्री अजंता देव ने राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से हिन्दी साहित्य में एम.ए. किया है । आपने बचपन से शास्त्रीय संगीत (गायन), नृत्य, चित्रकला, नाट्य तथा अन्य कलाओं में गहरी रुचि एवं सक्रियता होने के बावजूद कवि के रूप में पहचान बनाई । कवयित्री अजंता देव ने स्कूल के दिनों से कविता लिखना शुरू किया, आपके अब तक चार कविता-संग्रह ‘राख का क़िला’, ‘एक नगरवधू की आत्मकथा’, ‘घोड़े की आँखों में आँसू’ और ‘बेतरतीब’ के साथ-साथ एक उपन्यासिका ‘ख़ारिज लोग’ एवं बच्चों के लिए एक गल्प ‘नानी की हवेली’ प्रकाशित हुई है । अजंता देव हिंदवी, कविता कोश, स्त्रीदर्पण, पश्यन्ती में कवि के रूप में दर्ज हैं ।

कवयित्री अजंता देव ने बांग्ला से नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती व शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताओं के और अंग्रेज़ी के ज़रिये ब्रेष्ट की कविताओं के हिन्दी में अनुवाद भी किए हैं ।

कवयित्री अजंता देव राजस्थान पत्रिका और धर्मयुग में पत्रकारिता करने के बाद 1983 से भारतीय सूचना सेवा में कार्यरत रहीं, 2010 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन कर रही हैं ।

राजस्थान साहित्य अकादमी की ओर से विशिष्ट साहित्यकार सम्मान और इंडिया फाउंडेशन फॉर आर्ट, बेंगलुरू से सम्मानित कवयित्री अजंता देव आलियांस फ्रांसेस की बोर्ड सदस्य के साथ-साथ राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ की महासचिव भी हैं ।

 

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