प्रिय कवि
शचीन्द्र आर्य
जनवरी 1985 में जन्में शचीन्द्र आर्य ने दिल्ली विश्वविद्यालय से एमए (हिन्दी), बी. एड. और एम. एड. किया, सी.आई. ई., शिक्षा विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय से ‘ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में आधुनिकता और शिक्षा की अन्तरक्रिया’ विषय पर पीएचडी की है। शचीन्द्र आर्य की कविताएं देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं ‘हंस’, ‘वागर्थ’, ‘पहल’, ‘समकालीन भारतीय साहित्य’, ‘नया पथ’ और ‘बहुमत’ आदि में प्रकाशित होने के साथ साथ सदानीरा वेब पत्रिका, समालोचन, हिंदवी, कविता कोश, अनुनाद में संकलित हुई हैं। ‘हंस’ में पहली दो कहानियों और अप्रकाशित डायरी का प्रकाशन हुआ। जनसत्ता, दैनिक हिंदुस्तान में लेखन एवं ‘इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’, ‘शिक्षा विमर्श’, ‘पाठशाला’ आदि में शोध लेख प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी एक पुस्तक ‘दोस्तोएवस्की का घोड़ा’ (डायरी) अंतिका प्रकाशन से 2023 में प्रकाशित हो चुकी है। वर्तमान में अध्यापन कार्य कर रहे हैं।
1. आत्मालाप के क्षण
जब कहीं नहीं था, तब इसी कमरे में चुपचाप बैठा हुआ था।
जब कहीं नहीं रहूंगा, तब भी इसी कमरे में चुपचाप बैठा रहूंगा।
इस कमरे में क्या है, यह कभी किसी को नहीं बताया।
एक किताबों की अलमारी, एक किताबों से भरा दीवान
और एक किताबों से अटी पड़ी मेज़।
किताबें मेरे लिए किसी दुनिया का नक़्शा या खिड़की
कुछ भी हो सकती थीं, अगर उन्हें पढ़ने का वक़्त होता।
इन्हें पढ़ने का वक़्त
खिड़की के बाहर बिखरी दुनिया को देखने में बिता दिया।
जो भी मेरे सपने हुए, वह इसी खिड़की से होते हुए मेरे भीतर दाख़िल हुए होंगे।
नौकरी, छुट्टी, लिखना, घूमना, तुम्हारे साथ बैठे रहना, किसी बात पर हंसना…
इन सबकी कल्पना मैंने यहीं इसी कमरे में
मेज़ पर कोहनी टिकाए हुए पहली बार कब की, कुछ याद नहीं आता।
यहीं एक छिपकली के होने को अपने अंदर उगने दिया।
वह मेरी सहयात्री थी।
वह अक्सर ट्यूबलाइट के पास दिखती। घूम रही होती।
उसे भी सपने देखने थे।
उसके सपने बहुत छोटे थे। किसी कीड़े जितने छोटे। किसी फुनगे जितने लिजलिजे।
मैंने भी अपने छिपकली होने की इच्छा सबसे पहले उसे देखकर ही की थी।
कुल दो या तीन इच्छाओं और छोटे से जीवन को समेटे हुए वह मेरी आदर्श थी।
जैसे आदर्श वाक्य होते हैं, वह इस ज़िंदगी में किसी कल की तरह अनुपस्थित थी।
सोचा करता, तुम भी छिपकली होती, मैं भी तब छिपकली हो आता।
हम किसी सीमातीत समय में चल नहीं रहे होते। बस दीवार से चिपके होते।
इसके बाद एक-एक करके मैंने मेज़, खिड़की, छत, किताब के पन्ने
और स्याही होने की इच्छा को पहली बार अपने अंदर महसूस किया।
जिस उम्र में सबके मन अपने कल के बहुत से रूमानी स्पर्शों से भरते रहे,
मैं अपनी अब तक की असफलताओं पर ग़ौर करते हुए एक आत्मकेंद्रित व्यक्ति बनता रहा।
इन्हीं पंक्तियों में मुझे अपनी कल होने वाली असफलताओं के सूत्र दिख गए।
मैं वहां हारा, जिनमें लड़ना या उतरना मैंने तय नहीं किया।
जो जगहें मैंने तय की, उसमें कभी कोई नहीं मिला। मैं अकेला था।
यह किसी रहस्य को जानने जैसा नहीं था,
सब यहां इस कमरे में आकर उघड़ गया था।
यह रेत से भरी नदी के यकायक सूख जाने जैसा अनुभव रहा।
रेत थी। सूरज था। उसकी सीधी पड़ती किरणों से तपता एहसास था।
मेरी कोमलतम स्मृतियां, जिनसे कभी अपने आज में गुज़रा नहीं था, वह झुलस गई थीं।
क्यों हो गया ऐसा? क्यों वह आगामी अतीत स्थगित जीवन की तरह अनिश्चित बना रहा?
सब इस क़दर उथला था, जहां सिर्फ़ अपने अंदर उमस से तरबतर भीगा रहता।
वह नमकीन भरा समंदर होता, तब भी चल जाता। वह कीचड़ से भरा दलदल था।
उस पल यह कमरा, कभी न सूखने वाली नमी की तरह मुझे अपने अंदर महसूस होता।
आत्मालाप के क्षणों में टूटते हुए कितनी बार इसने मुझे देखा। देखकर कुछ नहीं कहा।
मैं कभी नहीं चाहता था, कोई मुझे कुछ कहे। कोई कह देता तो मेरे अंदर कहां कुछ बचता।
शायद इन पंक्तियों को पढ़कर भी वह कभी न समझ सकें,
क्यों इस ख़ाली कमरे में छत पंखे को बिन चलाए बैठा रहता।
यहां ऐसे बैठे रहने और इसकी तपती ईंटों से निकलने वाला ताप
मेरे अंदर के आंसुओं को पसीने में बदल देता
और देखने वाला आसानी से धोखा खा जाता।
मैं शुरू से यही धोखा देना सीखना चाहता था।
एक धोखेबाज़ की तरह जीना मुझे हमेशा से मंजूर था।
2. चीड़ों पर चांदनी
तेईस साल पहले एक लड़की थी, प्रिया मिश्र।
उसने कभी यह किताब आठ सितम्बर के दिन खरीदी होगी।
आज उसे कितना याद होगा, पता नहीं।
कभी-कभी सोचने लगता हूं,
उसे यह किताब कहां मिली होगी?
किसने बताया होगा, निर्मल वर्मा को पढ़ना चाहिए?
किसी किताब की तरह नहीं,
आहिस्ते से भाषा में तैरते हुए कहीं दूर निकल जाने के लिए।
जैसे बुढ़ापे में हमारी कमर झुक जाती है,
उसी तरह आज इसका एक-एक पन्ना पीला पड़ चुका है।
निर्मल वर्मा की किताब में इस लड़की का नाम
‘लिदीत्से’ की तरह दिल में रह गया है।
कभी लिखूंगा।
एक लड़की थी प्रिया मिश्र। जो किताब पढ़ती थी।
मैं बिलकुल नहीं जानता
इस नाम की लड़की असल में भी कहीं है भी या नहीं।
फ़िर भी यह ख़याल मेरे मन से कहीं नहीं जाता।
ज़िन्दगी में कभी मिले,
तो उनके नाम की यह किताब उन्हें वापस कर दूंगा।
कभी सोचता हूं,
कितनी उमर रही होगी उनकी? आज कितने साल की होंगी?
मैं ख़ुद तीस पार चला आया हूं।
वह भी तब उन्नीस-बीस की रही होंगी। शादी नहीं हुई होगी।
हो सकता है,
उन्होंने अपने साथी को यह किताब खरीद कर दी हो
और वह इसे अपने पास नहीं रख पाया।
पता नहीं क्यों यह कहानी मुझे खींच रही है।
लड़की किताब से नहीं, उसे पढ़ने वाले से प्यार करती है।
उसे पढ़ने वाला,
उसे क्या, उसकी दी किताब भी नहीं संभाल पाया।
अक्सर हम लड़के ऐसे ही होते हैं। बेकार। डरपोक। लापरवाह।
3. जंगल
जो घास में लेमन ग्रास और चिड़िया में कौए, गिलहरी को जानते हैं,
उनके लिए जंगल का मतलब
छत, आंगन और तीसरी मंज़िल की बालकनी में
हाथ भर की दूरी पर रखे गमले में लगी तुलसी, मिर्च और करेले की बेल है।
वह कभी नहीं समझ पाएंगे, लोग जंगल क्यों नहीं छोड़ना चाहते।
4. दुःख
पीछे से दिखाई दी सफ़ेद बालों वाली खोपड़ी।
झुकी गर्दन। चीकट से कॉलर।
पसीना ठंड में उस तरह लकीर बनकर नहीं बहता।
किसी नमकीन झील की तरह जम जाता है गर्दन पर।
उन खिचड़ी हो गए बालों की तरह खिचड़ी रही होगी उसकी ज़िंदगी।
बेतरतीब। बेस्वाद। पसीने का नमक भी नहीं होगा उसमें जीभ के लिए।
कंधों पर घास के सूखे तिनके थे,
एक बोट थी, एक फुनगा था।
दुःख वहीं कहीं छिपा बैठा था। दूर से रुई-सा हल्का दिखने वाला।
पास से वह दुःख ही था,
तिल के दाने जितना। उसी में सब पीड़ा थी।
कभी दुख में सुख के इंतज़ार का दुख था।
दुःख ही उसकी धमनियों में ख़ून बनकर खोई हुई चींटी की तरह रेंगता होगा।
सामने से देखने पर वह आईना-सा लगता।
जो भी उसकी तरफ़ देखता, मुतमईन हो जाता।
आहिस्ते से बुदबुदाता
मैं नहीं हूं।
पर उन्हें पता था,
वही फुनगी,
वही बोट,
वही खिचड़ी बाल उनकी तस्वीर में भी हूबहू वैसे ही थे
गर्दन पर पसीने की लकीर की तरह।
5. पैमाने
क्या हम अपनी उदासी को किसी तरह माप सकते हैं?
या कुछ भी, जिसे मन करे?
कहीं कोई क्या ऐसा होगा, जो हर चीज़ के लिए ऐसे पैमाने बना पाया होगा?
क्या वह हर भाव, क्षण, मनः स्थिति, घटना, अनुभूति,
उसके गुज़र जाने के बाद पैदा हुई रिक्तता, अतीत, भविष्य, कल्पना,
ईर्ष्या, कुंठा, भय, स्वप्न, गीत, स्वर, जंगल, सड़क, मिट्टी, हवा, स्पर्श
सबके लिए वह कुछ न कुछ तय करके गया होगा?
अपने अंदर देखता हूं तो लगता है, बीतते दिन में आती शाम
और उसे अपने अंदर समा लेती रात ज़रूर कुछ बता जाती होगी।
मुझे भी वह सब जानना है।
लेकिन यह कैसे संभव होगा?
क्या यह हो सकता है, हम किसी भाषा के
सीमित शब्दों में असीमित संभावनाओं को समेटते चले जाएं?
कभी लगता, इनके बजाय अगर वह कुछ युक्तियां बता सके, तो बेहतर होगा।
मैं ऐसे प्रेम करना चाहता हूं, जिसे मैं भी ख़ुद न पहचान पाऊं।
जिससे करूं, वह मुझमें खुलता बंद होता रहे।
यह पानी और नदी जैसे होगा शायद। नहीं तो पेड़ और उसकी परछाईं जैसा।
चाहता हूं, ऐसी ईर्ष्या जिससे करूं,
जिसे वह उसे मेरा अनुराग समझे, लेकिन तह में यह भाव
किसी कुंठा की तरह मन में बनी हुई गांठ की तरह उसे नज़र न आए।
इसी में कुछ ऐसे सपनों तक पहुंच जाना चाहता हूं,
जो सपनों की तरह नहीं ज़िंदगी के विस्तार की तरह लगें।
उनमें रंग बिल्कुल गीले हो। उनसे मेरे हाथ रंग जाएं।
शायद अब आप कुछ-कुछ
उन नए पैमानों की तासीर तक पहुंच पा रहे होंगे
और यह भी समझ पा रहे होंगे कि उनकी मुझे ज़रूरत क्यों है।
मैं अपनी सारी घृणा,
ईर्ष्या और सारे अप्रेम के साथ कुछ-कुछ ऐसा हो जाना चाहता हूं।
6. भूमिका
कोई होता, जो हमें बता पाता,
किस तरह हम इस समय को समझ सकते थे।
कैसे पहले की गयी गलतियों से कुछ सीख लेना था।
किन मौकों को बेहतर इंसान बनने के लिए चुना जाना था।
अगर उनसे इतना भी न होता,
तब, कम से कम वह यह बता पाते, यह समय
किस तरह दोबारा हमें अतीत में ले जाने की कोशिश करता रहा,
जहां हम बर्बर, हिंसक, खुरदरे होकर सिर्फ़ आवारा भीड़ होते गए।
उसे लगता,
इतिहासकार यह भूमिका ठीक से निभा सकते थे।
7. सुखी आदमी
मेरे मन में हमेशा से एक सुखी आदमी की धुंधली-सी तस्वीर रही है।
कभी वह पिता के चेहरे से मिल जाती, कभी उसमें कोई शक्ल नहीं होती,
बस नाक, मुंह, कान और होंठ होते।
उस तस्वीर मिल जाने और उसके खो जाने के बावजूद
पहला सवाल यही था, यह सुख क्या है?
हम सब अपने लिए अलग-अलग सुखों की कल्पना करते हैं।
कभी लगता, अपनी कल्पना में सब अकेले होकर सुख ढूंढ़ लेते होंगे।
यह नींद सबका एकांत और सुख रच सकती थी,
जिसकी संभावना अब बेकार लगती है।
मैं तो बस ऐसे ही ख़याल में खोया किसी खाली कमरे में
मेज़ के सामने तिरछा बैठे हुए
वक़्त और मेहनत लगाकर लिखी गयी किताबों को पढ़ लेना चाहता हूं।
उन्हें न भी पढ़ पाया, तब भी इसके बाद ही बता पाऊंगा,
जिसे अपना एकांत कह रहा था, वहां कितना सुखी था!